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संडे व्यू: सिर्फ एक चुनाव नहीं है हैरिस-ट्रंप मुकाबला, केजरीवाल ही AAP के ईंधन

पढ़ें इस इतवार फ्रैंक एफ इस्लाम, तवलीन सिंह, पी चिदंबरम, रामचंद्र गुहा और प्रभु चावला के विचारों का सार

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सिर्फ चुनाव नहीं है ट्रंप-हैरिस मुकाबला

फ्रैंक एफ इस्लाम ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस का मुकाबला सिर्फ चुनावी नहीं है. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में श्वेत वर्चस्व के बीच अश्वेत पहचान को स्थापित करने की भी यह घड़ी है. महिला अश्वेत उम्मीदवार के तौर पर कमला पहली राष्ट्रपति होंगी, अगर वह जीतती हैं. 1789 से लेकर अब तक संयुक्त राज्य अमेरिका में 59 राष्ट्रपति चुनाव हुए हैं. जॉर्ज वाशिंगटन अमेरिका के पहले कमांडर इन चीफ थे. अगले 220 साल तक राष्ट्रपति के सभी दावेदार श्वेत पुरुष रहे हैं, चाहे वे किसी भी राजनीतिक विचारधारा या राजनीतिक दल के साथ जुड़े रहे हों. 2008 में यह परंपरा टूटी जब बराक ओबामा अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति चुने गये.

फ्रैंक एफ इस्लाम बताते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस के बीच राष्ट्रपति पद के लिए मुकाबला सामान्य नहीं है. इससे पहले कभी इतने अलग-अलग पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार नहीं रहे. कमला भारतीय मूल की बायोमेडिकल वैज्ञानिक श्यामला गोपालन और जमैकन अमेरिकी अर्थशास्त्री डोनाल्ड हैरिस की बेटी हैं. उन्होंने हॉवर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की. कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में हेस्टिंग्स कॉलेज ऑफ लॉ से कानून की डिग्री हासिल की. वहीं ट्रंप का जन्म धनी परिवार में हुआ. उनके पिता फ्रेड ट्रंप क्वींस के संपन्न रीयल एस्टेट डेवलपर थे. पेंसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के ह्वार्टन स्कूल ऑफ बिजनेस से उन्होंने डिग्री हासिल की.

हैरिस नागरिक अधिकार आंदोलन की उपज हैं. उनके माता-पिता दोनों ही एक्टिविस्ट थे. वहीं ट्रंप का पूरा करियर नागरिक अधिकारों और नस्लीय मुद्दों पर विवादास्पद रहा है. राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप की बयानबाजी और नीतियों ने अल्पसंख्यक समुदायों को चिंता में डाला और नस्लीय तनाव बढ़ाया. ट्रंप को आत्म केंद्रित माना गया है जबकि कमला हैरिस की छवि उदार और सामाजिक स्तर पर सक्रिय नेता की रही है. दुनिया को जल्द ही पता चल जाएगा कि कमला हैरिस राष्ट्रपति पद पर ऐतिहासिक रूप से काबिज होती हैं या नहीं, लेकिन एक बात साफ है कि उनकी उम्मीदवारी बदलते अमेरिका का प्रतीक है. ट्रंप के खिलाफ आमना-सामना पहले से ही अमेरिका इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है.
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अन्याय है बुलडोजर न्याय

तवलीन सिंह ने जनसत्ता में लिखा है कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट से यह सुनकर खुशी हुई है कि बुलडोजर न्याय नहीं होगा. जब से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने घर तोड़ने के गंभीर अपराध को न्याय का नाम दिया है तभी से लेखिका इसके विरोध में रही हैं. योगी आदित्यनाथ की नकल करके न्याय के नाम पर कई बीजेपी शासित राज्यों में बुलडोजर चलाए गये हैं. कई मुख्यमंत्री ने झूठ बोलकर कहा कि बुलडोजर सिर्फ अवैध इमारतों पर चलाए गये हैं. इस झूठ का पर्दाफाश तब हुआ जब मध्यप्रदेश के गृहमंत्री ने कहा था कि जो लोग पत्थर फेंकने का काम करते हैं उनके घर पत्थरों के ढेर किए जाएंगे. योगी ने कभी बुलडोजर बाबा कहने जाने पर आपत्ति नहीं जताई. बुलडोजरों का मिजाज भी अजब है. अक्सर मुसलमानों के घर तोड़ने पहुंचते हैं.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि बुलडोजर हाथरस नहीं पहुंचते और न ही लखीमपुर खीरी. ये बुलडोजर उस जगह घंटों में पहुंच जाते हैं जहां किसी मुसलमान पर आरोप हो कि वह उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल हुए या किसी दंगे में. न्यायाधीशों ने साफ किया है कि अपराध साबित होने के बाद भी किसी का घर नहीं तोड़ा जा सकता है, जब तक कानूनी तौर पर ऐसा न कहा जाए. लेखिका जिक्र करती हैं कि सोशल मीडिया पर जब उन्होंने बुलडोजर न्याय के खिलाफ आवाज उठाई तो हिंदुत्ववादी सोच के लोगों ने उन्हें हिंदू विरोधी करार दिया. पश्चिमी देशों में जब किसी को बेगुनाह पाया जाता है तो अदालत से ही उसकी रिहाई हो जाती है. हमारे देश में ऐसा नहीं है. बेगुनाह पाए जाने के बाद अभियुक्त को वापस जेल में जाना पड़ता है फिर इतनी लंबी कार्यवाही चलती है कि बेगुनाह व्यक्ति को रिहा करने में तीन-चार दिन लग जाते हैं. कंप्यूटरों के इस जमाने में उपन्यास जैसे फैसले लिखने या पुरानी भाषा में पुलिस की ओर से आरोप पत्र तैयार करने की क्या जरूरत है, इसे कभी समझाया नहीं गया.

सरकार के हुक्म पर कोविंद समिति की सिफारिशें

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि सरकार की मंशा उजागर हो गयी है. कोविंद समति को हुक्म दिया गया था कि वह इस बात की सिफारिश करें कि लोकसभा और भारत के अट्ठाइस राज्यों के लिए एक साथ चुनाव कराना संभव और जरूरी है. हुक्म यह भी था कि समिति में एक साथ चुनाव कराने के विचार के खिलाफ कोई सिफारिश नहीं की जाएगी. समिति ने ईमानदारी से उस आदेश का पालन किया. लेखक का दावा है कि समिति की संरचना से भी तथाकथित अध्ययन में पक्षपात उजागर होता है. समिति के अध्यक्ष और आठ सदस्यों में केवल एक संविधान विशेषज्ञ था. जैसा कि अपेक्षित था समिति ने सिफारिश की कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव पांच साल में एक बार एक साथ होने चाहिए.

पी चिदंबरम लिखते हैं कि किसी भी बड़े, संघीय और लोकतांत्रिक देश में इसका कोई उदाहरण मौजूद नहीं है. संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और जर्मनी तुलना योग्य देश हैं. अमेरिका में प्रतिनिधि सभा के चुनाव दो साल में एक बार होते हैं. राष्ट्रपति और राज्यपालों के पद के लिए चुनाव चार साल में एक बार होते हैं और एक साथ नहीं होते हैं. सीनेट के चुनाव तीन द्विवार्षिक चक्रों में छह साल में होते हैं.

लेखक आगे लिखते हैं कि कोविंद समिति एक ऐसे विचार की खोज कर रही थी जो संघीय संसदीय लोकतंत्र के विपरीत हो. संसदीय लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार हर दिन लोगों के प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी होती है और कार्यपालिका के लिए कोई निश्चित कार्यकाल नहीं होता. संविधान सभा में बहस के उपरांत संसदीय प्रणाली को भारत की विविधता के लिए अधिक उपयुक्त माना गया था. कोविंद समिति ने यह गलत अनुमान लगाया है कि एनडीए सरकार संसद में संविधान संशोधन विधेयक पारित कराने में सक्षम होगी. इसके विपरीत इस विधेयक को पराजित करने के लिए विपक्ष आसानी से लोकसभा में 182 सांसदों और राज्यसभा में 83 सांसदों को जुटा सकता है.

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केजरीवाल ही आप के ईंधन

प्रभु चावला ने अरविंद केजरीवाल को एक ऐसा नेता करार दिया है जिसकी पार्टी की विचारधारा वे स्वयं हैं. बिना अल्कोहल वाली शराब और विचारधारा के बिना नेता एक जैसी बातें हैं और अरविंद केजरीवाल इसका उदाहरण हैं. केजरीवाल को तिहाड़ जेल में पहुंचाने वाले राजनीतिक कॉकटेल खत्म होता दिख रहा है. बड़ी वापसी की रणनीति पर केजरीवाल चल रहे हैं. आतिशी सीएम की कुर्सी पर बैठ गयी हैं और केजरीवाल पुराने मंच पर लौट आए हैं. वे नरेंद्र मोदी और कांग्रेस पर पूरी आक्रामकता के साथ हमले को तैयार हैं. मोदी और केजरीवाल दोनों ही अपनी पार्टियों के लिए अकेले जन-आंदोलनकर्ता और वोट बटोरने वाले हैं.

चावला लिखते हैं कि अन्ना हजारे को खोजने के बाद केजरीवाल की राजनीतिक खोज खुद को खोजने की थी. वे आह्वान करते हैं कि एक ऐसे नेता को चुनें जो आपके जैसा रहता है, खाता है, सांस लेता है और कपड़े पहनता है. अपने आप में से एक को चुनें, अपने लिए. 2014 में मोदी के नए तरीके से आने के बाद केजरीवाल मतदाताओं का एक नया वर्ग हैं जो जातियों और समुदायों से परे हैं. केजरीवाल एक तरह की लोक-लुभावन विचारधारा हैं. गांधीवाद, मार्क्सवाद, समाजवाद या पूंजीवाद की तरह कोई निश्चित रूपरेखा नहीं है. केजरीवाल शायद पहले भारतीय नेता हैं जिन्होंने नौसिखुओं की पार्टी बनाई जो बदलाव और सरकार बनाने की मांग करते हैं और जीतते हैं. मुफ्त सुविधाओं का केजरीवाल का मॉडल सभी राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है.

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धर्म भेद के बीच शांति से रहने की चुनौती

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि अलग-अलग धर्म के लोग एक साथ शांतिपूर्वक रहने के लिए कैसे प्रेरित हों, यह आधुनिक दुनिया की बड़ी चुनौतियों में एक है. मध्यपूर्व और दक्षिण एशिया में धार्मिक बहुसंख्यकवाद के बीच गैर ईसाई आबादी का यूरोप और उत्तर अमेरिका में पलायन हिंसक संघर्ष की वजह बन रहे हैं. अहंकार और श्रेष्ठ होने के भाव ने हिंसक संघर्ष को जन्म दिया है. अमेरिकी विद्वान थॉमस अल्बर्ट हॉवर्ड ने अपनी पुस्तक द फेथ ऑफ अदर्स ए हिस्ट्री ऑफ इंटर-रिलिजियस डॉयलॉग (न्यू हेवन येल यूनिवर्सिटी प्रेस, 2021) में अंतर-धार्मिक समझ को मजबूती से पेश किया है. कभी आध्यात्मिक अहंकार के लिए चर्चित कैथोलिक चर्च ने 1960 के दशक में अन्य धर्मों को स्वीकार करने की प्रक्रिया शुरू की. 1964 में पोप ने कहा, विभिन्न गैर ईसाई धर्मों के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को पहचानेगा और उनका सम्मान करेगा. एक और पोप ने आगे टिप्पणी की कि संवाद और सामरिक चिंताओं या स्वार्थ से उत्पन्न नहीं होता है बल्कि यह अपने मार्गदर्शक सिद्धांतों, आवश्यकताओं और गरिमा के साथ एक गतिविधि है.

रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि हॉवर्ड के अध्ययन में अंतर-थार्मिक संवाद के भारतीय समर्थक हैं- अकबर और स्वामी विवेकानंद. लेखक आगे लिखते हैं कि महात्मा गांधी भी इस बात में विश्वास नहीं करते थे कि धर्म ईश्वर तक पहुंचने का कोई विशेष और श्रेष्ठ मार्ग प्रदान करता है. सितंबर 1924 में ईश्वर एक है शीर्षक से लिखे लेख में गांधी ने लिखा है कि हिंदुओं के लिए यह उम्मीद करना कि इस्लाम, ईसाई धर्म या पारसी धर्म को भारत से बाहर निकाल दिया जाएगा, उतना ही बेकार का सपना है जितना कि मुसलमानों के लिए यह कि उनकी कल्पना के अनुसार केवल इस्लाम ही दुनिया पर राज करे.. सत्य किसी खास धर्मग्रंथ की विशेष संपत्ति नहीं है.

1941 में गांधी ने एक पुस्तिका निकाली जिसमें रचनात्मक कार्यक्रम की रूपरेखा दी गयी थी. उन्होंने लिखा कि सांप्रदायिक एकता के लिए पहली बात यह थी कि हर कांग्रेसी, चाहे उसका धर्म कुछ भी हो अपने व्यक्तित्व में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, यहूदी आदि का प्रतिनिधित्व करे. लेखक का मानना है कि गांधी धार्मिक बहुलवाद की अपनी खोज में विफल रहे. लेखक मानते हैं कि यह हो सकता है कि गांधी की स्पष्ट हार ने भारत और भारतीयों के लिए उनकी विरासत के नवीनीकरण को और भी जरूरी बना दिया हो. इस्लामी बहुसंख्यकवाद के जोर देने से पाकिस्तान के लोग अधिक शांतिपूर्ण या समृद्ध नहीं हुए हैं. न ही बौद्ध बहुसंख्यकवाद ने श्रीलंका में कोई खुशहाली लायी है.

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