आर्थिक दबाव में कांग्रेसी नीतियों पर लौट रही है सरकार?
टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि अर्थव्यवस्था के लिए मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं. वित्त नीति दबाव में है. जून वाली तिमाही में आमदनी से 5.4 गुणा ज्यादा खर्च हुए. कॉरपोरेट की आमदनी 30 फीसदी घट गयी है. जीडीपी 5 प्रतिशत से ज्यादा सिकुड़ने वाली है. ऐसे में सरकार के लिए बचत में हाथ डालना ही बाकी रह गया है. नायनन लिखते हैं कि बीते तिमाही में राजस्व में 50 फीसदी कमी आयी है. अगर आगे कुछ सुधार भी हुआ तब भी भी जीडीपी के 6.4 प्रतिशत तक का राजस्व घाटा हो चुका होगा. यह स्थिति 2009-10 में भी पैदा हुई थी. तब और अब में फर्क यह है कि तब घाटा और सार्वजनिक उधार छोटा था.
नायनन लिखते हैं कि उपरोक्त स्थितियों में सरकार को बेमन से नोट छापने पड़ सकते हैं यानी 90 वाली नीति पर सरकार को लौटना पड़ सकता है. बैड लोन से निपटने के लिए अतिरिक्त 4 ट्रिलियन रुपये की जरूरत होगी.
इस पूंजी के अभाव में ज्यादातर कंपनियां घाटे में जाएंगी. कर्ज को री-स्ट्रक्चरिंग की खारिज की जा चुकी नीति दोबारा लागू की जा चुकी हैं. इसी तरह दूसरी खारिज की जा चुकी नीतियों पर सरकार को लौटना पड़ सकता है. खुले व्यापार पर विश्वास में कमी के कारण कांग्रेस सरकार में खारिज की जा चुकी नीतियां फिर लागू की जाने लगी हैं. ऊंची टैरिफ और आयात लाइसेंसिंग की नीति इसका उदाहरण हैं. मगर, ऐसा अक्सर होता नहीं है कि पुरानी नीतियां हमेशा नतीजे दे.
दाऊद की मौत के जैसी अफवाह है धर्मनिरपेक्षता की मौत
शेखर गुप्ता ने द प्रिंट में कई सवाल उठाए हैं- क्या 5 अगस्त को भारतीय धर्मनिरपेक्षता की मौत हो गयी? एक नये भारतीय गणतंत्र हिंदू राष्ट्र का उदय हो गया? अगर यह सच है तो भारतीय संविधान में आस्था रखने वाला कहां जाए?
इन सवालों को शेखर गुप्ता बेमानी भी बताते हैं और अफवाह भी. टीवी चैनलों पर दाऊद इब्राहिम की मौत की खबरों से वे इन अफवाहों की तुलना करते हैं. शेखर गुप्ता लिखते हैं कि पिछले 35 वर्षों में कई बार धर्मनिरपेक्षता की मौत होने के दावे किए गए हैं. जब राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में 1986 में कार्रवाई की, जब 1988 में सलमान रुश्दी की किताब सेटेनिक वर्सेज पर प्रतिबंध लगाया गया, बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का ताला खोला गया, 1989 में राम जन्म भूमि शिलान्यास और राम मंदिर के लिए देशव्यापी आंदोलन शुरू हुआ.
शेखर गुप्ता याद दिलाते हैं कि 1992 में मस्जिद ढहने के बाद कहा गया कि धोती के नीचे खाकी निक्कर पहनने वाले प्रधानमंत्री से और क्या उम्मीद की जा सकती है. धर्मनिरपेक्षता की मौत की घोषणा तब भी हुई जब 1996 में वाजपेयी के नेतृत्व में 13 दिन वाली सरकार बनी थी. 2002 में गुजरात दंगों के बाद के चुनावों में नरेंद्र मोदी की बारम्बार जीत को भी धर्मनिरपेक्षता की हत्या बताया जाता रहा. 2014 और 2019 में बीजेपी की जीत को भी धर्मनिरपेक्षता की मौत बतायी गयी. इन सबके बावजूद 5 अगस्त तक धर्मनिरपेक्षता बची हुई थी. इस बार आप कह सकते हैं कि आपने लाश देख ली है.
शेखर गुप्ता लिखते हैं कि 90 के दशक में एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल के रूप में दिहाड़ी पर सरकारें बनीं. ‘बीजेपी के अलावा कोई भी’ वाला दौर आया. अयोध्या का द्वंद्व राम के अस्तित्व पर सवाल में बदल गया. कांग्रेस का वह सतर्क रुख भी खत्म हो गया जिसमें अल्पसंख्यकों की हिमायत तो की जाती थी मगर हिंदू धर्म का मखौल नहीं उड़ाया जाता था. बीजेपी ज्यादा गहरे भगवे में आ गयी तो कांग्रेस पर लाल रंग गहरा हो गया.
बाटला हाऊस एनकाउंटर पर संदेह जताना और पीएम मनमोहन सिंह का यह कहना कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है- ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. आज मोदी कह सकते हैं कि धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करने की उनकी कोशिश को जनता का समर्थन है.
मनमोहन नुस्खा ही होगा कारगर
पी चिदंबरम द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि बीते दिनों पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने द हिन्दू में एक लेख लिखा था जिसकी सुधि नहीं ली गयी. इसमें उन्होंने बताया था कि तीन रास्ते हैं देश को पटरी पर लाने के- लोगों में, बैकरों में और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में विश्वास की बहाली. लेखक ने तमिलनाडु में अपने गृहक्षेत्र में लोगों के बातचीत कर यह बताया है कि लोगों के पास पैसे नहीं हैं, जो कुछ रकम है उसे बचाना चाहते हैं और वे भविष्य को लेकर डरे हुए हैं. 31 जुलाई तक देश में आम लोगों के पास 26,72,442 लाख करोड़ रुपये की मुद्रा थी. सोने की अनिश्चित खरीद लोगों में भय को दर्शा रही है.
लेखक बताते हैं कि बैंकरों को डर है कि 2021 तक एनपीए 14.7 फीसदी तक पहुंच सकता है. कर्जदारों की बैलेंस शीट खराब है और इसलिए कोई उधार देने को तैयार नहीं. ऐसे में कोरोना काल में केंद्र सरकार की ओर से 3 लाख करोड़ की बैंक गारंटी भी बेअसर साबित हो रही है.
उद्योग में क्षमता से कम हो रहा है उत्पादन क्योंकि मांग नहीं है, बाजार नहीं है. अंतराष्ट्रीय स्तर पर भारत ने जिस तरह से मुक्त व्यापार को खत्म कर डाला है और मात्रात्मक प्रतिबंध, हाई टैरिफ की राह अपनायी है उसे देखकर ऐसा नहीं लगता कि यह आत्मनिर्भरता का रास्ता है. बल्कि, यह ट्रंप का असर है. लेखक का मानना है कि अर्थव्यवस्था का कुप्रबंधन, महामारी और चीन से तनाव के तिहरे मार ने भारत की कमजोरियों को उजागर कर दिया है.
भारतीय गणतंत्र के लिए जरूरी है मूल्यों को बचाए रखना
चाणक्य हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास के बाद नये गणतंत्र की चर्चा हो रही है जिसमें हिंदुत्व प्रभावी है. इसका अर्थ यह है कि शासन के कामकाज में प्राथमिकताओं को हिंदू तय करेंगे. ऐसी चर्चा के बीच भारत के संविधान के मूल्यों पर गौर करना जरूरी है जो धर्मनिरपेक्षता, उदारवाद और लोकतंत्र पर आधारित है.
धर्मनिरपेक्षता को लें तो इसका महत्व धर्मनिरपेक्ष लोगों ने ही घटाया है. अक्सर इसे चुनाव और सत्ता के गणित में उलझाया गया है. ऐसा करते हुए हिन्दुओं की पहचान को नकारा गया है और हिन्दुओं के बीच जाति को मजबूती से उठाया गया है. संविधान की उद्देशिका में सेकुलर शब्द बाद में जोड़ा गया, लेकिन इसकी भावना में यह पहले से मौजूद है.
इसकी वजह स्वतंत्रता संग्राम की विरासत है जिसमें सबको साथ लेकर चला गया था. दूसरी बात यह है कि भारत में हिंदू-मुसलमान गांव-शहर में एक साथ रहते आए हैं. बंटवारे के बाद भी भारत में सहअस्तित्व का यह स्वभाव कायम रहा.
चाणक्य लिखते हैं कि उदारवाद ने लोकतांत्रिक तत्वों को प्रभावित किया है. चुनावी गणतंत्र बहुसंख्यकवाद में बदलता दिख रहा है. यह सुखद है कि मौलिक अधिकार इस तरह से अहम रहे हैं कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता बची रहे. चुनावी लोकतंत्र भारत में बेहतर काम कर रहा है. राष्ट्रीय एकता के लिए यह जरूरी है कि संवैधानिक मूल्य जिन्दा रहे. जब एक मूल्य पर हमला होता है तो खतरा दूसरे पर भी हो जाता है. हिन्दुस्तान में ऐसा गणतंत्र और वैसा गणतंत्र नहीं है, केवल एक गणतंत्र है.
दिल में हैं तो दूसरा घर क्यों खोजें भगवान?
द टेलीग्राफ में संकर्षण ठाकुर लिखते हैं कि सबकुछ उनकी अनुपस्थिति में हो रहा है. वे यहां नहीं हैं. लेकिन यह सब रोके कौन और क्या रोका जाए? हम नहीं जानते कि वे कहां हैं और कहां वे हो सकते हैं. हम यह भी नहीं जानते कि उनका इरादा लौटने का है भी या नहीं. इस जगह को हमने ऐसी जहरीली भीड़ में बदल दिया है कि वे यहां क्या लौटना चाहेंगे?
संकर्षण ठाकुर लिखते हैं कि हम उनकी ही बनाई व्यवस्था को भोग रहे हैं. खुदा बन बैठे क्या? खुदा को क्या चाहिए और उन्हें क्या नहीं मिल रहा है, आप ही तय करने लगे. मैं उन्हें खोजता रहा हूं और खोजते हुए यहां आ पहुंचा हूं. यह मेरा है जो उनका है. यह उसका है जो उनका है. यह उन लोगों का है जो उनका है. ये सभी एक होकर उनका हो. लड़ाई और हो-हल्ला के बीच ईश्वर को एक कमरे में बंद करने की कोशिश से कहीं वह नाराज न हो जाएं. हो सकता है कि वे यहां से भी चले जाएं. मेरा दिल ही उनका घर है तो वे कोई और घर क्यों खोजें. मैंने उन्हें नहीं बनाया है, उन्होंने मुझे बनाया है.
लव हैवन है जेएनयू?
भाग्यश्री बायवाड द इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि प्यार, जाति और लिंग के जंक्शन पर बात करना भारी भरकम विषय है. महाराष्ट्र के मराठवाड़ा के नांदेड़ जैसे पिछड़े इलाके से लेखिका ने मराठी में ग्रैजुएशन किया. टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में पढ़ते हुए उन्होंने जाना कि समाज जाति, वर्ग, लिंग, नस्ल, पहचान समाज में कैसे काम करते हैं और क्लासरूम के भीतर व बाहर का फर्क क्या है. भाग्यश्री लिखती हैं कि गतिशीलता और आजादी को अनुभव करते हुए रिलेशनशिप के जन्म और उसके पैटर्न को उन्होंने समझा. अपने रोमांटिक पार्टनर को चुनते हुए ‘प्यार’ किस तरह सामाजिक निर्माण का काम करने लगता है इसे जानते-समझते वह जेएनयू कैंपस आ पहुंची जहां उन्हें यौन संबंधों की विविधताओं के बारे में पता चला- बाय सेक्सुअल, एसेक्सुअल, इंटरसेक्स और हेट्रोसेक्सुअल.
भाग्यश्री ने 20 लोगों का इंटरव्यू करते-करते यह जान लिया कि रोमांटिक यौन संबंध साधारण नहीं है. किसी के लिए यह भावात्मक लगाव है तो किसी के लिए कम्फर्ट जोन, जहां वे अलग-अलग दर्शन वाले लोगों से डेट कर सके. कुछ लोग तो लेफ्ट और दलित पॉलिटिक्स की वजह से संबंध जारी नहीं रख पाए.
भाग्यश्री ने यह भी महसूस किया टेक्नोलॉजी की भी इस लिबरल एरा में महत्वपूर्ण भूमिका है. ह्वाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम शिकार करने के लिए प्लेटफॉर्म हैं. अगर महिला पार्टनर किसी बात करे तो ईर्ष्या भी खूब होती है. प्राइवेसी टूटते हैं जब एक-दूसरे सोशल मीडिया अकाउंट में तांक-झांक होने लगती है. बात गाली-गलौच तक और फिर संबंध टूटने तक आ पहुंचती है. किसी के लिए मोनोगैमी होना प्यार का प्रमाण है तो कई को एक से अधिक पार्टनर चाहिए.
समग्रता में जाति की भूमिका बहुत अहम है. कई दफा ऊंची जाति से होकर भी लड़की विशेषाधिकार का उपयोग नहीं कर पाती. एससी, एसटी, ओबीसी से जुड़े लोगों को जाति का डर सताता रहता है. एक लड़की अपने ब्वॉयफ्रेंड को छोड़ गयी क्योंकि वह दलित था. किसी के लिए जेएनयू लव हैवन है तो किसी के लिए रूढ़िवादी स्थान जहां लड़कियां तो ब्वॉयज हॉस्टल में जा सकती हैं लेकिन लड़के नहीं.
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