बेईमान मौसम, किसानों के हित के ठीक उलट बनाई गई नीतियों और व्यापारियों को दिए गए भ्रष्ट प्रोत्साहन की वजह से हाल के वर्षों में दालों, विशेषकर तूर दाल या अरहर, के रेकॉर्ड उत्पादन के बावजूद इनकी कीमतों में बेतहाशा वृद्धि देखने को मिली है.
यहां तक कि उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात इलाके में कई सालों से अरहर की खेती करने वाले किसान भी इस साल की शुरुआत में हुई ओलावृष्टि और तेज बारिश की वजह से हुए नुकसान को देखते हुए अब दूसरी फसलों की खेती करने लगे हैं.
जिले में अरहर की खेती करने वाले किसानों के एक मुखिया को उम्मीद थी कि इस बार वह कम से कम 25 कुंतल अरहर उपजाएंगे, लेकिन कड़ी मेहनत के बाद भी सिर्फ एक कुंतल अरहर ही हो पाई.
अरहर की खेती पूरी तरह से विश्वास पर आधारित है. इसकी एक फसल तैयार होने में 9 महीने लगते हैं, और जब यह बर्बाद होती है तो पूरे साल की कमाई जीरो रह जाती है.
कर्नाटक के गुलबर्ग (अब कलबुर्गी) इलाके, जोकि अरहर की खेती का गढ़ है, में इस बार अरहर की बुआई के लिए ऐसी होड़ मची थी कि एक कृषि विश्वविद्यालय के स्थानीय रिसर्च सेंटर में बीजों की कमी हो गई थी. लेकिन जुलाई में कम बरसात होने के कारण इस बार अच्छी फसल होने की उम्मीद कम रह गई.
वहीं, महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित मराठवाड़ा क्षेत्र में सितंबर में हुई बारिश ने अरहर की फसल के लिए अमृत का काम किया. इससे अच्छी फसल होने और इस इलाके के किसानों का कष्ट कुछ कम होने की उम्मीद बंधी है.
लेकिन फिर भी माना जा रहा है कि मॉनसून की फसल का कुल उत्पादन अनुमानित 7.05 करोड़ टन से लगभग 1.5 करोड़ टन कम होगा.
दालों के उत्पादन में कमी
दुनिया में अरहर के कुल उत्पादन में भारत का हिस्सा 64 प्रतिशत का है. भारत में चने की दाल के बाद सबसे ज्यादा इसी दाल की खपत है. औसत उत्पादन में लगातार तीन सालों की वृद्धि के बाद 2013-14 में प्रत्येक हेक्टेयर में 762 किग्रा अरहर का उत्पादन होता था, जो कि वैश्विक औसत के करीब है.
भारत में अरहर का उत्पादन जस का तस बना हुआ है, जबकि 1992 के बाद से 36 बेहद उपजाऊ किस्में बाजार में लाई गई हैं. इसके लिए हाइब्रिड बीज भी तैयार किए गए, और दालों की खेती में ऐसा पहली बार हुआ. इन हाइब्रिड बीजों से रिसर्च फार्मों में तो एक हेक्टेयर में लगभग तीन टन दालें पैदा हुईं, लेकिन किसानों के खेतों में आकर इनका प्रदर्शन गिर गया.
क्या उत्पादन के आंकड़ों में हो रही है हेराफेरी
देश में लगभग एक करोड़ टन चने की दाल का उत्पादन होता है. पिछले 10 सालों में ये उत्पादन दोगुना हुआ है. अब जितने क्षेत्र में चना बोया जाता है उतना 1959-60 के अपने सबसे अच्छे दिनों में बोया जाता था. पिछले 25 सालों में चने की 89 उन्नत किस्में आई हैं जो कि सबसे ज्यादा हैं.
बड़े आकार वाले काबुली चने ने तो कमाल की तरक्की की है. इसकी कुछ मात्रा तो निर्यात भी हो रही है. उत्तर भारत में इस फसल को हुई चालीस लाख हेक्टेयर की कमी की पूर्ति मध्य, पश्चिम और दक्षिण भारत ने कर दी है क्योंकि चने पर प्रकाश और गर्मी का खास असर नहीं पड़ता है.
भारत में तीन हेक्टेयर जमीन में लगभग 10 लाख टन मूंग दाल का उत्पादन होता है. क्योंकि इसकी फसल लगभग 60 दिनों में तैयार हो जाती है. इसे एक ऐसी अवसरवादी फसल के रूप में देखा जाता है जो पूर्वी भारत की धान के बाद फिर धान पैदा करने वाले फसल क्रम और उत्तरी-पश्चिमी भारत की धान-गेहूं की फसलों के बीच में फिट बैठ जाती है.
वास्तव में एक तीन-फसलों वाली खेती में मूंग दाल की खेती करने की सलाह दी जाती है क्योंकि यह हवा से ली गई नाइट्रोजन को जमीन में भेजकर उसे उपजाऊ बनाती है.
मूंग की दाल के उत्पादन में तो अच्छी-खासी बढ़ोतरी देखने को मिली है लेकिन फिर भी यह मांग की पूर्ति के लिए अपर्याप्त साबित हुई है.
कुछ समीक्षकों का मानना है कि उत्पादन के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है क्योंकि राज्यों के कृषि विभाग इस किस्म की हेराफेरी के लिए जाने जाते हैं. लेकिन फिर भी आंकड़ों से ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की जा सकती.
दालों की कृत्रिम कमी दिखाकर लाभ कमाने से व्यापारियों को रोकने के लिए पुलिस के हस्तक्षेप की जरूरत है.
किसानों को दालों के भंडारण के लिए प्रोत्साहित किए जाने की जरूरत है ताकि जब आपूर्ति कम हो तो वे ज्यादा दामों में इन्हें बेचकर खुद लाभ कमा सकें.
कीड़ों से लड़ने वाली बीटी जीन का अरहर और चने में भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
दालों के लिए एक स्थिर कीमत फंड बनाकर आसमान छूती कीमतों को काबू में किया जा सकता है.
दोषपूर्ण नीति
सार्वजनिक नीतियां दालों के उत्पादन में मददगार साबित नहीं हुई हैं. न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है लेकिन उनकी खरीद बेहद कम की जाती है. इससे किसान ज्यादा से ज्यादा गेहूं या धान उपजाने की कोशिश करते हैं. वैसे भी किसानों की नजर में दालें दूसरे दर्जे की फसल है. एक या दो अतिरिक्त सिंचाई से दालों के उत्पादन में 30-40 फीसदी तक की वृद्धि हो सकती है, लेकिन आमतौर पर ऐसा किया नहीं जाता.
खाद नीति भेदभावपूर्ण है. यूरिया (नाइट्रोजन) पर भारी सब्सिडी दी गई है. दालें अपना नाइट्रोजन खुद पैदा कर लेती हैं. लेकिन फॉस्फोरस और पोटैशियम युक्त खादें, जिनकी दालों को जरूरत होती हैं, बाजार के दामों पर बिकती हैं और दाल उगाने वाले किसानों की पहुंच से आमतौर पर बाहर होती हैं.
दालों के शोधकर्ताओं का मानना है कि यदि इन्हें फली छेदक (एक किस्म के कीड़े) से बचाया जा सके तो दालों के उत्पादन में एक-तिहाई वृद्धि हो सकती है. जेनेटिक इंजिनियरिंग के दम पर ऐसा किया जा सकता है क्योंकि लोकल किस्मों में इससे बचाव के तरीके उपलब्ध नहीं हैं.
बीटी जीन, जिसने कपास की कीड़ों से लड़ने की क्षमता में वृद्धि की, का इस्तेमाल अरहर और चने के लिए भी किया जा सकता है. लेकिन सरकार ने अभी तक खाद्य फसलों के जेनेटिक मॉडिफिकशन की इजाजत नहीं दी है (हालांकि पब्लिक सेक्टर रिसर्च इंस्टिट्यूशनों ने इस टेक्नोलॉजी में निवेश किया है).
कदम जिन्हें उठाना है जरूरी
कीड़ों से प्रभावित होने की वजह से खड़ी दालें ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाती हैं. दरी हुई दालें ज्यादा दिन तक चलती हैं लेकिन उनके भंडारण की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध नहीं है.
जमाखोरी को रोकने के लिए सरकार ने गोदामों में भंडारण की सीमा तय की है. लेकिन व्यापारी कृत्रिम कमी न दिखा सकें, इसके लिए पुलिस के हस्तक्षेप की भी जरूरत है.
आलू की ही तरह दालों के भंडारल के लिए स्टोरेज फैसिलिटी को प्रोत्साहन दिए जाने की जरूरत है, ताकि किसान अपनी फसल पैदा होने के ठीक बाद वहां स्टोर कर सकें. इसके बाद जब उत्पादन कम होने की वजह से कीमतें बढ़ें तो उन्हें बेचकर अच्छा फायदा कमा सकें.
जमानत के रूप में उन्हें गोदाम से रसीदें दी जाएं ताकि उनके बल पर वह सामान उधार ले सकें. एक स्थिर कीमत फंड का भी गठन किया जा सकता है. लेकिन ऐसे कामों के लिए सरकारी एजेंसियां जल्दी आगे नहीं आतीं.
पैसे के हिसाब से देखा जाए तो खाद्य तेल के बाद दाल दूसरी सबसे ज्यादा आयात की जाने वाली खाद्य वस्तु है. समीक्षकों का कहना है कि कनाडा से आई पीले मटर की दाल में चना दाल मिलाकर उन्हें ऊंची कीमतों पर बेचा जाता है. वहीं ढाबे और होटलों में इसे तूर दाल बताकर खपा दिया जाता है.
घरेलू स्तर पर दालों का उत्पादन बढ़ाने और कीमतों को काबू में करने के लिए कई कदम उठाने की जरूरत है. लेकिन जाहिर तौर पर यह काम थोड़ी लंबी अवधि को ध्यान में रखकर किए जाना चाहिए.
(विवियन फर्नांडिज www.smartindianagriculture.in के कंसल्टिंग एडिटर हैं)
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