सबसे मशहूर इस उर्दू शायर का लिखा हर एक लफ्ज खुद में दर्द का दरिया समेटे हुए है. दुनिया उन्हें मिर्जा गालिब के नाम से जानती है. 15 फरवरी 1869 को गालिब ने आखिरी सांस ली. उन्हें दिल्ली के निजामुद्दीन बस्ती में दफनाया गया. उनकी कब्रगाह को मजार-ए-गालिब के नाम से जाना जाता है और आम जनता के लिए ये खुला है.
गालिब के बारे में दिलचस्प बातें:
- 1810 में 13 साल की उम्र में गालिब का निकाह उमराव बेगम से हुआ था जो नवाब इलाही बख्श की बेटी थीं.
- मुगल राजा बहादुर शाह जफर के गालिब दरबारी कवि थे और उन्हें दरबार-ए-मुल्क, नज्म-उद दौउ्ल्लाह के पदवी से नवाजा गया.
- गालिब ने 11 साल की उम्र से कविताएं लिखनी शुरू की.
- गालिब ने उर्दू के कई आसान शब्द जैसे कि सलाम वालेकुम, खुदा हाफिज, दोस्त सुनो को अपनी चिट्ठियों के जरिए चर्चित कर दिया.
- कवि जउक जो शहंशाह बहादुर शाह जफर -II के टीचर थे उन्हें गालिब का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी माना जाता था.
उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ और उनका पूरा नाम मिर्जा असदउल्ला बेग खान गालिब था.
गालिब की पुण्यतिथि के मौके पर हम आपको लिए चलते हैं दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में उनकी पुश्तैनी हवेली पर. तस्वीरों के जरिए हम आपको गालिब की विरासत दिखाएंगे और गालिब के कुछ मशहूर शेर से रू-ब-रू कराएंगे.
उन के देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक, वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है...
आगरा से दिल्ली आने के बाद गालिब इसी हवेली में रहे. अब ये म्यूजियम में तब्दील हो चुका है और सबके लिए मुफ्त है.
रोने से और इश्क में बे-बाक हो गए...धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए
गालिब के कुल 11802 शेर जमा किये जा सके हैं उनके खतों की तादाद 800 के करीब थी.
हजारों ख्वाहिशेंऐसी कि हर ख्वाहिशें पे दम निकले...बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले...
इश्क की इबादत हो या खुदा से शिकायत, नफरत हो या दुश्मनों से मोहब्बत, गालिब के हर शेर और शायरी में कुछ अपना सा दर्द छलक जाता है.
हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन... दिल के बहलाने को गालिब ये खयाल अच्छा है...
एक बार का वाकया है कि गालिब उधार में ली शराब का कर्ज नहीं उतार सके. दुकानदारों ने उनपर मुकदमा कर दिया, अदालत में सुनवाई हुई और सुनवाई के दौरान ही गालिब ने सबके सामने ये शेर पढ़ दिया...
कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां...रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
ये शेर सुनते ही अदालत ने उनका कर्जा माफ कर दिया.
काबा किस मुंह से जाओगे गालिब...शर्म तुम को मगर नहीं आती...
मिर्जा गालिब पर कुछ उपलब्ध किताबों के नाम ‘‘दीवान-ए-गालिब’’, ’’मैखाना-ए-आरजू’’, पंच अहग, मेहरे नीमरोज, कादिरनामा, दस्तंबो, काते बुरहान, कुल्लियात-ए-नजर फारसी व शमशीर तेजतर हैं.
रेख्तें के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो गालिब...कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था...
जब गालिब के पास पैसे नहीं होते थे, तो वह हफ्तों कमरे में बंद रहते थे. उन्हें डर होता था कि अगर टैक्स नहीं भरा तो दरोगा पकड़कर ले जाएगा.
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है...आखिर इस दर्द की दवा क्या है...
गालिब के जन्मदिन से पहले म्यूजियम का मुआयना करते साहित्य कला परिषद के अधिकारी.
अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-कत्ल...मेरे पते से खल्क को क्यूं तेरा घर मिले...
गालिब की सात संतानें हुईं, पर कोई भी जीवित नहीं रह सकी. उनकी शायरी में गम का ये कतरा भी घुलता रहा.
शहादत थी मिरी किस्मत में,
जो दी थी यह खू मुझकोजहां तलवार को देखा,
झुका देता था गर्दन को.
इश्क़ पर ज़ोर नहीं , है ये वो आतश ग़ालिब...कि लगाए न लगे और बुझाए न बने...
ज़िंदगी में तो वो महफिल से उठा देते थे...देखूं अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे...
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)