हिंसक बहुसंख्यकवाद की जड़ें
गोरक्षा के नाम पर लिंचिंग के बारे में अक्सर यह दलील दी जाती है कि यह भीड़ की स्वत: स्फूर्त प्रतिक्रिया है. यह ठीक है कि कुछ लोग अचानक इसमें हिस्सा लेते हैं. लेकिन लिचिंग को अंजाम देने वालों की विचारधारा का रुझान इसी से पता चल जाता है कि वे अपने शिकार को ‘गो माता की जय’ और ‘जय हनुमान’ कहने को मजबूर करते हैं.
क्रिस्टोफेर जेफरलेट ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे लेख में भीड़ की इस हिंसा के पीछे के वैचारिक समर्थन की पड़ताल करते हुए लिखा है कि दरअसल हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में जिस तरह गोरक्षक दल को राज्य का समर्थन है उन्हें वैधानिक मान्यता दे दे गई है.
उससे लगता है कि स्टेट धीरे-धीरे बिल्कुल हिंदू राष्ट्र में तब्दील हो गया है. संघ परिवार अब एक समांतर सरकार नहीं है बल्कि एक स्टेट के तौर पर इसकी जड़ें अब अंदर तक घुस गई हैं. अब बीजेपी भी इसका एक हिस्सा भर है.
एक न्यूट्रल स्टेट का विचाराधारा के तौर पर हिंदू राष्ट्र में बदल जाना एक ऐसे हिंसक बहुसंख्यकवाद की तस्वीर है, जो आज सभी देशों में दिख रहा है. जहां राष्ट्र के नाम पर अल्पसंख्यकों का दमन हो रहा है. यहां छिपी हुई ताकतें विचारधारा के नाम पर स्टेट के साथ समझौता कर यह सब कर रही है.
एनआरसी : रिफ्यूजी कैंपों में नहीं पूरे देश में बसाओ
असम में एनआरसी के पहले ड्राफ्ट में नाम न आने पर 40 लाख लोगों को अवैध घोषित किए जाने के बाद नागरिकता का मुद्दा बेहद पेचीदा हो गया है. टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस अंकलेसरैया लिखते हैं कि पहले ड्राफ्ट में 40 लाख नागरिकता से बाहर हो गए हैं.
एनआरसी एक और दौर की गणना करेगा और बाहर किए गए लोगों को अपनी नागरिकता साबित करने का मौका देगा. इसके बावजूद अगर 20 लाख लोग भी बाहर रह गए तो फिर क्या होगा? उन्हें कहां भेजा जाएगा. बांग्लादेश उन्हें नहीं रखेगा. उन्हें स्थायी तौर पर रिफ्यूजी कैंपों में एक भारी त्रासदी और अव्यावहारिक होगा.
स्वामीनाथन लिखते हैं- इस समस्या का सबसे अच्छा हल उन्हें उन राज्यों में बसा दिया जाए जहां खेत मजदूरों की कमी है और जो राज्य इन श्रमिकों को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं. दरअसल इस मुद्दे को सुलझाने के लिए संवेदनशीलता की जरूरत है.
नॉर्थईस्ट के बांग्लादेशी प्रवासियों को भारत जैसे विशाल देश में बसाने कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए. लेकिन इतनी बड़ी आबादी का नॉर्थईस्ट में बस जाना वहां के लेगों के लिए समस्या है. बीजेपी उन्हें देश भर में बसाने का विरोध करेगी क्योंकि वह इन्हें कृषि श्रमिक के तौर पर नहीं बल्कि अवैध मुसलमान प्रवासियों के तौर पर देखती है.
पवार का राजनीतिक कौशल
बिजनेस स्टैंडर्ड में अदिति फडणीस ने एनसीपी चीफ शरद पवार के राजनीतिक कौशल और लचीलेपन का जिक्र करते हुए लिखा है कि पवार 2019 में विपक्ष को एकजुट करने में लगे हैं. वह लिखती हैं- बेहद परिश्रमी पवार दोबारा उस भूमिका में लौट आए हैं जिसे वह बखूबी अंजाम देते रहे हैं. समान सोच रखने वाले नेताओं को एक-दूसरे के संपर्क में लाने, नए अवसर पैदा करने, संपर्क की कडिय़ां जोडऩे और इस पूरी प्रक्रिया में ऐसे दरवाजे खोल देना जिसके बारे में कल्पना भी न की जा रही हो.
इस बार पवार ने मराठा समुदाय को आरक्षण देने को संभव बनाने के लिए रखे जाने वाले संविधान संशोधन प्रस्ताव पर राजनीतिक सहमति बनाने का जिम्मा उठाया है. इसके साथ ही वह विपक्ष के तमाम नेताओं के साथ संपर्क में हैं ताकि उन्हें एक साथ खड़ा किया जा सके.
जब राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से निपटने का मामला आता है तो पवार हमेशा ही एक कांग्रेसी सोच वाले नेता ही रहे हैं जो उस पुरानी मान्यता में यकीन रखता है कि राजनीतिक विरोध को कभी भी निजी दुश्मनी में नहीं तब्दील करना चाहिए.
पवार ने बहुत कुछ देखा है, बहुत कुछ किया है. यही वजह है कि विपक्ष को एकजुट करने में एक ईमानदार मध्यस्थ की भूमिका निभाने की पवार की कोशिशों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए.
आइकिया यहां कितना कामयाब होगी?
भारत में आइकिया के फर्नीचर स्टोर खुलने के बाद टाइम्स ऑफ इंडिया में चिदानंद राजघट्टा ने सवाल किया है कि क्या यह दिग्गज फर्नीचर कंपनी अपने डू इट योरसेल्प यानी खुद करके देखो के कल्चर के साथ यहां सफल हो सकेगी
राजघट्टा लिखते हैं उन्हें मर्फी रेडियो, ईसी टीवी, जावा मोटरसाइकिल और लैंबरेटा स्कूटर की याद है, जब बच्चों को इन्हें छूने या इनके पार्ट्स खोलने को बिल्कुल मना किया जाता था. क्या ऐसे देश में आइकिया स्टोर सफल होंगे. जहां फर्नीचर के पार्टस दिए जाते हैं, जिन्हें खुद असेंबल करना होता है.
साथ ही भारत में ब्राह्वमणवादी संस्कृति आकांक्षाएं भी काम करती हैं जहां शारीरिक श्रम से हाथ गंदे करने को ठीक नहीं समझा जाता है. यहां यह काम लेबर क्लास का होता है.पूरा जोर मानसिक श्रम पर होता है शारीरिक श्रम पर नहीं.
नतीजतन भारतीय पढ़ा-लिखा शख्स क्वैडेट्रिक इक्वेशन तो सॉल्व कर सकता है. मोटी-मोटी किताबों को रट्टा लेकर याद कर सकता है लेकिन उसे शायद टेबल के चार पैरों को जोड़ने, उड़े हुए फ्यूज को जोड़ने या पंक्चर टायर लगाने में मुश्किल आ सकती है. लेकिन क्या 2018 का मिलेनियल भारत अलग है.
सेंट स्टीफंस का क्षरण
अमर उजाला के अपने लेख में रामचंद्र गुहा ने दिल्ली के प्रख्यात स्टीफंस कॉलेज के एक संस्थान के तौर पर क्षरण पर अफसोस जाहिर किया है. गुहा लिखते हैं- इस लेखक ने 1974 में सेंट स्टीफंस ने दाखिला लिया था. जब इस कॉलेज से एक महान अंग्रेज सी एफ एंड्रयूज से गए साठ साल बीत चुके थे. लेकिन उनकी कुछ छाप अब भी वहां मौजूद थे.
पक्के तौर पर मेरे कुछ सहपाठी सेंट स्टीफंस की डिग्री के जरिये हिन्दुस्तान लीवर या सिटीबैंक जैसी कोई नौकरी हासिल कर पैसा कमाना चाहते थे. तो अन्य इस कॉलेज को आईएएस के रूतबे वाली सीढ़ी की तौर पर देखते थे.कुछ छात्रों को धन और ताकत में बहुत कम रुचि थी और वे शिक्षक, लेखक या सामाजिक कार्यकर्ता बनना चाहते थे.
हालांकि ग्रेजुएशन के तौर पर उन्होंने चाहे जो किया हो जब तक वे कॉलेज में रहे उनमें से अधिकांश स्टेफनिएंस नस्ल, धर्म, जाति या वर्ग के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त नहीं थे. लेकिन अब एक ऐसी जगह जो वास्तव में बहुलतावाद का स्वर्ग था भारत की भाषाई, जातीय और धार्मिक विविधता का सूक्ष्म रूप थी उस पर एक ताकतवर समुदाय के भीतर के निहित स्वार्थी तत्वों ने कब्जा कर लिया है. कॉलेज के हाल के प्रवास के दौरान मैंने पाया कि माहौल ध्रुवीकृत हो चुका है जैसा वह पहले कभी नहीं था.
बिजनेस फ्रेंडली होने का खोखला दावा
दैनिक जनसत्ता में छपे अपने कॉलम में पी चिदंबरम ने लिखा भारत एक बार फिर 1991 के अॉटर्की - autarky के दौर की ओर बढ़ रहा है. इससे उनका मतलब भारत के बगैर किसी बाहरी मदद और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के बगैर आत्मनिर्भरता की कोशिश हो रही है.
उनका कहना है कि बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार इस बहाने हाइपर नेशनलिज्म के नैरेटिव को हवा देना.चिदंबरम ने अपने तर्कों से इसे साबित करने की कोशिश है और अपने समर्थन में उन्होंने मोदी सरकार के गठन के बाद से रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स, मार्केट इनकॉमी और ट्रेड से जुड़े आंंकड़े दिए हैं. वह लिखते हैं. बाजार, राज्य के बावजूद भी वजूद में रहता है.
बाजार आर्थिक क्षमता और आजादी को बढ़ावा देता है. बाजार पर रेगुलशन हल्का होना चाहिए और राज्य को कुछ ही मसलों में ही बाजार में हस्तक्षेप करना चाहिए. बाजार पर बीजेपी का रुख संदिग्ध है.
वह बिजनेस फ्रेंडली होने का दावा करती है लेकिन वह आयात को हतोत्साहित करने के तरीके अपना रही है. टैरिफ और नॉन टैरिफ बैरियर से लेकर लाइसेंस और परमिट जैसी अड़चनों ंसे विदेश व्यापार को धीमा कर रही है.2014 में जितने प्रतिबंध थे आज उससे ज्यादा प्रतिबंध लाद दिए गए हैं. यह सब कुछ बिजनेस ग्रुप के स्वार्थों को बढ़ावा देने के लिए हो रहा है जो सत्ता के करीब हैं.
दक्षिण की गुत्थी
और आखिर में कूमी कपूर की बारीक नजर . इंडियन एक्सप्रेस में अपने कॉलम इनसाइड ट्रैक में वह लिखती हैं- तमिलनाडु के सीएम ई पलानीस्वामी और उनके डिप्टी ओ पन्नीसेलवम मरीना बीच पर दिवंगत नेता एम करुणानिधि के स्मारक के लिए जगह देने पर एकमत नहीं थे.
ईपीएस डीएमके के खिलाफ टफ स्टैंड लेना चाहते ताकि अपने समर्थकों को दिखा सकें कि वह ओ पन्नीसेलवम के दबाव में नहीं हैं. पन्नीरसेलवम का रुख आजकर एआईडीएमके बागी नेता टीटीवी दिनकरन पर नरम है. जैसे ही बीजेपी के प्रतिनिधि एस गुरुमूर्ति ने ईपीएस की पोजीशन को सपोर्ट करते हुए ट्वीट किया बीजेपी और आरएसएस के खिलाफ चेन्नई में नारे बुलंद होने लगे.
इसने मोदी के सामने अजीब स्थिति पैदा कर दी जो साफ कर देना चाहते थे लेकिन वह राज्य की राजनीति में हस्ताक्षेप नहीं करना चाहते और ओपीएस, ईपीपीएस गुटों के विलय में उनकी कोई भूमिका नहीं है. जब कनिमोझि ने अपने पिता के स्मारक को मरीना बीच में जगह देने के लिए पीएम से मिली तो उन्होंने कहा यह राज्य सरकार का अड़ंगा है. हमारा नहीं.
अंतिम संस्कार के मौके पर मोदी करुणानिधि के परिवार से अच्छी तरह से मिले और करुणानिधि के बड़े बेटे एम के अलागिरी से मिले जो तीसरी पंक्ति में बैठे थे.\
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)