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शाह बानो से शायरा बानो तक: मुस्लिम महिलाओं की लड़ाई की कहानी

बीते 40 सालों में मुस्लिम महिलाओं ने हक की लड़ाई को पहुंचाया अंजाम तक

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ये साल 2017 है जब शायरा बानो की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने एतिहासिक फैसला सुनाते हुए ट्रिपल तलाक को असंवैधानिक घोषित कर दिया है. लेकिन आज से करीब 40 साल पहले एक और महिला थी जिसने पुरजोर तरीके से अपनी आवाज बुलंद की थी. नाम था- शाह बानो. साल था 1978. शाह बानो के केस ने धर्म से लेकर सियासत तक तूफान ला दिया.

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क्या है शाह बानो केस?

शाह बानो की शादी 1932 में इंदौर के मशहूर वकील मोहम्मद अहमद खान के साथ हुई. शादी के 14 साल बाद अहमद खान ने दूसरी शादी कर ली. वो दोनों बीवियों के साथ एक घर में रहते रहे लेकिन साल 1975 में अहमद खान ने शाह बानो को 5 बच्चों के साथ घर से बाहर निकाल दिया. जब उन्होंने अपने पति से अपना हक मांगा तो अहमद खान ने 6 नवंबर 1978 को तलाक..तलाक..तलाक बोल कर ट्रिपल तलाक दे दिया. लेकिन शाह बानो ने हिम्मत दिखाई और अपने पति से गुजारे भत्ते की मांग की. अहमद खान ने मेहर की रकम पहले ही अदा करने की बात कहकर शाह बानो की मांग खारिज कर दी.

शाह बानो की कानूनी लड़ाई

शाह बानो ने 62 साल की उम्र में अपने हक के लिए पति के खिलाफ कानूनी जंग छेड़ी. निचली अदालत ने शाह बानो के हक में फैसला किया. हाई कोर्ट ने भी निचली अदालत का फैसला न सिर्फ बरकरार रखा बल्कि गुजारे की रकम भी 25 रुपये से बढ़ाकर 179 रुपये महीना करने का निर्देश दिया. इसके विरोध में उनके पति अहमद खान ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. दरअसल, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के मुताबिक ट्रिपल तलाक में सिर्फ मेहर लौटाना ही काफी था. गुजारा भत्ता देने की कोई व्यवस्था नहीं थी. सबसे पहले शाह बानो का मामला सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच के पास गया जिसे बाद में बढ़ाकर 5 जजों की बेंच में तब्दील कर दिया गया. 23 अप्रैल 1985 को वाई वी चंद्रचूड़ की बेंच ने एक राय से अपना फैसला सुनाया. फैसला शाह बानो के हक में था. कोर्ट ने उनके पति अहमद खान को हर महीने 500 रुपये बतौर गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया.

जीतकर भी क्यों हार गईं शाह बानो?

सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देश भर के मुस्लिम संगठनों खासकर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मानने से इनकार कर दिया. इसे पर्सनल लॉ में दखल बताया गया. कोर्ट के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे. सरकार पर कानून बदलने का दबाव बनाया जाने लगा. राजीव सरकार के मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने संसद में खड़े होकर शाह बानो का समर्थन और मुस्लिम संगठनों का विरोध किया. हालांकि बाद में, अपनी प्रगतिशील छवि को दरकिनार कर तमाम सियासी नफे-नुकसान को समझते हुए राजीव गांधी सरकार ने 1986 में कोर्ट का फैसला पलट दिया.

1986 के फरवरी महीने में सरकार एक नया बिल लेकर आई- मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम. राजीव के साथी आरिफ मोहम्मद खान ने विरोध में इस्तीफा दे दिया. मई 1986 में ये बिल कानून बन गया. इसी के साथ शाह बानो जीत कर भी हार गईं.

क्या शाह बानो का केस पहला था?

ऐसा नहीं था कि शाह बानो ने पहली बार सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया हो. इससे पहले बाई ताहिरा बनाम अली हुसैन और फजलुनबी बनाम के खादिर वली के मामले भी देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंचे थे. दोनों ही मामलों में कोर्ट ने फैसला महिलाओं के हक में दिया था. इसके लिए सीआरपीसी की धारा 125 का सहारा लिया गया.

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2001 का डेनियल लतीफी मामला

साल 2001 में सुप्रीम कोर्ट में डेनियल लतीफी का केस सामने आया. कोर्ट ने शाह बानो के 16 साल पुराने मामले को आधार मानते हुए तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए भत्ता सुनिश्चित कर दिया.

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2009 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला

ग्वालियर की रहने वाली शबाना बानो ने 2004 में तलाक मिलने के बाद पहले हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. दिसंबर 2009 में कोर्ट ने फैसला दिया कि तलाकशुदा महिला को गुजारे भत्ते का पूरा हक है जब तक कि वो दूसरी शादी नहीं करती. कोर्ट ने ये भी साफ किया कि ये अधिकार ‘इद्दत’ की मुद्दत यानी 90 दिन के बाद भी लागू रहेगा.

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शायरा बानो केस

उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली शायरा बानो उन तीन अहम याचिकाकर्ताओं में से हैं जिन पर सुनवाई करने के बाद अब कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आया है. शायरा ने बीते साल ट्रिपल तलाक और निकाह हलाला के चलन की संवैधानिकता को चुनौती दी थी। 10 अक्टूबर 2015 को शायरा के पति ने उन्हें तलाक दिया था। ये ट्रिपल तलाक खत के जरिए भेजा गया जब वो अपने माता-पिता के घर में थीं.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद शायरा बानो जैसी लाखों महिलाओं की लड़ाई अपने अंजाम तक पहुंची है.

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