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संडे व्यू: राजनीति में अनाथ मुस्लिम, बिहार उपचुनावों का अहम सबक

संडे रिव्यू में पढ़िए देश के प्रतिष्ठित अखबारों के कॉलम

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राजनीति में अनाथ होते मुस्लिम

सोनिया गांधी ने इस सप्ताह एक इंटरव्यू में कहा कि 2014 के चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस को एक मुस्लिम परस्त पार्टी के तौर पर पेश किया. यह इसकी हार की एक वजह थी. हर्ष मंदर ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में मुसलमानों के राजनीतिक तौर पर अनाथ होने का जिक्र करते हुए सोनिया के इस बयान का हवाला दिया है.

हर्ष लिखते हैं, पाकिस्तान और इंडोनेशिया के बाद सबसे ज्यादा मुस्लिम भारत में हैं लगभग 18 करोड़. लेकिन आज हर राजनीतिक पार्टी ने उन्हें लगभग अकेला छोड़ दिया है. इस देश में मुसलमानों के लिए इससे कठिन दौर कभी नहीं आया था. यहां तक कि विभाजन के बाद के भयंकर दिनों में भी वे राजनीतिक तौर पर इतने तन्हा नहीं थे.

हर्ष लिखते हैं- मुसलमानों के भीतर इस हालात में गहरी निराशा पैदा हो रही है. उनके बीच एक आम राय बनती जा रही है कि मुस्लिमों को अब राजनीति से अलग रहना चाहिए. कम से एक एक पीढ़ी तक तो वे राजनीति में दखल न दें. राजनीतिक पद की ख्वाहिश न पालें. राजनीतिक प्रचार का हिस्सा न बनें. लो-प्रोफाइल रहें. सिर्फ चुनाव के दिन चुपचाप वोट डाल आएं. अपने उदार हिंदू दोस्तों से आज वे यही दरख्वास्त कर रहे हैं- हमें महफूज रखना है तो हमें अलग छोड़ दें.

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बीएसपी और एसपी को साथ रहना होगा

गोरखपुर, फूलपुर में बीजेपी की हार पर तमाम सवालों के साथ एक सवाल यह भी उठ रहा है कि आखिर योगी आदित्यनाथ को यूपी का सीएम क्यों बनाया गया? एक महंत को राजनीतिक तौर पर देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य का सीएम क्यों बनाया गया? द टेलीग्राफ में मुकुल केसवन ने इन सवालों के जवाब खोजने की कोशिश की है लेकिन इन नतीजों के बाद की संभावना पर भी गौर किया है.

वह लिखते हैं कि गोरखपुर ने यह दिखाया कि बीएसपी एसपी के लिए वोट ला सकती है. यह देखना बाकी है कि क्या यादव दलित उम्मीदवारों को वोट देंगे. मायावती ने चुनावों से पहले गठबंधन में इसलिए विश्वास नहीं किया कि उन्हें इस बात का यकीन नहीं था कि दलित तो पिछड़े समुदाय के उम्मीदवारों को वोट दे देंगे लेकिन क्या दलितों को पिछड़ों का वोट मिलेगा.

अगर समाजवादी पार्टी आम चुनाव में यूपी जीतना चाहती है तो उसे बीएसपी के उम्मीदवारों को जिताने की कोशिश करनी होगी. क्योंकि बीजेपी दोनों पार्टियों के अस्तित्व के लिए खतरा है. 2014 और 2017 में दोनों हाशिये पर चले गए थे. बिहार उनके लिए एक सबक है. हालांकि साथ रहना भी आसान नहीं है. लेकिन अगर राजनीतिक तौर पर खत्म होने से बचना है तो साथ रहने की राह तलाशनी ही होगी.

बिहार उपचुनावों का अहम सबक

टाइम्स ऑफ इंडिया में सबा नकवी ने बिहार में उपचुनाव नतीजों के एक अहम संदेश की ओर ध्यान दिलाया है. सबा लिखती हैं- बिहार उपचुनावों का एक बड़ा मैसेज है. 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले होने वाली राजनीति पर इसका बड़ा असर पड़ सकता है. अगर, आप किसी नेता को जेल में रख कर राजनीतिक तौर पर खत्म कर देना चाहते हैं तो या फिर उसे भ्रष्टाचार और इनकम टैक्स के मामले में फंसाते हैं तो उल्टा यह आप के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है. यह उस नेता के लिए सहानुभूति पैदा कर सकता है, जिसे आप राजनीतिक तौर पर खत्म कर देना चाहते हैं.

बिहार में लालू यादव के जेल में रहने के बावजूद वोटरों ने जिस तरह से आरजेडी को जबरदस्त जीत दिलाई, उससे साबित होता है कि मजबूत सब-ऑलटर्न नेताओं पर भ्रष्टाचार की चिप्पी चिपकाने का बहुत असर नहीं होता. इससे पिछड़ी जातियों के वोटरों में यह मैसेज जाता है उसके नेताओं के लिए तो जेल भेज दिया जाता है. लेकिन सवर्ण नेता इतने चालाक हैं कि जेल से बाहर रहने में कामयाब रहते हैं.

सबा लिखती हैं राजनीति ने मौजूदा भारतीय इतिहास में एक नया मोड़ ले लिया है- पहली बार 1997 में लालू जेल गए थे. उन्होंने राबड़ी देवी को रसोई से बाहर निकल कर सरकार की बागडोर पकड़ने के मजबूर किया. दो दशक बाद लालू के बेटे तेजस्वी उसी सामाजिक न्याय और सेक्यूलरिज्म के सवाल को लेकर मैदान में हैं , जिस पर सवार होकर उनके पिता ने राजनीति में पहचान बनाई. यह बिल्कुल सही वक्त है कि लालू पृष्ठभूमि में रहें और नई पीढ़ी को नेतृत्व करने दें.

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हॉकिंग की विरासत

अमर उजाला में अनंत मित्तल ने लीजेंड बन चुके भौतिकीविद स्टीफन हॉकिंग को याद करते हुए लिखा है- बोलने से लाचार हॉकिंग ने मनुष्य की सारी तरक्की सुनने और बोलने से ही होने की बात कही. उन्होंने कहा कि भविष्य की असीम तरक्की हालांकि प्रौद्योगिकी से होगी, लेकिन दुनिया के अस्तित्व और शांति के लिए बातचीत तब भी जरूरी होगी.

कुर्सी में सिमटे होने के बावजूद ब्रह्मांड विज्ञानी हॉकिंग ने अपनी मौत की आशंका सहित अनेक प्रचलित धारणाओं को अपनी पैनी वैज्ञानिक दृष्टि और इच्छाशक्ति से रूढ़ साबित किया. उन्होंने दुनिया को सबसे बड़ी चुनौती यह कह कर दी कि मनुष्य का दिमाग कंप्यूटर है. कल-पुर्जों को छीजने पर कंप्यूटर के बेकार होने की तरह दिमाग नष्ट होने पर व्यक्ति भी खत्म हो जाता है. कंप्यूटर का जैसे कोई पुनर्जन्म नहीं होता वैसे ही स्वर्ग कहीं नहीं है. यह अंधेरे से डरने वाले दिमाग का खब्त है.

आर्यभट्ट, गैलीलियो और आइंस्टीन की तरह भौतिकी के नए आयाम गढ़ते स्टीफन हॉकिंग दुनिया छोड़ गए. खोज की अनंत संभावनाएं उनकी विरासत हैं. अगर सभी अदृश्य कणों से ही सृष्टि बनी है तो फिर शायद गुरु नानक सही कह गए- ‘अव्वल अल्ला नूर उपाया, कुदरत दे सब बंदे, एक नूर तों सब जग उपज्या, कोउ भले कोई मंदे’. हॉकिंग भी शायद उसी नूर में समा गए.

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सरकार की हेकड़ी और जनता की ताकत

इस सप्ताह की दो घटनाओं का जिक्र करते हुए पी चिदंबरम ने मौजूदा राजनीतिक तस्वीर पर अपना नजरिया पेश किया है. दैनिक जनसत्ता में वह लिखते हैं-बुधवार चौदह मार्च 2018 को दो ऐसी घटनाएं हुर्इं, जिनका स्पष्ट रूप से एक दूसरे से कोई संबंध नहीं था. सारी अनुदान मांगों को बिना बहस के मंजूरी दे दी गई और लोकसभा में वित्त विधेयक 2018 बिना किसी चर्चा के पारित हो गया. उत्तर प्रदेश और बिहार के तीन लोकसभा क्षेत्रों में मतदाताओं ने उन उम्मीदवारों के पक्ष में निर्णायक वोट दिए, जिन्होंने बीजेपी के उम्मीदवारों को हराया. पहली घटना पार्टी की ताकत की हेकड़ी को और दूसरी लोगों की ताकत के दृढ़ निश्चय वाले फैसले को बताती है.

चिदंबरम लिखते हैं - पिछले चार साल में एनडीए सरकार का रिकार्ड क्या रहा? 2017-18 के आर्थिक सर्वे में कहा गया है- ‘वास्तविक कृषि जीडीपी और वास्तविक कृषि आय अभी तक भी स्थिर बने हुए हैं.’ इससे पता चलता है कि एनडीए सरकार के चार साल के कार्यकाल में कृषि की स्थिति क्या है. किसानों का विरोध राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में भी तेजी से फैलेगा.

गोरखपुर और फूलपुर दूसरी कहानी कहते हैं. बीजेपी सरकार के राज में राज्य ने एक धर्म के प्रति झुकाव और संदिग्ध अपराधियों को मुठभेड़ में मार देने के राज्य के ‘अधिकार’ का बहुत ही निर्लज्जता के साथ बचाव किया. लोग नजर रखे हुए हैं.अच्छे दिन की बात अब और नहीं होती. हर वादा- पंद्रह लाख जमा कराने, हर साल दो करोड़ रोजगार देने, किसानों की आमदनी दोगुनी करने, दो अंक वाली विकास दर, कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान और पाकिस्तान को आखिरी सबक सिखाने का नारा खोखला निकला और लोग इसे जान भी गए हैं.

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मिट रही है ग्रामीण भारत की खूबसूरती

मार्क टुली ने हिन्दुस्तान टाइम्स में बदसूरत होते ग्रामीण इलाकों का जिक्र किया है. अपने कॉलम में वह लिखते हैं- हाल के दिनों में ग्रामीण भारत की अपनी यात्रा के दौरान मुझे यह देख कर ताज्जुब हो रहा था कि अपनी आर्किटेक्चर विरासत और संस्कृति में प्रकृति प्रेम को समेटा यह देश किस तरह अपने गांवों को बदसूरत बनने दे रहा है. यह ठीक है कि भारत विकसित हो रहा है. मकान बनाए जाने हैं, सड़क और रेलवे का निर्माण होना है. नए शहरों की जरूरत है. लेकिन जिन पर विकास की जिम्मेदारी है उन्हें इसके सौंदर्य और इकोनॉमी दोनों के प्रति सोचना चाहिए.

मार्क ने राजस्थान, हिमाचल और झारखंड का उदाहरण देकर बताया है कि गांवों में किस कदर स्थानीय आर्किटेक्चरल संस्कृति की अऩदेखी कर निर्माण कार्य हो रहा है. वह कहते हैं कि हमें यह याद रखना चाहिए कि वे वास्तु परंपराएं वहां की जलवायु के मुताबिक विकसित हुई थीं. झारखंड में हजारीबाग के आदिवासी गांवों में मैंने पाया कि सरकारी स्कीमों के तहत बदसूरत कंक्रीट के मकान खड़े कर दिए गए हैं. हालांकि महिलाओं ने दीवारों की प्लास्टर पर खूबसूरत पेंटिंग कर स्थानीय आर्किटेक्चरल परंपराओं को बनाए रखा है.

टुली लिखते हैं- भारत में लॉरी बेकर ने सस्ते और स्थानीय सामग्री से टिकाऊ मकान बनाने की वास्तु परंपरा विकसित की थी. लेकिन भारत की सुस्त ब्यूरोक्रेसी स्टैंडर्ड पीडब्ल्यूडी मकान बना कर खुश है.

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भारत की किस्मत तय करने वाला किला

टाइम्स ऑफ इंडिया में लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग ने सरहिंद के किले से संचालित कई लड़ाइयों का जिक्र किया है. पनाग लिखते हैं कि इस किले का रास्ता लाहौर की ओर जाता है. पनाग का कहना है कि चूंकि यह एक ऐसे रास्ते पर है, जो हर रास्ते का संगम है, लिहाजा यहां हुई कई लड़ाइयों ने भारत की किस्मत तय की है.

लेफ्टिनेंट जनरल पनाग लिखते हैं- बाबर के बाद हुमायूं गद्दी पर बैठा लेकिन सत्ता में आते ही उसे लड़ाइयों में जूझना पड़ा. एक साथ उसे बिहार में शेरशाह सूरी और गुजरात में मालवा के सुल्तान से लड़ना पड़ा. सरहिंद की लड़ाई में हुमांयू को हारना पड़ा. एक और अहम लड़ाई 1648 में सरहिंद में लड़ी गई. हालांकि यह मुगलों के पतन का दौर था. फिर भी मुगलों को इसमें जीत मिली थी. मुगल सेना का नेतृत्व राजकुमार अहमद ने किया था. यह मुगल सेना की आखिरी जीत थी.

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जया बच्चन पर डिंपल यादव का हाथ

और आखिर में इंडियन एक्सप्रेस के ‘इनसाइड ट्रैक’ में कूमी कपूर की दिलचस्प टिप्पणी. वह लिखती हैं, राजनैतिक हवा का रुख भांपने में माहिर सांसद नरेश अग्रवाल की टाइमिंग अब तक शानदार रही है. यहां तक कि उन्हें राजनीतिक पार्टी के चढ़ते रुतबे का बैरोमीटर माना जाता है. 1989 में वह कांग्रेस में थे. 1997 में उन्होंने यूपी में बीजेपी सरकार को समर्थन देने के लिए लोकतांत्रिक कांग्रेस बनाई. 2007 में बीएसपी में शामिल हो गए, जब मायावती सत्ता में आईं. 2012 में समाजवादी पार्टी में चले आए जब अखिलेश यादव यूपी के सीएम बने. सोमवार को वह बीजेपी में शामिल हो गए.लेकिन इसके ठीक बाद पार्टी यूपी में दो उपचुनाव हार गई.

दरअसल नरेश अग्रवाल को अखिलेश की ओर से राज्यसभा का टिकट न दिया जाना रामगोपाल यादव के लिए झटका है,जो मुलायम से लड़ाई में उनके चाणक्य समझे जात हैं.इस बीच जया बच्चन के एक वक्त मेंटर समझे जाने वाले और अब कटु आलोचक अमर सिंह का कहना है कि जया हम सबसे ज्यादा स्मार्ट साबित हुईं. वे राज्यसभा सीट अपने पास रखने में कामयाब रही. आखिर जया पर किसका हाथ है. अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव का.

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