कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने कावेरी नदी का 12,000 क्यूसेक पानी तमिलनाडु को दिए जाने का आदेश दिया. कोर्ट के इस फैसले का हिंसक विरोध कर रहे असामाजिक तत्वों ने बेंगलुरु शहर का जीना मुहाल कर दिया. इस हिंसा में करीब 25 हजार करोड़ रुपये के आर्थिक नुकसान होने का अनुमान लगाया गया है.
कर्नाटक कावेरी की जलधारा के ऊपरी हिस्से में पड़ता है, जबकि तमिलनाडु निचले हिस्से में. कावेरी के पानी पर दोनों राज्यों का हक है और उसकी हर कीमत पर रक्षा की जानी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर दोनों राज्यों के लोगों की चिंताओं को समझा सकता है. लेकिन इस बहाने कुछ असामाजिक तत्वों को बेंगलुरु शहर की रफ्तार पर ब्रेक लगाने की इजाजत नहीं दी जा सकती.
सरकार ने इन असामाजिक तत्वों के खिलाफ सख्त पुलिस और कानूनी कार्रवाई का भरोसा दिया है. उम्मीद है कि जल्द ही ये कार्रवाई देखने को भी मिलेगी. लेकिन इसके बाद क्या? आखिर 125 साल पुरानी समस्या को कैसे सुलझाया जा सकता है, जिससे किसी भी पक्ष को शिकायत करने का मौका न मिले.
लेकिन क्या वाकई में ये समस्या केवल कावेरी के पानी को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच ही है? देशभर में नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर राज्यों के बीच विवाद चलते रहे हैं और आने वाले दिनों में राज्यों के बीच ऐसे विवाद बढ़ने वाले हैं.
टीवी पर बहस-मुबाहिसों, पांडित्यपूर्ण लेखों और अखबारों के संपादकीय लेखों से तीन बातें साफ तौर पर उभरकर आई हैं. 1. शांति और धैर्य कायम रखने की जरूरत है. 2. राजनेताओं को इस विवाद को चुनावी नफा-नुकसान के नजरिए से नहीं देखना चाहिए. 3. समस्या का वैज्ञानिक और तकनीकी हल निकाला जाना चाहिए.
समाधान क्या है?
पहले सुझाव बहुत सीधा-साधा है. हर हाल में धीरज और शांति बनाए रखी जानी चाहिए, अन्यथा चारों तरफ अराजकता फैल जाएगी. लेकिन ये गवर्नेंस का मसला भी है. स्थानीय प्रशासन को ऐसे हालात से निपटने के लिए चौकस रहना होगा. ताज्जुब की बात है कि राज्य सरकारें हिंसा और गड़बड़ी की आशंका होने के बावजूद एहतियात क्यों नहीं बरततीं.
दूसरा सुझाव आया कि राजनेताओं को दूर की सोच और राष्ट्रहित सबसे ऊपर रखना चाहिए. लेकिन उनकी ऐसी तैयारी नहीं है. वोट के नुकसान की चिंता हमेशा उन्हें सताएगी. इसलिए उनसे ऐसी व्यवहार की उम्मीद रखना बेकार है. खासकर राज्यों में विपक्षी पार्टियों से.
इस मामले में सिर्फ एक अपवाद है, जब 1980 में मध्य प्रदेश नर्मदा के पानी का एक बड़ा हिस्सा बिना किसी विवाद के गुजरात को देने को राजी हो गया था. लेकिन यहां याद रखना होगा कि उस वक्त दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारें थीं, जिनके सामने किसी की चुनौती नहीं थी. ऊपर से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का आदेश भी था, जिसे मुख्यमंत्रियों के लिए टालना नामुमकिन था.
तीसरा सुझाव आया है कि ये समस्या वैज्ञानिकों और इंजीनियरों पर छोड़ दी जाए. लेकिन वो कोई ऐसा समाधान ला सकते हैं, जिस पर सबकी रजामंदी हो? जवाब शायद ना हो, क्योंकि बंटवारे का फैसला न्यायपूर्ण होना ही नहीं चाहिए, बल्कि उसका न्यायपूर्ण दिखना भी जरूरी है. यही किसी भी बंटवारे की समस्या की सबसे अहम बात है.
क्या ‘इकोनॉमी’ समाधान दे सकता है?
इकोनॉमिक थ्योरी की एक शाखा बंटवारे की समस्या का हल पेश करती है. इस थ्योरी के मुताबिक, बंटवारे में किसी एक पक्ष का फायदा दूसरे पक्ष के नुकसान के बराबर ही होना चाहिए. तब ही फायदा और नुकसान बराबर जीरो हो सकता है. इसे केक कटिंग प्रॉब्लम के उदाहरण से समझा जा सकता है, जो फल, कपड़ों, जगह या किसी भी चीज के बंटवारे में भी लागू की जा सकती है.
समाधान बहुत सीधा है. इस खेल में एक खिलाड़ी केक काटने का काम करता है, जबकि दूसरा चुनने का. इसमें काटने वाले शख्स को हर वक्त ख्याल रखना पड़ता है कि केक बराबर ही कटे. चुनने वाले खिलाड़ी को केक का छोटा हिस्सा न मिले. इसमें काटने वाले शख्स को भी बराबर हिस्सा मिलने की गारंटी रहती है. लेकिन इसकी पूर्व शर्त ये है कि इस प्रक्रिया में दोनों खिलाड़ी दो में किसी एक तरीके पर राजी होंगे. या तो एक शख्स लगातार केक काटता रहेगा, जब तक कि दूसरा उसे रुकने को नहीं कहेगा. या फिर केक को एक निश्चित सीमा के भीतर ही काटा जाएगा.
पहले वाले तरीके में एक शख्स लगातार चाकू से केक काटता रहेगा और दूसरा उसे रुकने का इशारा करेगा. लेकिन इस खेल का नतीजा जो भी निकलेगा, दोनों पक्षों को उसे मानना पड़ेगा. कोई भी पक्ष नतीजे को मानने से इनकार नहीं कर सकता.
इस तरीके की कामयाबी इस बात में छुपी है कि इसके नतीजे को सभी पक्षों को कैसे मनवाया जाए. एक बार समाधान की प्रक्रिया पर सहमति बन जाने के बाद किसी भी पक्ष के पास इसे मानने से इनकार करने का हक नहीं होना चाहिए. अगर कोई एक पक्ष खेल के नतीजे को मानने से इनकार करता है, तो उसे कुछ भी नहीं मिलना चाहिए. सजा के इस प्रावधान के चलते दोनों पक्ष खेल में सही बर्ताव करने को मजबूर होंगे.
कुल मिलाकर कावेरी नदी के पानी का बंटवारे का विवाद कर्नाटक और तमिलनाडु को आपस में ही सुलझाना होगा. सुप्रीम कोर्ट इसे नहीं सुलझा सकता. लेकिन इसके लिए दोनों पक्षों को अपने तौर-तरीकों में परिपक्वता लानी होगी.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर राय रखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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