संविधान की जय हो
तवलीन सिंह ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखती हैं कि उन्हें शायद पहली बार संविधान की अहमियत समझ में आयी है. ऐसा नागरिकता कानून को लेकर देश भर में हो रहे विरोध प्रदर्शन की वजह से हुआ है. मुंबई में वकीलों ने संविधान की प्रस्तावना पढ़ी, महाराष्ट्र सरकार ने स्कूलों में इसे पढ़ना अनिवार्य कर दिया, शाहीन बाग में औरतें इसी संविधान के नाम पर सड़क पर हैं, असुदद्दीन ओवैसी जैसे कट्टरपंथी राजनेता ने भी हैदराबाद में हजारों लोगों से संविधान की प्रस्तावना पढ़वाया. तवलीन लिखती हैं कि शाहीन बाग जाकर उन्होंने महसूस किया कि वहां जिस बात से आजादी के नारे लग रहे हैं वह उससे अलग हैं जो बीजेपी के प्रवक्ता और नेता बोल रहे हैं. मुस्लिम महिलाएं आंदोलन का मतलब भी बेहतर समझती हैं.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि यह संविधान ऐसे समय में बना था जब दलित अपना साया भी ब्राह्मणों पर पड़ने नहीं दिया करते थे, हिन्दू-मुस्लिम झगड़ा एक-दूसरे को लहुलूहान कर रहा था. वैसे समय में हर नागरिक को वोट करने का अधिकार देना मामूली बात नहीं थी. लोकतंत्र खत्म होने को लेकर आशंकाएं लगातार जारी रहीं. पाकिस्तान के फौजी शासन का हवाला दिया जाता था क्योंकि पाकिस्तान ने भारत से अधिक तरक्की कर ली थी.
फिर भी भारत में लोकतंत्र जिन्दा रहा. इमर्जेंसी भी अधिक दिनों तक नहीं थोपी जा सकी. गणतंत्र के 70 साल बाद भी आंदोलनकारियों को संविधान पर भरोसा है और उनके हौसले बुलन्द हैं कि जीत उन्हीं की होगी.
21वीं सदी, मुस्लिम विरोध की सदी
मेघनाद देसाई ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखते हैं कि 21वीं सदी का पांचवां हिस्सा बीत चुका है. इस समय तक 20वीं सदी में प्रथम विश्वयुद्ध हो चुका था, बोल्शेविक क्रांति और जलियांवाला बाग कांड हो चुके थे. इसके विपरीत नई सदी की शुरुआत 9/11 हमले से हुई, जिसके बाद दुनिया भर में इस्लामिक आतंकवाद से मुकाबले के लिए अंतरराष्ट्रीय राजनीति का उदय हुआ. शीत युद्ध के अंत के बाद से दुनिया मुसलमानों के विरुद्ध जंग से जूझ रही है. रूस चेचेन्या में उलझा है तो चीन उईगर में. फ्रांस लगातार आतंकी हमले झेल रहा है तो अमेरिका विश्व स्तर पर मुसलमानों से लड़ रहा है. ईरान पर हमला ताजा उदाहरण है.
मेघनाद देसाई बताते हैं कि क्यों 21वीं सदी मुस्लिम विरोधी हो गयी दिखती है. 1920 तक यूरोप में ऑटोमन साम्राज्य का पतन हुआ और दुनिया में 1200 साल का इस्लामिक प्रभुत्व खत्म हुआ. इसी दौर में ऑस्ट्रियन साम्राज्य के अंत के बाद राष्ट्रवाद का नया दौर शुरू हुआ. रूस में बोल्शेविज्म, तो जर्मनी में फासीवाद पनपा. हांगकांग चीन को सुपुर्द करने के बाद ब्रिटिश युग का भी अंत हुआ. मगर, ऑटोमन साम्राज्य को ब्रिटेन और फ्रांस ने बांटने को कोशिश की. फिलीस्तीन, सीरिया, इराक, लेबनान जैसे देश बने. तुर्की गणतंत्र बना रहा.
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इजराइल का जन्म हुआ जिसके साथ इस्लामिक देशों ने तीन युद्ध लड़े, मगर वे सफल नहीं हुए. इस बीच तेल को लेकर सुन्नी और शिया में टकराव का दौर आया. अफगानिस्तान में सोवियत सेना आयी और गयी. तालिबान का जन्म हुआ. मध्यपूर्व में मुसलमानों की सबसे ज्यादा हत्या मुसलमानों ने ही की है. यह त्रासदी अभी खत्म होती नहीं दिख रही.
मोदी सरकार को अर्थव्यवस्था की चिंता नहीं
पी चिदंबरम ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखा है कि 2016-17 विध्वंसकारी नोटबंदी का साल था, तो 2017-18 खामियों से भरा जीएसटी का साल. 2018-19 मंदी का वर्ष रहा जिसमें हर तिमाही में विकास दर गिरती चली गयी तो 2019-20 निरर्थक साल रहा जब चेतावनियां नजरअंदाज की जाती रहीं और विकास में वृद्धि दर 5 फीसदी से भी नीचे चली गयी. सारे मानदंडों पर अर्थव्यवस्था इस कदर पिछड़ चुकी है कि पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ अरविंद सुब्रमण्यन बता रहे हैं कि अर्थव्यवस्था आईसीयू में है और नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के अनुसार अर्थव्यवस्था का ‘बहुत ही बुरा हाल’ है.
चिदम्बरम लिखते हैं कि सरकार ने अप्रत्यक्ष करों को घटाने के बजाय कॉरपोरेट क्षेत्र को एक लाख पैंतालिस हजार करोड़ की खैरात दे डाली. गरीबों के हाथ में और पैसा देकर मांग बढ़ाने के बजाय सरकार ने मनरेगा, स्वच्छ भारत मिशन, श्वेत क्रांति और प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए बजट में कटौती कर डाली. मुश्किलें बढ़ती चली गयीं.
चिदम्बरम लिखते हैं कि भाजपा सरकार की मुख्य चिंता अर्थव्यवस्था नहीं है. वे लिखते हैं कि आम बजट से पहले शीर्ष उद्योगपतियों की बैठक में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन को शामिल नहीं करना बताता है कि मोदी सरकार कितनी हताश है. वास्तव में सरकार की असली चिन्ता हिन्दुत्व का एजेंडा है. जनता को ऐसी सरकार मिल गयी है जिसने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुताबिक अर्थव्यवस्था को ‘विश्व अर्थव्यवस्था का संकट’ बना डाला है.
भुला दिए गए भारतीय गणतंत्र के संस्थापक योद्धा
विक्रम राघवन ने ‘इकॉनोमिक टाइम्स’ में गणतंत्र के 70 साल पूरे होने पर संविधान निर्माताओं को याद करते हुए शोधपूर्ण लेख लिखा है. संविधान से जुड़े राष्ट्रीय आइकन रहे नेताओं राजेंद्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, बीआर अम्बेडकर और मौलाना आज़ाद के अलावा भी सैकड़ों प्रबुद्ध लोग जुड़े और उन्होंने इस संविधान को बहुमूल्य बनाया. गोविन्द बल्लभ पंत, अल्लादी कृष्णास्वामी और केएम मुंशी भी ऐसे ही नाम हैं जिन्हें संविधान सभा में उनके योगदान के लिए याद किया जाता है.
लिंग समानता के समर्थक हंसा मेहता का संविधान में योगदान स्मरणीय है तो युवा दलित दक्षयानी वेलायुधान को भी याद किया जाता है. जयपाल सिंह आदिवासी समुदाय की चिन्ता देश के सामने लेकर आए. दुर्गा बाई देशमुख उन 15 प्रमुख महिलाओं में हैं जिन्हें गांधीजी के करीब माना जाता था. संविधान सभा की बैठक में वह नियमित जाया करती थीं.
असम के प्रोविंशियल प्राइम मिनिस्टर रहे सैय्यद मोहम्मद सादुल्ला संविधान सभा से जुड़े रहे. सिंध में कांग्रेस नेता रहे जयराम दास दौलतराम बिहार के गवर्नर भी रहे और संविधान सभा में सक्रिय योगदान दिया. चम्पारण सत्याग्रह से जुड़े रहे शंकर रावदेव भी संविधान सभा से जुड़े रहे. अनन्त सायनम आयंगर मद्रास का प्रतिनिधित्व करते थे.
लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स के छात्र रहे केटी शाह अर्थशास्त्री के तौर पर संविधानसभा से जुड़े रहे. कलकत्ता यूनवर्सिटी में पढ़े एच सी मुखर्जी, मैसूर सिविल सेवा से जुड़े रहे एन माधव राऊ और बिहार के सत्य नारायण सिन्हा का संविधानसभा में योगदान भी अतुलनीय है. एन गोपालस्वामी आयंगर मद्रास से जुड़े नौकरशाह थे जिन्होंने संविधान निर्माण में बड़ी भूमिका निभाई. इसी तरह जगजीवन राम, जेरोम डी सूजा, बीएन राव, मृदुला साराभाई जैसे नाम भी चर्चा में रहे हैं.
सीनेट में सच का सामना कर रहे हैं ट्रंप
मौरीन डॉड ने ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में लिखा है कि कुख्यात डोनाल्ड जे ट्रम्प का ट्रायल हो रहा है. वह लिखती हैं कि रिपब्लिकन को बहुत अच्छी तरह से पता है कि वे क्या हैं. महाभियोग चला रहे डेमोक्रेट हकीम जेफ्री के इस प्रश्न का भी वह जिक्र करती हैं जिसमें वह पूछते हैं “हम लोग यहां क्यों हैं?” वह जेफ्री के इस दावे का भी जिक्र करती हैं कि डोनाल्ड ट्रम्प ने सत्ता का दुरुपयोग किया और सर्वोच्च कुर्सी को भ्रष्ट बनाया.
मौरीन लिखती हैं कि डेमोक्रैट सीनेट कह रहे हैं कि यह इतिहास में सबसे दुख भरा दिन है. वहीं रिपब्लिकन आरोप लगा रहे हैं कि ट्रम्प के खिलाफ वोट करने के लिए उन्हें धमकियां दी जा रही हैं. जान से मार डालने की धमकियां मिल रही हैं. दुनिया का ध्यान इस महाभियोग पर है. मगर, ह्वाइट हाउस डोनाल्ड ट्रम्प के साथ खड़ा है. वह ट्रम्प पर लगे आरोपों का बचाव कर रहा है. इसके बावजूद महाभियोग जारी है. डेमोक्रैट चाहते हैं कि महाभियोग के बहाने सच्चाई सामने आनी चाहिए. दुनिया को पता चलना चाहिए कि राष्ट्रपति के पद पर बैठा व्यक्ति अपने पद का किस तरह दुरुपयोग कर रहा है.
हमसे ही वोट लेते हैं और पूछते हैं आप कौन?
संकर्षण ठाकुर ने ‘टेलीग्राफ’ में सवालों के जरिए सीएए, एनआरसी और एनपीआर से जुड़ी चिन्ताओं को सामने रखा है. वे पूछना शुरू करते हैं- क्यों? है न सही? लेकिन, अगर आप सहमत नहीं हैं तो मुझे बताए क्यों? मुझे स्पष्ट करें. मुझे जानना है. कैसे आप असहमत हैं? सवालों में ही शंका, असहमति और देशविरोधी के आरोप तक को लेखक सवालों के जरिए आगे और भी स्पष्ट करते चले जाते हैं. आप क्यों नहीं देशविरोधी हैं? आप नहीं समझ सकते मैं कहां से हूं? एक दिन आप भी मानेंगे. मेरे पास भी कहने को कुछ होगा. कौन सा देश? कौन से लोग? हमारे बारे में आप क्या जानते हैं? हम कहां रहते हैं? हम कहां से आए हैं? क्या हम यही पूछ सकते हैं?
सवाल पर भी प्रश्न उठाते हैं लेखक. आप सवाल करने वाले हैं कौन? आप पूछने वाले होते कौन हैं? आप कहां से आए हैं? आप कहां से हैं? किस देश से? कौन लोग हैं? किस समझौते से बंधे हैं? आप समझौता करना चाहते हैं? लाइसेंस चाहिए? आपको किसने अधिकृत किया?
लेखक ने जनता की ताकत का भी अहसास कराया है. हम जनता हैं. हमने आपको चुना है. हमें चुनौती नहीं दी जा सकती. आपको चुनौती दी जा सकती है. आपको हटाया जा सकता है. हर पांच साल बाद. हर कुछ सालों के बाद. आप हमारे बारे में क्या जान लेंगे? कि हम कौन हैं? अपने बारे में कि आप कौन हैं? क्या आप बताएंगे कि आप कौन हैं? नहीं, पहले आप बताएं. कृपया बताएं. हम भी जानें कि आप कौन हैं. आप हैं कौन जो पूछ रहे हैं. किसने यह अधिकार दिया? किसने हमसे अधिकार छीना? आप हमसे हमारा वोट लेते हैं और आप मुझसे ही पूछते हैं कि हम कौन हैं?
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)