राममंदिर पर राजनीति में फंसा विपक्ष
राजदीप सरदेसाई ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि 1992 से 2024 के बीच भारतीय राजनीति ने लंबी दूरी तय कर ली है. 1992 में शिवसेना बीजेपी की कट्टर सहयोगी थी. अब वह महा विकास अघाड़ी गठबंधन का हिस्सा है, जिसमें कांग्रेस भी शामिल है. शिवसेना ने लगातार उस रुख को दोहराया जब शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने बाबरी विध्वंस का श्रेय लिया था- “हमारे लड़कों ने यह किया.” वहीं तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों की राजनीतिक दुविधा का फायदा उनके विरोधियों को मिला.
सरदेसाई ने लिखा है कि सैम पित्रोदा ने पिछले महीने प्रासंगिक सवाल ठाया था-“क्या राम मंदिर असली मुद्दा है या यह बेरोजगारी या मुद्रास्फीति है?” मगर, कांग्रेस ने निजी बयान कहकर इससे दूरी बना ली. प्राण प्रतिष्ठा समारोह में निमंत्रण यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि यह BJP-RSS का कार्यक्रम है. कांग्रेस उस दौर से गुजर रही है जब उसे प्रतिक्रिया देते वक्त इस बात का डर लगा रहता है कि कहीं उन्हें मुस्लिम समर्थक या हिन्दू विरोधी न करार दिया जाए.
1980 के दशक को भी बारंबार याद दिलाया जाता है जब राजीव गांधी अयोध्या में दरवाजे खुलवाए थे और विवादित स्थल पर शिलान्यास की अनुमति दी थी. वहीं शाहबानो प्रकरण और सलमान रुश्दी की द सैटेनिक वर्सेज पर प्रतिबंध लगाने जैसे चर्चित फैसले भी लिए जिसका खामियाजा बाद के दिनों में कांग्रेस को भुगतना पड़ा है.
नरसिंहाराव की सरकार में बाबरी विध्वंस और समाजवादी सरकार में मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री रहते कारसेवकों पर गोली चलाने की घटना का भी बारंबार जिक्र हुआ है. धर्मनिरपेक्ष मंडल योद्धाओं को संवैधानिक मूल्यों के प्रति अपने असैद्धांतिक दृष्टिकोण के कारण विश्वसनीयता का संकट झेलना पड़ा है. मुजफ्फरनगर दंगा रोक पाने में नाकाम रही अखिलेश सरकार भी निशाने पर रही है.
कांग्रेस ने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली
इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह ने लिखा है कि उनका शक यकीन में बदल गया है कि गांधी परिवार का जनता से नाता टूट गया है. 22 जनवरी को अयोध्या नहीं जाने के कांग्रेस के फैसले के बाद उन्हें ऐसा लगता है. वह लिखती हैं कि अयोध्यान न जाने का कारण बताया गया है कि प्राण प्रतिष्ठा समारोह कुछ और नहीं, केवल भारतीय जनता पार्टी और संघ का राजनीतिक खेल है.
इस बात को अगर मान भी लें कि नरेंद्र मोदी इस अवसर का पूरा राजनीतिक लाभ ले रहे हैं तो क्या थोड़ा सा लाभ कांग्रेस को नहीं मिलता, अगर सोनिया गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे अयोध्या चले जाते मंदिर के इस ऐतिहासिक अवसर में भाग लेने?
तवलीन सिंह ने याद दिलाया है कि अल्लामा इकबाल ने अपनी मशहूर कविता में राम को इमाम-ए-हिन्द बताया था. कविता की पंक्ति है- “है राम के वजूद पर हिन्दुओं को नाज, अहले नजर समझते हैं इसको इमाम-ए-हिंद”. पिछले दस साल के आखिर में जनता ने कांग्रेस को झटका दिया था मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हराकर. इससे सबक लेकर गांधी परिवार को जमीन पर पार्टी की पकड़ करने पर काम करना चाहिए था. लेकिन, ऐसा न कर राहुल गांधी निकल पड़े हैं तीसरी यात्रा लेकर मानो कमी संगठन में ना होकर उनकी अपनी छवि में हो.
मल्लिकार्जुन खरगे औपचारिक तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष जरूर बन गये हैं लेकिन दुनिया जानती है कि गांधी परिवार उनसे ऊपर है. ठीक वैसे ही जैसे डॉक्टर मनमोहन सिंह जानते थे कि उनकी जवाबदेही जनता के प्रति न होकर सोनिया गांधी के प्रति है.
कांग्रेस की असली समस्या है कि वह लंबे समय तक शासन के कारण दरबारी पार्टी हो चुकी है. न्याय यात्रा में बेशक राहुल गांधी की छवि चमक जाएगी, लेकिन जिन लोगों को संगठन के लिए काम करना चाहिए उनकी ऊर्जा यात्रा सफल कराने में लग जाएगी. दोष उन दरबारियों का है जो गांधी परिवार के आसपास मंडराते रहते हैं. इनमें से एक भी ऐसा होता जिसने जनता का मन समझा होता तो सलाह यही देता कि अयोध्या न जाकर पार्टी अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रही है.
बिलकिस बानो प्रकरण में आखिरकार हुआ न्याय
इंडियन एक्सप्रेस में पी चिदंबरम ने लिखा है कि बिल्किस बानो प्रकरण में कानून के प्रति विश्वास बहाल हुआ है. गुजरात में सांप्रदायिक दंगे के दौरान गर्भवती बिलकिस बानो और उनकी तीन साल की बेटी को गैंगरेप का सामना करना पड़ा था. बेटी समेत परिवार के सात सदस्यों को मौत के घाट उतार दिया गया था. इस मामले में मुंबई की अदालत ने 11 लोगों को दोषी ठहराया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. आगे चलकर सभी की रिहाई हो गयी. सुप्रीम कोर्ट ने रिहाई के तौर-तरीकों पर आपत्ति जताई. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि महिला सम्मान की हकदार है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ही इस मामले की जांच दोबारा शुरू हुई थी जबकि जांच एजेंसी ने क्लोजर रिपोर्ट दे दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 11 दोषियों को रिहा करने का अधिकार गुजरात राज्य के पास नहीं था.
पी चिदंबरम लिखते हैं कि बिलकिस बानो मामले का सबक है कि नागरिकों की गरिमा, स्वंतत्रता, गोपनीयता और मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है लेकिन कुछ निडर पुलिस अधिकारी और साहसी न्यायाधीशों की वजह से दोषियों को सजा दी जाती है. सरकार अपराधियों के साथ सांठगांठ कर सकती है और उन्हें अवांछित रूप से मदद करती है. वादी अदालतों के साथ धोखाधड़ी कर सकते हैं. न्यायाधीश गंभीर गलती कर सकता है. आखिरकार न्याय होता है. कानून का राज हावी होता है. बिलकिस बानो के शब्द, “मैं फिर से सांस ले सकती हूं” हमेशा के लिए गूंजते हैं. आसपास की निराशा और अंधेरे के बीच बाकी है आशा और प्रकाश.
चुनौती है कार्बन उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य
अरविंद सुब्रण्यम और नवनीराज शर्मा ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश भारत उहापोह के दौर से गुजर रहा है. कार्बन उत्सर्जन में कमी करने के लक्ष्य के प्रति अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता कसौटी पर है. दुबई में संपन्न 2023 के युनाइटेड नेशंस क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस में फॉसिल फ्यूल से मुक्ति के लिए चरणबद्ध तरीकों के लिए हामी भरी गयी है. मगर, वास्तव में इस पर अमल करना कठिन चुनौती बन चुका है.
भारत ने पेट्रोलिमय से जुड़े उत्पादों पर टैक्स की ऐसी प्रणाली अपनायी है जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमत बढ़ने पर कीमत नियंत्रित रखी जाती है और जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कीमत घट जाती है तो घरेलू बाज़ार में पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ा दिए जाते हैं. यूरोप की सरकारों ने रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद ऊर्जा मद में 712 अरब डॉलर की सब्सिडी सितंबर 2021 और जनवरी 2023 के दौरान दी है. भारत में बिजली का वितरण भारी सब्सिडी देते हुए किया जा रहा है. किसानों को बिजली के उत्पादन लागत के बराबर या उससे भी कम दाम पर बिजली मिल रही है.
भारत जितना कार्बन उत्सर्जन करता है उसका 34 प्रतिशत बिजली से होता है. बिजली की दर में सुधार कर कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है. आजादी के बाद से ही हर प्रदेश में सस्ती बिजली दी जाती रही है. यह भारतीय राजनीति का स्वभाव बन चुका है. ऐसे में भारत बिजली उत्पादन के तरीकों को बदल कर कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण कर सकता है. रिन्यूएबल एनर्जी और स्टोरेज को सस्ता बनाकर आर्थिक स्थिति भी संभाली जा सकती है. संरक्षणवादी स्वभाव के बावजूद जो बाइडेन की इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट जैसी औद्योगिक नीतियां भारत जैसे विकासशील देश भी अपना सकते हैं.
नवाचार के लिए याद रहेंगे समाजवादी मधु दंडवते
रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में भारतीय समाजवादी परंपरा को मरणासन्न बताते हुए मधु दंडवते के योगदान की याद दिलाई है. किसी समय राजनीति और समाज पर समाजवादी परंपरा का गहरा प्रभाव था. कांग्रेस, कम्युनिस्ट, क्षेत्रीय पार्टियां, अंबेडकरावीद और जनसंघ-भाजपा के पास अपने-अपने इतिहासकार हैं लेकिन समाजवादियों के पास नहीं. भारतीय समाजवादियों के साथ अधिकांश भारतीय इतिहासकारों ने दुर्व्यवहार किया है. 21 जनवरी 1924 को जन्मे मधु दंडवते की जन्मशती है दो छात्र जीवन में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के आदर्शोँ और उसके करिश्माई नेताओं जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और यूसुफ मेहरअली से प्रभावित थे.
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने सीपीआई से दूरी बनाई जो सोवियत संघ की डोर से बंधी ही थी. भारत छोड़ो आंदोलन का समाजवादियों ने समर्थन किया तो कम्यिनिस्टों ने विरोध. कम्युनिस्ट स्टालिन-रूस की पूजा करते थे जबकि समाजवादी उन्हें तानाशाह मानते थे. हिंसा पर कम्युनिस्टों की राय से समाजवादियों की राय बिल्कुल अलग थी. कम्युनिस्ट आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के केंद्रीकरण मेंविश्वास करते थे जबकि समाजवादी विकेंद्रीकरण में. समाजवादी महात्मा गांधी से प्रेरित थे.
जनता पार्टी की सरकार में मधु दंडवते रेल मंत्री बने. उन्होने रेलवे यूनियनों के बीच विश्वास को बहाल किया. कंप्यूटरीकरण शुरू किया. सेकेंड क्लास को उन्नत बनाया. कठोर लकड़ी के तख्त पर नरम फोम टॉपिंग के रूप में नवाचार किया. ऐसी पहली ट्रेन 26 दिसंबर 1977 को बाम्बे और कलक्ता के बीच चली. गीतांजलि एक्सप्रेस नाम देकर गुरु रविंद्रनाथ टैगोर को याद किया गया. मधु दंडवते ने वित्तमंत्री के रूप में भी काम किया. उन्होंने पर्यावरण की चुनौती को सबसे पहले समझा. देश को बताया कि 139 मिलियन हेक्टेयर भूमि का नुकसान अपरदन, लवणता, पौधों में कमी आदि कारणों से हो चुका है. लेखक को उम्मीद है कि मधु दंडवते-प्रमिला दंडवते पर रिसर्च के बाद अच्छी पुस्तक आएगी.
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