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संडे व्यू : अजेय सोच को चोट, निराश विपक्ष को मिली आस

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अजेय सोच को चुनावी चोट

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में हरियाणा और महाराष्ट्र चुनाव के नतीजे को अति राष्ट्रवाद की पराजय के तौर पर देखा है. उन्होंने लिखा है कि बीजेपी दोनों राज्यों में सरकार बना सकती है लेकिन इस विजय में भी जो संदेश छिपा है उसे नरेंद्र मोदी छिपाने की कोशिश कर रहे हैं. दूसरी बार आम चुनाव जीतने के बाद से वे खुद को अजेय समझने लगे थे. यह भ्रम इस चुनाव ने तोड़ दिया है. लेखिका ने धारा 370 हटा लेने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनौती की भी याद दिलायी है जिसके जवाब में शरद पवार ने कहा था कि इस धारा के रहने या हटने से महाराष्ट्र के परेशान किसानों पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

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तवलीन सिंह ने कश्मीर में मानवाधिकार के सवालों के जवाब में बलूचिस्तान और अन्य जगहों पर मानवाधिकार के सवाल उठाने को भी संदेह की नजर से देखा है. वह लिखती हैं कि कश्मीर मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण हुआ है और हमारे राजनयिक दुनिया को कश्मीर में जारी अर्धकर्फ्यू की वजह समझाने में विफल रहे हैं.

कश्मीर में लम्बित विधानसभा चुनाव पर दुनिया की नजर है. अगर उग्र राष्ट्रवाद के रास्ते पर चला गया तो कश्मीर मसले को हैंडल करना मुश्किल हो जाएगा. तवलीन सिंह ने लिखा है कि अगर बीजेपी ने आर्थिक मंदी जैसे मुद्दों पर चर्चा की होती, तो उनकी चुनावी संभावना बेहतर हो सकती थी.

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नोबेल विजेता अभिजीत पर बंटी बीजेपी

हिन्दुस्तान टाइम्स में करण थापर ने नोबेल सम्मान विजेता अभिजीत बनर्जी को लेकर बीजेपी के भीतर परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाओं की ओर देश का ध्यान दिलाया है. पीयूष गोयल और राहुल सिन्हा जैसे बीजेपी के कद्दावर नेताओं ने अभिजीत बनर्जी को नोबेल दिए जाने का मजाक उड़ाया था. इनमें से एक ने तो उनकी फ्रांसीसी पत्नी को भी इस विवाद में घसीटते हुए उनकी तस्वीर साझा की थी.

थापर लिखते हैं कि ऐसा लगता है कि उस बारीक फर्क को लोग भूलते जा रहे हैं कि सार्वजनिक मंच पर किस बात पर जोर दिया जाना चाहिए और किस बात को कतई नहीं बोला जाना चाहिए. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए यह बुनियादी बात है. 

करन थापर ने अभिजीत बनर्जी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच मुलाकात की भी चर्चा की है. इस मुलाकात के बाद अभिजीत को प्रधानमंत्री की ओर से दी मीडिया से सतर्क रहने जैसी सलाह का भी जिक्र किया है जिसे अभिजीत ने सार्वजनिक किया था.

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‘कॉरपोरेट टैक्स’ पर घिरे अभिजीत

स्वामीनाथ अय्यर ने टाइम्स ऑफ इंडिया में नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी की उनकी आर्थिक सोच को लेकर भरपूर खिंचाई की है. कॉरपोरेट टैक्स घटाए जाने की अभिजीत बनर्जी ने निन्दा की थी और इसे मंदी से जूझती भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए उल्टा कदम बताया था.

अय्यर ने इस तर्क का जवाब देने की कोशिश की है कि चीन से बिदक रहे निवेशक वियतनाम और बांग्लादेश जा रहे हैं लेकिन भारत क्यों नहीं. अय्यर अमेरिका का उदाहरण रखते हैं जहां अलग-अलग प्रांतीय राज्यों में अलग-अलग टैक्स की दरें हैं. यहां वे राज्य अधिक विकास कर रहे हैं जहां टैक्स की दरें अधिक हैं.

वे लिखते हैं कि कैलिफोर्निया सिलिकॉन वैली कहलाती है तो न्यूयॉर्क वैश्विक वित्तीय केंद्र के रूप में ख्याति प्राप्त है. इसका फायदा उन्हें मिलता है और बड़ी-बड़ी कंपनियां भारी टैक्स के बावजूद वहां से नहीं हटतीं. इसके अलावा अमेरिकी कंपनियों में बड़े-बड़े प्रॉजेक्ट के लिए टैक्स में रियायत की भी स्पर्धा होती है. अय्यर ने अभिजीत बनर्जी की उस प्रतिक्रिया का भी संज्ञान लिया है जिसमें कहा गया है कि भारतीय पत्रकार आर्थिक खबरों पर उचित प्रतिक्रिया नहीं दिया करते हैं. वे लिखते हैं कि भारतीय पत्रकार सख्त टैक्स प्रशासन की वकालत करते हैं जिससे कर राजस्व बढ़ता है. वे कर में समानता की वकालत तो करते हैं लेकिन प्रतिस्पर्धी ऊंचे कर की वकालत नहीं करते.

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बहुमतवाद को जवाब

इंडियन एक्सप्रेस में मेघनाद देसाई लिखते हैं कि मोदी पार्ट टू में हुए पहले चुनाव के नतीजों से राजनीतिक दलों को कई सबक मिलते हैं. महाराष्ट्र में एनसीपी और हरियाणा में जेजेपी के प्रदर्शन ने राजनीतिज्ञों और पोल पंडितों को चौंकाया है. बीजेपी चकित नहीं, स्तब्ध रह गयी है. चुनाव बाद सर्वेक्षण के नतीजों से बिल्कुल उलट फैसले देकर मतदाताओं ने यह साबित कर दिखाया है कि अगर नेता और सर्वेयर मतदाताओं के बीच रहने का दावा करते हैं तो मतदाता भी उनके ही बीच रहते हैं.

मेघनाद देसाई लिखते हैं कि कांग्रेस ने इस देश में लगातार 5 आम चुनाव जीते और लगातार तीन बार ज्यादातर राज्यों में उसकी जीत हुई, फिर भी कभी बहुमतवाद हावी नहीं हुआ और ऐसा नहीं लगा कि लोकतंत्र खतरे में हैं.  

लेकिन, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में दूसरा कार्यकाल आते ही यह खतरा लोगों को दिखने लगा है. इस चुनाव नतीजे में इस खतरे को भी मतदाताओं ने महसूस किया और कराया है. वे लिखते हैं कांग्रेस के प्रति मतदाताओं को विश्वास लौटना सबसे बड़ा आश्चर्य है.

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भारत की ‘सहिष्णु देश’ की छवि को आंच

आकार पटेल ने टाइम्स ऑफ इंडिया में ध्यान दिलाया है कि भारत की दुनिया में सशंकित छवि उभर रही है. बीते हफ्ते अमेरिका में पार्लिटमेंटेरियन इल्हान ओमर ने कश्मीर में भारतीय कार्रवाई की आलोचना की थी जिस ओर दुनिया का ध्यान गया और यह मसला सोशल मीडिया में भी खूब उछला. आकार पटेल ने लिखा है कि भारत को सहिष्णु देश के रूप में देखा जाता रहा है लेकिन यहां अल्पसंख्यकों का ख्याल नहीं रखा जा रहा है. दुनिया में यह बात धीरे-धीरे खुलने लगी है.

लेखक मानते हैं कि यह सही वक्त है जब डैमेज कंट्रोल किया जाए. असम में रहने वाले मुसलमान एनआरसी की वजह से परेशान हैं, दस्तावेजों के पीछे भाग रहे हैं, उन्हें कन्सन्ट्रेशन कैम्प में जाने का खतरा महसूस हो रहा है. अब तक ट्रम्प प्रशासन ने भारत को समर्थन किया है, लेकिन अगर ये चीजें जारी रहती हैं तो ट्रम्प प्रशासन के लिए भी इस समर्थन को जारी रखना मुश्किल हो जाएगा.

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निराश विपक्ष को मिली आस

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद से यह सवाल तेजी से उठने लगे थे कि ‘बीजेपी नहीं तो कौन?’ ऐसा माना जाने लगा था कि देश एक दलीय व्यवस्था की ओर बढ़ने लगा है जहां हर तरह के चुनाव में एक जैसे परिणाम आने वाले हैं. मगर, हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजे इस सोच को बदलने वाले हैं.

चाणक्य लिखते हैं कि आम चुनाव के बाद से विपक्ष निराश और हताश था. मगर, अब विपक्ष भी नये सिरे से राजनीति का आकलन करेगा. वे लिखते हैं कि राजनीति एक प्रतिस्पर्धी प्रक्रिया होती है. गलतियां राजनीति का हिस्सा है और इन गलतियों को ठीक भी राजनीति ही करती है.

मतदाता गलत को सही करना सिखाते रहते हैं. सवाल यह नहीं था कि बीजेपी को मजबूत विपक्ष मिलेगा या नहीं, सवाल यह था कि कौन बनेगा मजबूत विपक्ष. मतदाताओं ने इस सवाल का उत्तर देने की भी कोशिश की है.

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