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संडे व्यू: हरियाणा में बीजेपी की कठिन परीक्षा, ममता सरकार गिराने के लिए आंदोलन?

पढ़ें इस रविवार आदिति फडणीस, राम माधव, तवलीन सिंह, करन थापर और प्रभु चावला के विचारों का सार

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हरियाणा में बीजेपी की कठिन परीक्षा

आदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि हरियाणा में कांग्रेस ने उम्मीदवारों को फॉर्म बेचकर 3.5 करोड़ रुपये इकट्ठे किए हैं. 20 हजार रुपये प्रति फॉर्म आम प्रत्याशियों से और एससी प्रत्याशियों से पांच हजार रुपये प्रति फॉर्म वसूले गये हैं. 90 विधानसभा सीटों के लिए कांग्रेस के पास 2556 आवेदन आए हैं. वहीं, बीजेपी ने हर सीट पर 25 से 30 दावेदारों से उचित प्रत्याशी चुनने के लिए पैनल बनाया है. करीब 3000 नामों पर विचार किया गया है. जब 2014 में बीजेपी सत्ता में आयी और मनोहर लाल खट्टर मुख्यमंत्री बने तब राज्य में गैर जाट जाति समूहों को मुखर होने का अवसर मिला. खट्टर का परिवार पश्चिमी पाकिस्तान से था और विभाजन के समय भारत आया था. उन्होंने जाटों के दबदबे को समाप्त करने के लिए विविधतापूर्ण गठबंधन तैयार किया. खास तौर से उन जातियों को साथ लिया जो जाटों के हाथों पीड़ित माने जाते थे. साल 2019 में भी जाट नेता दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व वाली जननायक जनता पार्टी ने बीजेपी को सत्ता में वापसी में मदद पहुंचाई. ऐसे में दस साल के बीजेपी शासन और जातीय प्रतिष्ठा में कमी ने जाटों को शक्तिहीनता का अहसास करा दिया है.

आदिति लिखती हैं कि बीजेपी सत्ता विरोधी लहर का भी सामना कर रही है जो अलग-अलग ढंग से सामने आ रही है. खट्टर ने एक सख्त, अनुशासनप्रिय और संस्थागत भ्रष्टाचार के कड़े विरोधी के रूप में ख्याति अर्जित की. पंचायत स्तर पर ई-निविदा (ई-टेंडर) को अपनाया. विरोधियों में नायब सिंह सैनी भी थे जो अब मुख्यमंत्री हैं. सरपंचों को दो लाख रुपये से अधिक की परियोजनाओं के लिए हरियाणा इंजीनियरिंग वर्क्स पोर्टल के जरिए ही निविदा जारी करना अनिवार्य बना दिया. नायब सैनी सरकार ने 2 लाख की सीमा को बढ़ाकर 21 लाख रुपये कर दिया। जाटों का मानना है कि दुष्यंत चौटाला का राजनीतिक भविष्य अच्छा नहीं है. पाला बदलकर उन्होंने अपनी विश्वसनीयता खो दी है. जाट और गैर जाट दोनों कहते हैं कि बीजेपी सरकार की कई पहल अच्छी हैं लेकिन किसान मुद्दों से निपटने और हरियाणा की महिला पहलवानों की प्रतिष्ठा से जुड़े मसलों से निपटने में पार्टी कामयाब नहीं रही. 31 अगस्त को दिल्ली-हरियाणा शंभू बॉर्डर पर किसानों के एकत्रित होने के 200 दिन पूरे हो चुके हैं. यहां से निकले संदेश मतदाताओं तक भी पहुंचेंगे.

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ममता सरकार गिराने के लिए आंदोलन?

तवलीन सिंह इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि सियासी शतरंज में सफलता से चाल चलने के बारे में जितना नरेंद्र मोदी जानते हैं, शायद ही इस देश का कोई दूसरा राजनेता जानता होगा. इस बात को वे लोग भी मानते हैं जो मोदी के भक्त नहीं हैं. कोलकाता में न्याय के लिए लड़ाई अब पूरी तरह से पश्चिम बंगाल में राजनीतिक रोटियां सेंकने में बदल चुकी है. बीजेपी के आला नेता ये खेल खेल रहे हैं. कहने को तो बीते हफ्ते स्थानीय नेताओं ने बंद बुलाया था लेकिन वास्तव में बंद का नेतृत्व आम लोग नहीं बीजेपी के लोग कर रहे थे. राष्ट्रपति का बयान 'बस बहुत हो गया' ने शक को यकीन में बदल दिया. कोलकाता में लगातार हो रहे विरोध प्रदर्शनों से इस बयान को जोड़ें तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ममता की सरकार को गिराने के लिए आंदोलन शुरू हो गया है. बीजेपी के कुछ प्रवक्ताओं ने बंगाल में राष्ट्रपति शासन की मांग भी शुरू कर दी है. क्या इसीलिए राष्ट्रपति को इस दर्दनाक हादसे में घसीटा गया है?

तवलीन सिंह लिखती हैं कि अगर वे ममता की सलाहकार होतीं तो उन्हें उग्र बयान देने से रोकतीं क्योंकि इससे वे फंस रही हैं उस जाल में जो उनके लिए बिछाई जा रही हैं. बंगाल में जो हो रहा है, अच्छा नहीं है. इसमें दो राय नहीं है. किसी सीमावर्ती राज्य में अशांति फैलाना भारत के हित में नहीं है. बांग्लादेश में अराजकता को देखते हुए यह समय और भी बुरा है. यह बात महत्वपूर्ण है कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव अभी दूर है फिर भी क्यों ममता सरकार को परेशान करने की राजनीति हो रही है? सच यह है कि नरेंद्र मोदी उन नेताओं में हैं जो हार नहीं मानते. आप महाराष्ट्र का उदाहरण ले सकते हैं. जब महाराष्ट्र में बीजेपी की सरकार नहीं बन पायी और रात के अंधेरे में राज्यपाल को जगाकर देवेंद्र फडणवीस को सीएम बनाने की कोशिश भी फेल हो गयी तो आगे क्या हुआ? एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का खेल हुआ. शरद पवार की पार्टी तोड़ी गयी. इसका खामियाजा लोकसभा चुनाव में बीजेपी को भुगतना पड़ा. आम लोगों को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता कि चुनी हुई सरकार को गिरा दिया जाए. समस्या यह है कि हमारे राजनेता अपनी गलतियों से सीखते नहीं हैं और वही गलती करते रहते हैं जिनसे न सिर्फ उनका, बल्कि देश का नुकसान होता है. ऐसी गलती अब पश्चिम बंगाल में हो रही है.

राजनीति से दूर हैं युवा

राम माधव ने इंडियन एक्सप्रेस में लेबनानी अमेरिकी साहित्यकार खलील जिब्रान की कविता के हवाले से लिखा है कि "आपके बच्चे आपके नहीं हैं." वे जीवन के बेटे-बेटियां हैं. फ्रैंकलिन रूजवेल्ट को भी उन्होंने उद्धृत किया है- "हम हमेशा अपने युवाओं के लिए भविष्य का निर्माण नहीं कर सकते हैं, लेकिन हम अपने युवाओं को भविष्य के लिए बना सकते हैं." हालांकि ये शब्द कुछ हद तक संरक्षणात्मक लगते हैं. वास्तविकता यह है कि न केवल भविष्य, बल्कि वर्तमान भी युवाओं के हाथों में है. युवा नेतृत्व सार्वजनिक जीवन गे हर क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ रहा है चाहे वह उद्योग हो, अनुसंधान और विकास, व्यापार और वाणिज्य और यहां तक कि सोशल मीडिया जैसे उभरते क्षेत्र. लैरी पेज की उम्र 25 साल थी जब उन्होंने गूगल की स्थापना की. मार्क जुकररबर्ग की उम्र 20 साल भी नहीं ती जब उन्होंने फेसबुक की स्थापना की. एलन मस्क जैसे उद्यमियों ने अपने 30 के दशक में ई-वाहन जैसे क्षेत्रों में प्रवेश किया और उनमें क्रांति ला दी. भारत में भी ऐसे कई उदाहरण हैं.

राम माधव लिखते हैं कि वैश्विक स्तर पर राजनीति ऐसा क्षेत्र है जहां युवा आगे बढ़ने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. दुनिया की आधी आबादी 30 साल से कम उमर की है. भारत में यह संख्या 60 फीसदी है. भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में भी राज्य विधानसभाओं और संसद के लिए निर्वाचित प्रतिनिधियों की औसत आयु निराशाजनक बनी हुई है.

पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ग्रुप के विश्लेषण के अनुसार 18वीं लोकसभा के नव-निर्वाचित सदस्यों की औसत आयु 56 साल है. 17वीं लोकसभा में यह 59 साल थी. पीआरएस ने निष्कर्ष निकाला कि केवल 11% सांसद 40 साल से कम आयु के हैं. लगभग आधे सांसद 55 वर्ष से अधिक आयु के हैं. लेखक का मानना है कि राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद की प्रथा स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान शुरू हुई थी जब मोती लाल नेहरू पर अपने बेटे को बढ़ावा देने के लिए कांग्रेस नेतृत्व को प्रभावित करने का आरोप लगा. नेहरू 40 साल की उम्र में कांग्रेस के अध्यक्ष बने. स्वतंत्रता के बाद भी यह परंपरा जारी रही.

इंदिरा गांधी भी 40 साल की उम्र में कांग्रेस अध्यक्ष बनीं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर इस विडंबना को उजागर किया और कहा कि परिवारवाद और जातिवाद को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा. उन्होंने घोषणा की कि हमारा मिशन नेताओं की एक नई पीढ़ी को सशक्त बनाना है.

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फौजीलैंड में हैरतअंगेज आरोप

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में एक लेख के जरिए एक ऐसी कहानी सामने रखी है जो हैरतअंगेज है. पाकिस्तान में यूट्यूबर, द एक्सप्रेस ट्रिब्यून जैसे अखबार, पाकिस्तानका सूचना और प्रासरण मंत्रालय और यहां तक कि खुद मंत्री ने भी कहा है कि लेखक करन थापर पाकिस्तान विरोधी हैं, नरेंद्र मोदी सरकार का करीबी हैं और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के साथ लेखक की मिलीभगत है. यह निश्चित रूप से उन आलोचकों के लिए आश्चर्य की बात होगी जिन्होंने दशकों से लेखक पर पाकिस्तान के प्रति पक्षपात करने का आरोप लगाया है. दरअसल कुछ हफ्ते पहले पाकिस्तानी अधिकारियों ने इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ के सूचना सचिव और प्रवक्ता रऊफ हसन को गिरफ्तार किया. उन पर देशद्रोह का आरोप लगाने और उन्हें जेल में बंद करने के इरादे से उनके फोन, ईमेल और व्हाट्सएप मैसेज का एक्सेस किया. उनमें कुछ संदेश मिले जो नवंबर 2022 तक लेखक के साथ साझा किए गये थे. बस यह तय कर लिया कि भारत में लोगों से बात की जा रही है! इमरान के साथ किए जा रहे सलूक की चर्चा हो रही है, टिप्पणियां हो रही हैं, पाकिस्तान की राजनीति और यहां तक कि सेना प्रमुख पर भी चर्चा की जा रही है! यह निश्चित रूप से पाकिस्तान विरोधी है!

करन थापर लिखते हैं कि बेनजीर भुट्टों उनकी मित्र थीं, नवाज शरीफ से वे 2014 में आखिरी बार मिले और शहबाज शरीफ से भी पाकिस्तान उच्चायुक्त में मुलाकात हुई थी जब वे मुख्यमंत्री थे. लेकिन इन सबका जिक्र नहीं होगा क्योंकि इससे राऊफ के खिलाफ वे मामले ध्वस्त हो जाएंगे जो वे बनाना चाहते हैं. एक आधिकारिक बयान में पाकिस्तान के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने दावा किया, "भारतीय पत्रकार करन थापर को राऊफ हसन के लापरवाह संदेश बहुत चिंताजनक हैं. रक्षा विश्लेषकों का कहना है कि यह संदेश वास्तव में करन थापर का समर्थन करने वाले रॉ अधिकारियों के लिए सूचना की एक बहुमूल्य संपत्ति थी. उन्होंने कहा कि इन संदेशों के माध्यम से पीटीआई के प्रवक्ता ने पाकिस्तान विरोधी प्रचार को हवा देने के लिए देश की संवेदनशील जानकारी एक भारतीय को दी" लेखक बताते हैं कि सच्चाई यह है कि व्हाट्सएप पर औपचारिक आदान-प्रदान, एक-दो साक्षात्कार और शायद इसे व्यवस्थित करने के लिए कुछ बातचीत से इतर वे राऊफ को नहीं जानते. और, वह भी उन्हें नहीं जानता. वास्तव में अगर इमरान खान पर मेरे साथ साठगांठ का आरोप लगाया होता तो वह बेहतर मामला हो सकता था. इमरान खान के साथ कई साक्षात्कार लेखक दिल्ली, लंदन में कर चुके हैं.

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संघ के व्याकरण में हिमंता को महारत हासिल

प्रभु चावला ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि आम जनता के लिए अगर धर्म अफीम है तो लोकप्रियता हासिल करने वाले लोगों के लिए यह कोकीन है. राजनीतिक रूप से तुच्छ व्यक्ति को भी यह स्थापित कर देता है. असम के 15वें मुख्यमंत्री 55 वर्षीय हिमंता बिस्वा शर्मा हिन्दुत्व के नये सुपर स्टार हैं. उनकी जड़ें कांग्रेस में रही हैं. वे एक दशक से ज्यादा समय तक धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार रहे. लेकिन उन्हें राष्ट्रीय पहचान बीजेपी में आकर मिली. शर्मा अपनी सरकार के रिकॉर्ड से ज्यादा मंदिरों, मुसलमानों, मौलवियों और मदरसों के बारे में बोलते हैं. 'मामा' के तौर पर शर्मा का भगवा अवतार उन्हें पूर्वोत्तर का बेताज बादशाह बनाता है. हाल ही में मुख्यमंत्री ने असम मुस्लिम विवाह और तलाक पंजीकरण अधिनियम 1935 को निरस्त करने और बदलने के लिए अत्यधिक विवादास्पद असम निरसन विधेयक और मुस्लिम विवाह और तलाक पंजीकरण विधेयक 2024 को विधानसभा में पारित कराया है. नए कानूनों के माध्यम से हिमंत बिस्वा शर्मा यूसीसी का खाका पेश करने का प्रयास करते दिख रहे हैं.

प्रभु चावला ध्यान दिलाते हैं कि बीते हफ्ते विधानसभा में अल्पसंख्यकों के बारे में टिप्पणी करते हुए हिमंत बिस्वा शर्मा ने कहा, "मैं पक्ष लूंगा. आप क्या कर सकते हैं? हम मियां मुसलमानों को असम पर कब्जा करने नहीं देंगे." राज्य की डेमोग्राफी का जिक्र करते हुए शर्मा ने दावा किया, "डेमोग्राफी में बदलाव मेरे लिए बड़ा मुद्दा है. असम में मुस्लिम आबादी आज 40% तक पहुंच गयी है. 1951 में यह 12% थी. हमने कई जिले खो दिए हैं."

असम कांग्रेस अध्यक्ष भूपेन कुमार बोरा के हवाले से लेखक बताते हैं कि असम में 18 विपक्षी दलों ने मिलकर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है. वे राष्ट्रपति को भी इस बाबत अवगत कराने वाले हैं. कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश के बयान को लेखक ने उद्धृत किया, "असम के सीएम ने जो कहा वह अस्वीकार्य और निंदनीय है. बीमार दिमाग और कट्टरपंथ का जहरीला मिश्रण है." शर्मा ने पलटवार किया, "(विपक्ष को) अल्पसंख्यक वोटों के लिए प्रतिस्पर्धा करने दें. मैं प्रतिस्पर्धा में नहीं हूं." मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा शर्मा ने पिछले साल भी मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि पर सवाल उठाया था. उन्होंने दावा कि या ता कि 2041 तक असम मुस्लिम बहुल राज्य बन जाएगा. इस साल जनवरी में शर्मा ने सरकारी मदरसों को बंद करने की घोषणा की. हिमंत बिस्वा शर्मा ने आरएसएस परिवार की राष्ट्रवाद की भाषा के व्याकरण और छंद में महारत हासिल कर ली है. अमित शाह के अध्यक्ष रहते हिमंत बिस्वा शर्मा बीजेपी में शामिल हुए थे. उन्होंने अपने गुरु के सामने अपनी क्षमता साबित कर दिखलायी है.

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