न्यूज चैनलों की TRP एक बार फिर सवालों के घेरे में हैं. इस बार TRP के लिए किसी अजीबोगरीब तरीके से कवरेज की खबर नहीं है, खबर है कि TRP खरीदी जा रही है. आजकल न्यूज चैनल्स की टीआरपी के मामले में एक नंबर पर चल रहे अर्णब गोस्वामी के चैनल रिपब्लिक टीवी पर गंभीर आरोप हैं. मुंबई पुलिस का आरोप है कि घरों में जाकर लोगों को चैनल को लगाए रखने के लिए कहा जाता था और इसके लिए लोगों को 500 रुपये प्रति महीने भी दिए जाते थे. मामले में दो दूसरे चैनलों के लोग गिरफ्तार भी हुए हैं. कुल चार लोग पकड़े गए हैं. अब ऐसे में जरा ये समझते हैं कि आखिर ये टीआरपी ऐसी क्या चीज है? आखिर क्यों इसके लिए टीवी चैनल साम-दाम-दंड-भेद सब अपना ले रहे हैं.
TRP क्या है?
TRP यानी टेलीविजन रेटिंग पॉइंट एक ऐसा तरीका है, जिसके जरिए ये पता लगाया जाता है कि जिन लोगों के घर में टीवी सेट लगे हुए हैं उन्हें कौन सा चैनल या प्रोग्राम देखना पसंद है. मतलब की कौन सा चैनल या प्रोग्राम कितना लोकप्रिय है और कितने वक्त लोग उन चैनल्स और प्रोग्राम को देखने में दे रहे हैं. अब आसान भाषा में कहें तो जिस चैनल या प्रोग्राम की जितनी पॉपुलैरिटी लोगों में होगी, उसकी टीआरपी उतनी ही ज्यादा होगी.
TRP रेटिंग कैसे तय होती है?
अब पूरे भारत में करोड़ों टीवी सेट होंगे तो टीआरपी कैसे तय होती होगी? इसके लिए सैंपल के तौर पर कुछ निर्धारित शहरों, कस्बों के घरों में टीआरपी मापने वाले 'पीपल मीटर' लगाए जाते हैं. सैंपल के लिए निर्धारित घरों में इस डिवाइस को टीवी के साथ लगाया जाता है. इसी की मदद से उस टेलीविजन सेट पर क्या देखा जा रहा है और कितनी देर तक देखा जा रहा है, ये पता किया जाता है. इसके अलावा पिक्चर मैचिंग और ऑडियो वॉटरमार्क जैसे तकनीक भी सैंपल कलेक्ट करने के लिए इस्तेमाल होती हैं. कुछ हजार घरों में लगने वाले इन टूल्स से ही टीआरपी तय होती है. जिसमें खास तौर से दो चीजों का ध्यान रखा जाता है.
- चैनल/ प्रोग्राम कहां-कहां देखा जा रहा है
- कितनी देर देखा जा रहा है
कहने का मतलब कि अगर कोई चैनल कम सेटों पर ही ज्यादा देर तक देखा जा रहा है तो हो सकता है उसकी टीआरपी ज्यादा सेटों पर देखे जाने वाले दूसरे चैनल से ज्यादा हो.
हेरफेर कैसे हुई, ताजा उदाहरण से समझिए
मुंबई पुलिस कमिश्नर ने टीआरपी रैकेट का भंडाफोड़ करते हुए बताया कि जहां पर ऐसे टीआरपी मापने वाले डिवाइस लगते हैं, उसका डेटा गोपनीय होता है. लेकिन कुछ लोगों की मिलीभगत से टीवी चैनलों से ये डेटा शेयर किया जा रहा था. इसके बाद चैनल उन घरों को जहां से टीआरपी का डेटा लिया जा रहा था उन्हें पैसे देकर खरीद रहे थे.
उन घरों को कहा जाता था कि आप इसी चैनल को लगाकर रखिएगा. चाहे उसे देखें या ना देखें. साथ ही ये तक कहा जाता था कि अगर आप कहीं बाहर जा रहे हैं तो ये चैनल ऑन करके बाहर जाएं. वहीं कुछ मामलों में तो बिना पढ़े लिखे लोगों के घरों में अंग्रेजी के चैनलों को ऑन रखा जाता था. इसके लिए हर परिवार को पैसे दिए जाते थे.
कौन कैलकुलेट और तय करता है ये सब?
ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (BARC) टीआरपी तय करती है. ये एक ऐसी इंडस्ट्री बॉडी है, जिसे एडवटाइजर, एड एजेंसियां और ब्रॉडकास्टिंग कंपनियां चलाती हैं. यही BARC, TRP के जरिए देश में टेलीविजन व्यूअरशिप को मापती है. BARC ने देशभर के 45000 घरों में सैंपल के लिए BAR-O-meters लगा रखे हैं . एक शो देखते वक्त जिसके घर में ये डिवाइस है वो अपनी मौजूदगी एक व्यूअर आईडी बटन के जरिए दर्ज कराया है. ऐसे में तय हो जाता है कि कौन सा चैनल कौन देख रहा है और कितनी देर देख रहा है. अलग-अलग समुदायों, उम्र और दूसरे पैरामिटर पर ये डेटा बांट लिए जाते हैं और टीआरपी की लिस्ट तैयार होती है.
टीआरपी की रेस क्यों है?
टीआरपी में रेस का सीधा फंडा रेवेन्यू से जुड़ा है. किसी चैनल की ज्यादातर कमाई होती है विज्ञापनों से, अब जिस चैनल पर या जिस प्रोग्राम पर लोग ज्यादा समय बिता रहे हैं, या ज्यादा लोग किसी प्रोग्राम या चैनल को देख रहे हैं तो उस चैनल पर विज्ञापन देखे जाने के चांसेज भी बढ़ेंगे. ऐसे में विज्ञापन देने वाली कंपनियां ऐसे चैनल्स को अहमियत देती हैं. चैनल की कमाई बढ़ जाती है. ऐसे में गलाकाट प्रतिस्पर्धा के इस दौर में नंबर-वन बने रहने की जुगत में चैनल लगे रहते हैं. दर्शकों को ध्यान खींचने के लिए अलग-अलग प्रयोग करते हैं. कई बार टीआरपी के चक्कर में जरूरी मुद्दों को भुलाकर ड्रामा क्रिएट करते हैं. हाल फिलहाल में तो न्यूज चैनल्स ने मनोरंजन वाले चैनलों को टीआरपी के मामले में पीछे छोड़ दिया था.
पिछले साल के लिए मीडिया और एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री पर FICCI-EY की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय टेलीविजन इंडस्ट्री का साइज 78,700 करोड़ था और एडवटाइजर के लिए TRP मुख्य करेंसी होती है जिसके जरिए तय किया जाता है कि किस चैनल पर एडवरटाइज करना है.
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