कठोर फैसले से क्यों बच रही है सरकार?
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, प्रभावित देशों से भारतीयों को लाने और हाथ धोने, मुंह-नाक ढककर रखने और मास्क पहनने के परामर्श जारी करने भर से काम नहीं चलेगा. तेजी से बढ़ रहा कोरोना का संक्रमण खतरनाक है. लेखक ने जानना चाहा है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की चेतावनियों के बावजूद सरकार कठोर और अलोकप्रिय कदम उठाने को तैयार क्यों नहीं हो रही है? चिदंबरम ने सभी शहरों और कस्बों को दो से चार हफ्ते तक के लिए अस्थायी रूप से लॉक डाउन करने का आग्रह किया है.
चिदंबरम ध्यान दिलाते हैं कि अर्थव्यवस्था में गिरावट पिछली 7 तिमाहियों से जारी है और इसलिए प्रधानमंत्री का यह कहना कि कोविड-19 की वजह से अर्थव्यवस्था में गिरावट आई है, सही नहीं है. आसन्न संकट की चर्चा करते हुए वह लिखते हैं कि रोजगार और वेतन-मजदूरी को बचाना जरूरी है, नियोक्ताओं की भरपाई की जानी चाहिए.
उन्हें उधार, ब्याज रोकने या अनुदान देने जैसी भी पहल होनी जरूरी है. कम ब्याज दर, कर उधारी और खरीदारी बढ़ाकर ऐसा किया जा सकता है. लेखक कृषि के क्षेत्र में पीएम-किसान योजना के तहत प्रति परिवार 12 हजार रुपये हस्तांतरित करने की वकालत करते हैं. वह बंटाईदारों को फायदा पहुंचाने को जरूरी बताते हैं. इन सबसे अहम, लेखक का कहना है कि फिजूलखर्ची और भव्य आयोजनों पर रोक लगाई जानी चाहिए. केंद्र और राज्य सरकारों के कुल अनुमानित खर्च 40 से 45 लाख करोड़ हैं. उनमें से 5 लाख करोड़ की कटौती करते हुए इसका इस्तेमाल कोविड-19 से लड़ने में होना चाहिए.
लोकतंत्र को 3 तगड़ी चोट
रामचंद्र गुहा ने हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा है कि पिछले कुछ हफ्ते में भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक नहीं तो कम से कम खतरनाक जरूर रहे हैं. इसकी क्षमता और विश्वसनीयता में गिरावट आई है. लेखक ने तीन उदाहरण दिए हैं- दिल्ली पुलिस का व्यवहार, मध्य प्रदेश में विधायकों की 'खरीद फरोख्त' और भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई का राज्यसभा में पहुंचना.
गुहा ने लिखा है कि सरकारें जैसा चाहती रही हैं, पुलिस वैसा ही व्यवहार करती आई है. अगर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन गृह मंत्री नरसिम्हा राव सख्त होते तो दिल्ली में सिख विरोधी दंगे रुक सकते थे. वह ज्योति बसु का उदाहरण देकर इस कथन को पुष्ट करते हैं जिन्होंने कोलकाता में सिखों की सुरक्षा सुनिश्चित की थी.
हाल ही में दिल्ली पुलिस देखती रह गई और खुलेआम बीजेपी के नेता मुसलमानों पर आक्रमण के लिए उकसाते रहे. वह लिखते हैं कि दिल्ली पुलिस की क्रूरता की कहानी जो वीडियों में आई है उसे जल्द मिटाया नहीं जा सकेगा. लेखक ने बताया है कि जब देश कोरोना से लड़ रहा था, मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार को गिराने की कोशिशें चल रही थीं. समूह में विधायकों का इस्तीफा और सरकार गिराना राजनीति में नई गिरावट का सूचक है. पूर्व मुख्य न्यायाधीश के राज्यसभा में मनोनयन को लेखक ने अन्य जस्टिस के हवाले से न्यायापालिका के स्तर में गिरावट बताया है. लेखक का कहना है कि हमारा लोकतंत्र कभी बहुत सही नहीं रहा. इस पर हमेशा से आंच आई है. कभी कांग्रेस ने लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाया, तो आज मोदी-शाह के शासन में ऐसा हो रहा है.
हुर्रा! कोरोना के बाद हार जाएंगे ट्रंप
एसए अय्यर ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि कोरोनावायरस के कारण अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा जीतकर राष्ट्रपति बनने की संभावना खत्म हो जाएगी. वह कोरोनावायरस से तो बच सकते हैं लेकिन इस वजह से राजनीतिक मौत को टाल नहीं पाएंगे. अय्यर लिखते हैं कि चुनाव में 7 महीने बाकी हैं और जब तक कोरोना संकट खत्म होगा तब तक चुनाव का वक्त आ चुका होगा. लेखक का मानना है कि इस बात से कतई फर्क नहीं पड़ेगा कि कोरोना संकट से किस तरह ट्रंप सरकार निपटी है, डोनाल्ड ट्रंप की हार निश्चित है. लेखक ने अपने तर्क के समर्थन में जॉर्ज बुश की हार की याद दिलाई है. तब 2005 में हरीकेन कैटरीना के बाद उनकी हार हुई थी.
लेखक का कहना है कि संकट के समय अश्वेत लोगों के साथ जो बर्ताव निचले स्तर पर अधिकारी करते हैं वह बहुत बुरा होता है. आर्थिक गतिविधियों के ठप हो जाने का असर भी सबसे ज्यादा इसी वर्ग पर पड़ता है.
बार, रेस्टोरेन्ट, थियेटर, सिनेमा हॉल, चर्च, स्पोर्ट्स जैसी तमाम गतिविधियां बंद हैं. अमेरिका की जीडीपी दर में गिरावट का अनुमान लगाया जा रहा है. आर्थिक स्थिति में सुधार की गति बहुत धीमी रहने वाली है ऐसे में आम लोगों का संकट और बढ़ेगा और डोनाल्ड ट्रंप को वोट गंवाने पड़ेंगे. अय्यर लिखते हैं कि हर अमेरिकी वयस्क को हजार डॉलर देने की पेशकश और आगे भी इसे दोहराने के बावजूद थियेटरों और मॉल्स में भीड़ बढ़ने वाली नहीं है. कोरोना के बाद लेखक इसे एक अच्छी खबर के तौर पर बताते हैं कि हुर्रा डोनाल्ड ट्रंप हार जाएंगे.
कोरोना अब तक की सबसे बड़ी चुनौती
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि वह खुद भी न्यूयॉर्क से लौटी हैं और कोरोना की आशंका में क्वॉरन्टीन हैं. इस दौरान यह देखकर उन्हें अच्छा लगा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद कोरोना से लड़ने की रणनीति को अपने हाथों में लिया है. उन्होंने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की भी सराहना की है. हालांकि लेखिका को चिंता है कि पहले से अर्थव्यवस्था की बुरी स्थिति झेल रहे भारत का आगे क्या होगा. वह लिखती हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के सामने जो चुनौती आज पेश हुई है वैसी कभी नहीं थी
तवलीन आशंका जताती हैं कि अगर अमेरिका और यूरोप की तरह वायरस फैलता है तो हमारे देश की बीमार स्वास्थ्य सेवाएं क्या इसे झेल सकेंगी?
वह सुझाती हैं कि राज्यों के स्वास्थ्य मंत्रियों को दिल्ली बुलाकर अस्पतालों में सुधार के बाबत बात करना फौरी कदम होना चाहिए. लेखिका भारत में क्वॉरन्टीन विदेशी यात्री के उस वीडियो की चर्चा करती हैं जिसमें क्वॉरन्टीन स्थल पर गंदगी दिखाई गई है. इसके जवाब में ट्रोल सेना ने उसे खूब सुनाया है. लेखिका का कहना है कि यह वाजिब सवाल है कि वायरस से लड़ाई के लिए गंदगी से लड़ाई नहीं होगी तो नतीजे कैसे मिलेंगे. वह दुआ करती हैं कि जिस जोश से स्वच्छता अभियान शुरू किया गया था, उसी जोश के साथ अस्पतालों में गंदगी मिटाने का भी अभियान शुरू और सफल हो.
टैगोर की कविता और गांधी की जरूरत
टेलीग्राफ में गोपाल कृष्ण गांधी ने रविन्द्र नाथ टैगोर की लिखी कविता की पंक्तियों से आजादी की लड़ाई के दौरान महत्वपूर्ण घटनाओं को जोड़ा है. वह लिखते हैं
जब दल कठोर और रूखा हो जाए, दया वृष्टि के साथ मेरे साथ आएं.
जब जीवन से दया भाव खत्म हो जाए, मेरे साथ आएं, गीत गाएं.
लेखक ने बताया है कि गांधी ने अपने तरीके से इस गीत को अपनाया. 1905 में टैगोर के गीत ‘एकला चलो’ से वह हमेशा प्रेरित रहे. 1932 में कम्युनल अवॉर्ड आने के बाद निराश गांधी ने पानी रहित अनशन शुरू किया तो गांधी और अंबेडकर पास आए. दया की बारिश हुई और पूना समझौता हुआ. यह भी टैगोर की कविता का ही असर था.
गोपाल कृष्ण गांधी लिखते हैं कि 15 साल बाद 1947 में जब हिंदुस्तान विभाजित हुआ और देश साम्प्रदायिकता की आग में जलने लगा तब गांधी कलकत्ता (अब कोलकाता) पहुंचे. एक मुसलमान के घर में ठहरे और उपवास शुरू किया. जल्द ही एक समझौते पर पहुंचा गया. दोनों पक्षों ने कलकत्ता में शांति का भरोसा गांधीजी को दिया. एचएस सोहरावर्दी के हाथों जूस पीकर उन्होंने अनशन तोड़ा और सोहरावर्दी उनके पैरों पर गिरकर रोने लगे. यहां भी रविन्द्र नाथ टैगोर की लिखी कविता दया की बारिश करा रही थी. आज एक बार फिर भारत में उसी संगीत की जरूरत है जो कठोर दिलों को द्रवित करे.
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