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साकीनाका केस में जल्द इंसाफ का वादा, पर राज्य में 1.63 लाख फास्ट ट्रैक केस लंबित

Fast Track कोर्ट का गठन तेजी से मामलों में निबटारे के लिए किया गया था

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भारत
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मुंबई के साकीनाका रेप केस की दरिंदगी ने पूरे देश को दहला कर रख दिया. इस मामले में पीड़ित महिला पर हुए अत्याचार ने दिल्ली के निर्भया की जख्मों की यादे फिर से ताजा कर दी.

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने इस मामले का ट्रायल फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलाने और एक महीने के अंदर चार्जशीट दाखिल करने के आदेश दिए हैं. लेकिन कानून और न्याय मंत्रालय ने संसद में दिए जवाब में महाराष्ट्र फास्ट ट्रैक कोर्ट के पेंडिंग केसेस के चौकाने वाले आंकड़े सामने आए है.

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पूरे देश मे फास्ट ट्रैक कोर्ट के आंकड़े चौकाने वाले

महाराष्ट्र के फास्ट ट्रैक कोर्ट में 1 लाख 63 हजार 112 केसेस पेंडिंग होने की जानकारी है. जिससे सवाल उठ रहा है कि क्या सच मे बलात्कार और "प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्र्न अगेंस्ट सेक्शयुअल ऑफेन्स (POCSO) एक्ट" के पीड़ितों को फास्ट ट्रैक कोर्ट से राहत मिलती है.

दरअसल, महिलाओं और बच्चों के यौन शोषण के मामलों में तेजी से न्याय दिलाने के लिए निर्भया फंड का इस्तेमाल करते हुए देश भर में फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना की गई है. जिसके तहत महाराष्ट्र में 138 कोर्ट को मंजूरी मिली. लेकिन उसमें भी कुछ ही शुरू हो पाए.

लोकसभा से सामने आए आंकड़ों के मुताबिक महाराष्ट्र में साल 2018 में 1 लाख 60 हजार 642 मामलों का निपटारा किया गया है. तो वही 2019 में 29,779 केसेस को निपटाया. लेकिन कोरोना काल की वजह से न्याय प्रक्रिया धीमी होने के कारण केवल 5,119 केसेस और 2021 में अबतक 3039 केसेस में फैसला आया है. बता दे कि देश मे यूपी के बाद फास्ट ट्रैक कोर्ट केसेस पेंडिंग मामले में महाराष्ट्र दूसरे नंबर पर है.

क्यों विफल हो रहे फास्ट ट्रैक कोर्ट

सामाजिक कार्यकर्ता एड. असीम सरोदे का कहना है कि फास्ट ट्रैक कोर्ट एक भ्रामक अवधारणा बनकर रह गई है. 1998 में केंद्रीय वित्त आयोग ने राज्य की जेलों में बिना गुनाह साबित हुए सजा काट रहे कैदियों की संख्या को कम करने और उन पर होने वाले खर्च को कम करने के लिए एक फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की सिफारिश की. लेकिन कुछ सालों बाद केंद्र से मिलने वाली निधि बंद होने और उनकी समीक्षा ना होने की वजह से न्यायिक दर्जा नही रहा.

फास्ट ट्रैक के कई केसेस सुप्रीम कोर्ट में रिवर्स होने लगे. इसीलिए इन कोर्ट में पेंडेंसी बढ़ने लगी है. हमे विशेष न्यायाल एक्ट के तहत मौजूदा न्यायिक व्यवस्था सुधारने पर जोर देना चाहिए जिसमें 180 दिनों में चार्जशीट दायर करने और तीन महीने में केस का फैसला देने की सिफारिशें है. वैसे भी तेजी से न्याय मिलने का अधिकार सभी को है. उसमें भेदभाव करने का कोई प्रावधान हमारे न्याय व्यवस्था में नही है.

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सबसे अधिक मामले महाराष्ट्र में लंबित

एनसीआरबी(NCRB) 2020 की रिपोर्ट द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, महाराष्ट्र में 2020 में सबसे अधिक 2,07,962 मामले लंबित हैं . इसमें सबसे अधिक 74,039 मामले ऐसे है जिनमें अपर्याप्त सबूत या आरोपी का पता नहीं चल पाया. शहरों में मुंबई 76,763 मामले दर्ज कर दूसरे स्थान पर रहा. यह दिल्ली के बाद दूसरे स्थान पर है, जहा 92,622 मामले लंबित थे.

इसी के साथ साल 2020 के अंत में महाराष्ट्र में सबसे अधिक 18,82,532 मामले लंबित थे. 14,55,107 के साथ पश्चिम बंगाल, 13,72,149 के साथ गुजरात, 13,02,421 के साथ बिहार और 12,51,725 मामलों के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें स्थान पर रहा.

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सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी मीरा बोरवणकर का मानना है कि इतने बड़े पैमाने पर केसेस की पेंडेंसी दर्शाती है कि 'फास्ट ट्रैक कोर्ट' अपने उद्देश्य की पूर्ति करने में विफल रहे हैं.

हमें अधिक न्यायिक अधिकारियों की भर्ती करनी होगी और अधिक न्यायालयों का निर्माण करना होगा. हमें अधिक अभियोजकों को शामिल करना होगा और अधिक जांच अधिकारियों की भर्ती करनी होगी.

क्रिमिनल जस्टिस पर खर्च को दोगुना करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. यह सिस्टम पूरी तरह से ढह गया है. इसमे सुधार लाने के लिए अधिक फोरेंसिक लैब्स जैसे तकनीकी संसाधनों की आवश्यकता है.

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