क्या उद्धव ठाकरे ने डबल सरेंडर कर दिया है? जब उनके साथी शरद पवार और कांग्रेस राष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्ष के कैंडिडेट यशवंत सिन्हा को सपोर्ट कर रहे हैं तो क्यों उद्धव द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने के लिए मान गए है? ये मजबूरी या है मजबूत रणनीति? कह सकते हैं दोनों.
पहला कारण
सांसदों की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहते उद्धव
उद्धव ठाकरे सरकार गंवा चुके, अब पार्टी को पकड़ कर रखना चाहते हैं. विधायक चले गए, अब सांसद बचाना चाहते हैं. राष्ट्रपति चुनाव को लेकर उद्धव ठाकरे ने अपने आवास मातोश्री पर सांसदों की बैठक बुलाई थी. इस बैठक में शिवसेना के कुल 22 सांसदों में से 15 सासंद ही पहुंचे थे. इनमें भी कई सांसदों ने द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने की मांग की थी, जबकि राज्यसभा सांसद संजय राऊत की इच्छा थी कि पार्टी विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा का समर्थन करे. अंत में तय हुआ कि राष्ट्रपति चुनाव में किसे मतदान किया जाए इसका फैसला उद्धव ठाकरे पर छोड़ दिया जाए. इसके बाद उद्धव ठाकरे ने NDA उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने का ऐलान कर दिया.
जाहिर है उद्धव ने MVA गठबंधन धर्म निभाने के बजाय बची खुची पार्टी को बचाना ज्यादा जरूरी समझा है. जो सासंद इस समय उनके साथ हैं वे भी कह चुके हैं कि अघाड़ी सरकार में पार्टी को उचित महत्व नहीं मिला है.
उधर महाराष्ट्र विधानसभा में शिंदे ने पार्टी के विधायक दल के दो-तिहाई से अधिक विधायकों के समर्थन के आधार पर असली शिवसेना होने का दावा किया है. ऐसे में कई सांसदों के पाला बदलने की आशंका के बीच अगर उद्धव उनकी मर्जी के खिलाफ फैसला करते तो नुकसान हो सकता था.
जब वो घोषणा कर रहे थे कि शिवसेना राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करेगी, तो उन्होंने कहा कि शिवसेना सांसदों की बैठक में किसी ने मुझ पर दबाव नहीं डाला. लेकिन उद्धव ठाकरे के इस ऐलान में सांसदों के बागी होने की आशंका साफ झलक रही थी.
दूसरा कारण
महाराष्ट्र में अगले महीने लोकल चुनाव
महाराष्ट्र में अगस्त में लोकल चुनाव होने वाले हैं. 15 को छोड़ बाकी विधायक जा चुके अगर सांसद भी हाथ से निकल गए तो इन चुनावों में जनता के बीच जाने के लिए उनके पास लोग भी नहीं बचेंगे. ये भी कहा जा रहा है कि शिंदे शिवसेना के कब्जे वाले नगर निकायों और नगर निगमों पर नियंत्रण हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं और संगठन पर बढ़त भी बनाना चाहते हैं.
तीसरा कारण
यशवंत से किनारा, बीजेपी को इशारा?
तीसरा कारण दरअसल एक सवाल है. सवाल ये कि क्या उद्धव हर तरफ से नाकाम होने के बाद क्या बीजेपी से सुलह करना चाहते हैं, क्या वो घर वापसी करना चाहते हैं? याद रखिए कि सरकार गिरने से तुरंत पहले उन्होंने औरंगाबाद का नाम संभाजीनगर और उस्मानाबाद जिले का नाम धाराशिव रखने का फैसला लिया था, कुछ लोग इसे भी बीजेपी को संकेत मान रहे हैं.
हालांकि, संजय राउत ने इसके विपरित दलील दी है कि द्रौपदी मुर्मू का समर्थन देने का मतलब बीजेपी को समर्थन देना नहीं है. शिवसेना अकसर ऐसे फैसले लेती रही है. राउत ने कहा कि शिवसेना ने प्रतिभा पाटिल का भी समर्थन किया था, जो UPA की उम्मीदवार थीं. इसी तरह प्रणब मुखर्जी का भी समर्थन किया था.
चौथा कारण
डूबती नैया में क्यों हों सवार?
विपक्ष के ढुलमुल रवैया को देखते हुए भी उद्धव ठाकरे ने द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने का फैसला किया है. हालांकि, साल 2024 में भी शरद पवार विपक्ष की एकता की बात कर रहे हैं, लेकिन इसमें उद्धव ठाकरे अपना भविष्य नहीं देख पा रहे हैं. उद्धव को पता है कि जितना माहौल द्रौपदी मुर्मू को लेकर है, उतना विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को लेकर नहीं है. ऐसे में विपक्ष को समर्थन देकर एक और हार झेलने के लिए उद्धव तैयार नहीं हैं, क्योंकि इस समय पार्टी पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं.
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