चंद्रयान 2 की वजह नेहरू
शिक्षाविद परवेज हुदभॉय ने पाकिस्तानी अखबार द डाउन में लिखा है कि चंद्रयान 2 भारतीय विज्ञान की क्षमता का शानदार प्रदर्शन है, जो भारत को चुनिंदा देशों की पंक्ति में खड़ा करता है. यही हसरत पाकिस्तान की भी रही है मगर भारत आगे क्यों निकल गया? वे लिखते हैं कि भले ही भारत की हिन्दूवादी सरकार चंद्रयान 2 का श्रेय ले, लेकिन इस सफलता के पीछे वह इतिहास है, जो प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से शुरू होता है.
अगर नेहरू नहीं होते तो आज के भारत में खगोलशास्त्र के बजाए ज्योतिष होता, विश्वविद्यालयों में गणितज्ञ होते मैथेमेटिसियन नहीं, भौतिकशास्त्रियों की जगह ऋषियों की फौज होती, योग में कैंसर का इलाज खोजा जाता, जबकि बाढ़ और भूकम्प को गोहत्या के अभिशाप से जोड़ा जाता. चंद्रयान की बजाए भारतीय वैज्ञानिक रावण के काल्पनिक विमान की खोज कर रहे होते.
पाकिस्तानी लेखक लिखते हैं कि 'नास्तिक' नेहरू ने ही भारत को आधुनिक यूरोप में स्वीकार्य बनाया, जिनसे आज हिन्दुत्व को मुसलमानों और ईसाइयों से अधिक नफरत है. क्या पाकिस्तान के हिस्से कभी चांद का टुकड़ा होगा?- वे लिखते हैं कि यह पाकिस्तान में विज्ञान के संस्कार के विकास पर निर्भर करेगा.
बेशक पाकिस्तान को नेहरू नहीं होने की कमी खल रही है. भारतीय इसरो की तर्ज पर पाकिस्तानी सुपार्को की हालिया गतिविधि 9 जुलाई 2018 को चीन की ओर से छोड़े गये दो सुदूर संवेदी उपग्रह मात्र हैं. सुपार्को के अंतिम चार चेयरपर्सन मेजर जनरल रहे हैं और इनमेंसे किन्ही के पास बीएससी या एमएससी से अधिक की योग्यता नहीं रही. निकट भविष्य में बगैर चीनी रॉकेट की मदद के पाकिस्तान के लिए चांद की ओर रुख करने की सम्भावना नहीं के बराबर है.
चंद्रयान 2 के पीछे विक्रम साराभाई
इंडियन एक्सप्रेस में मेघनाद देसाई लिखते हैं कि चंद्रयान 2 ने भारत को अंतरिक्ष की दुनिया में स्थापित कर दिया है जो परमाणु क्षमता हासिल करने से भी बड़ी बात है. वे लिखते हैं कि गांधीजी पश्चिमी सभ्यता, आधुनिक दवाएं, मशीनों के खिलाफ थे. ये नेहरू, अम्बेडकर और सावकर ही थे जिनमें आधुनिक भारत की चाहत थी. सुभाषचंद्र बोस भी उनमें शामिल थे.
नेहरू 'लाभ' को गंदा शब्द समझते थे, जो उद्योगपतियों के लिए हैरान करने वाला था. इस सोच ने ही भारत को लम्बे समय तक गरीब बनाए रखा, जबकि जापान और दक्षिण कोरिया कारोबार और सरकार की साझेदारी से समृद्ध देश बन गया. विज्ञान और तकनीक अपवाद है, जहां विक्रम साराभाई की मौजूदगी ने भारत को सही रास्ते पर रखा और यह चंद्रयान तक जा पहुंचा.
और निचोड़े जाएंगे करदाता
पी चिदम्बरम ने जनसत्ता में लिखे अपने आलेख में वित्त विधेयक को लेकर गम्भीर सवाल उठाए हैं. उन्होंने लिखा है कि कम से कम 10 नियमों में संशोधन किए गये हैं, जो धारा 110 में बताए गये उद्देश्यों का पालन नहीं करते. लेखक को विश्वास है कि कोई न कोई वित्त विधेयक 2019 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देगा.
लेखक का दावा है कि सिर्फ गैर वित्तीय कानूनों के प्रावधानों में संदेहास्पद संशोधनों पर बहस से बचने के लिए सरकार ने जोखिम उठाया है.
लेखक का कहना है कि केंद्र सरकार ने ऊंचा राजस्व लक्ष्य रखा है जिसे हासिल करने को लेकर आशंकाएं बरकरार हैं. अर्थशास्त्री विकास दर में गिरावट को लेकर चिंतित हैं. पिछली चार तिमाहियों में दिखी यह प्रवृत्ति आगे भी जारी रह सकती है. ऐसे में ऊंचे राजस्व लक्ष्य हासिल कर पाना मुश्किल होगा. ऐसे में आशंका यही है कि करदाताओं से सख्ती की जाएगी.
पी चिदम्बरम लिखते हैं कि चौदहवें वित्त आयोग के कहे अनुसार केंद्र सरकार राज्य सरकारों को राजस्व में 42 फीसदी हिस्सा देने में नाकाम रही है. इसकी वजह सेस और दूसरे उपकर हैं, जिस बारे में स्थिति स्पष्ट नहीं रही है. 2015 से 2019 तक राजस्व का 32 से 34 फीसदी हिस्सा ही राज्यों को मिल सका है. लेखक आशंका जताते हैं कि कुल राजस्व के संग्रह में अनुमान से कम संग्रह होने पर यह संकट और भी बढ़ने वाला है.
निराश हैं देश को संपन्न बनाने वाले
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में समाजवादी दौर में देश की अर्थव्यवस्था को याद करते हुए इसकी तुलना आज के दौर से की है. उन्होंने लिखा है कि एक समय था जब हर छोटी-बड़ी चीजें ‘मेड इन इंडिया’ के नाम पर सरकारी अधिकारियों की निगरानी में बनती थीं और बेहद घटिया हुआ करती थीं.
1991 के बाद से नरसिम्हा राव सरकार ने लाइसेंसी राज को खत्म किया, जिसका नतीजा है कि आज दुनिया से लोग भारत आते हैं खरीदारी करने. विश्वस्तरीय एयरपोर्ट और दूसरी चीजें पहले यहां नहीं थीं, आज हैं.
लेखिका की चिन्ता है कि एक बार फिर मोदी सरकार समाजवादी राह पर चलती दिखाई पड़ रही है. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन के हवाले से वह लिखती हैं कि 40 फीसदी तक कॉरपोरेट टैक्स केवल 5 हजार लोगों पर लगेगा. मगर, लेखिका का मानना है कि इन्हीं 5 हजार लोगों ने देश की सूरत बदली है और यही लोग आज निराश हैं.
मोदी सरकार के दूसरे वर्जन में जो पहला बजट आया है उससे लेखिका का मानना है कि मुम्बई निराश है. एक विदेशी संस्था ग्लोबल वेल्थ माइग्रेशन रिव्यू के हवाले से तवलीन सिंह लिखती हैं कि 2018 में 5 हजार भारतीय करोड़पति देश छोड़कर चले गये. वे लिखती हैं कि अगर पीएम नरेंद्र मोदी का मकसद सिर्फ गरीबी हटाना नहीं, देश को संपन्न बनाना तो यह मकसद उस वर्ग को दंडित कर नहीं पाया जा सकता, जिन्होंने देश में धन पैदा किया है.
शीला दीक्षित बता गईं, देश का आधार रहा है 'खान मार्केट गैंग'
द टाइम्स ऑफ इंडिया में सागरिका घोष ने लिखा है कि शीला दीक्षित यह बताकर इस दुनिया से विदा हुई हैं कि 'खान मार्केट गैंग' ने किस तह आधुनिक भारत का निर्माण किया है. गांधी परिवार की वफादार कांग्रेस नेता शीला दीक्षित के घर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आकर उनके अंतिम दर्शन किए, जो तीखे राजनीतिक विरोध की फिजां में यदा-कदा दिखने वाली तस्वीर मानी जा सकती है.
सागरिका बताती हैं कि फ्लाईओवर, कैफे, मेट्रो, चौड़ी सड़क से लेकर प्रतिभा, उद्यमी और सक्रियता का पोषण करने वाली शीला दीक्षित ने उस दिल्ली को संवारा जो निरुद्देश्य बीजेपी शासन में बहुत पीछे चली गयी थी.
शीला दीक्षित उस खान मार्केट गैंग की सक्रिय सदस्य रहीं जिस पर फब्तियां कसी जा रही हैं. प्रिन्टेड हैंडलूम सारी, बाहरीसन्स में किताबों को खंगालना, दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में पुस्तक लोकार्पण समारोहों में उपस्थिति शीला दीक्षित की पहचान हैं. विदेश में पढ़े जवाहरलाल नेहरू हों या इंदिरा गांधी, होमी जहांगीर भाभा हों या विक्रम साराभाई, पीएन हकसार रहे हों या फिर पुपुल जयकर और कपिला वात्स्यायन- इन सबने आधनिक भारत के निर्माण में भूमिका निभाई.
'खान मार्केट गैंग' में मनमोहन सिंह भी आते हैं, मोंटेक सिंह अहलूवालिया और शंकर आचार्य भी. इन्होंने उच्च शिक्षा लेकर भी सामान्य जीवन बिताया और देश के विकास में बड़ा योगदान किया. आईआईटी और आईआईएम इसी खान मार्केट गैंग की सोच की उपज रहे हैं. 1971 की जीत हो या चंद्रयान 2 की सफलता, खान मार्केट गैंग की भूमिका को कम नहीं किया जा सकता.
जर्मन राह पर हिन्दी
द हिन्दू में रुचिर जोशी ने हिन्दी भाषा की तुलना जर्मन भाषा से की है. एक भाषा का संबंध द्वितीय विश्वयुद्ध और इसके पूर्व के काल से रहा है जब नफरत और नरसंहार के दौर चले. वहीं, अब दूसरी भाषा यानी हिन्दी का संबंध मॉब लिंचिंग से होता दिख रहा है.
एक युग जिसमें हिन्दी को प्रमुखता दी जा रही है और उसी युग में नफरत और भीड़तंत्र प्रकट हो रहा है. लेखक ने अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के हवाले से बंगाल, गुजरात और महाराष्ट्र को जोड़ा है.
लेखक बांग्ला भी जानते हैं, हिन्दी भी, गुजराती भी जानते हैं और अंग्रेजी भी. मगर, इस बात का आभाष उन्हें समय-समय पर बहुत बाद में हुआ कि जिस भाषा को वे जानते हुए मानते रहे हैं वास्तव में वे उन भाषाओं पर खास पकड़ नहीं रखा करते थे.
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