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संडे व्यू: देश में एक और वायरस, गोदाम भरे हैं फिर लोग क्यों भूखे

संडे व्यू: अलग-अलग अखबारों में छपे लेख एक साथ

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भारत
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एक और वायरस से संक्रमित है देश

करण थापर ने हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा है कि वे कहते हैं कि संकट की घड़ी हमारे सर्वश्रेष्ठ को सामने ला देती है. अफसोस कि इसका उल्टा भी होता है. मतलब यह कि संकट के दौरान हमारी बुराई भी उजागर हो जा सकती है.

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लेखक संकट की घड़ी में देश में पनपी मुसलमान विरोधी भावना को लेकर निराश और हताश हैं. मुस्लिम वेंडरों को निशाना बनाया जाना, मुस्लिम मरीजों से बुरा व्यवहार और यहां तक कि खाड़ी के देशों में भी मुसलमानों के लिए गलत बातें कहा जाना गलत है. देश के मुसलमानों ने अपने लिए नफरत को महसूस किया है. लेखक बताते हैं कि नफरत फैलाने वाले लोगों में कई ताकतवर हैं, अमीर हैं और कई ऐसे हैं जिनकी प्रशंसा खुद लेखक करते रहे हैं. जाति, वर्ग, धर्म और भाषा का भेद ऐसे लोगों में नहीं है. इन लोगों ने नफरत के इस वायरस से खुद को संक्रमित होने दिया है.

करण थापर मीडिया पर नफरत को हवा देने का आरोप लगाते हैं. उसे गैर जिम्मेदार बताते हैं. मगर, मूल रूप से वह सरकार को ही जिम्मेदार ठहराते हैं जिसकी वजह से देश को ये दिन देखने पड़े हैं. लेखक उन डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्यकर्मियों पर हमले का भी उदाहरण रखते हैं जो लोगों की जान बचा रहे हैं. वह कहते हैं कि दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जहां प्राणरक्षकों पर ही हमले हुए हों. मगर, लोगों में इसकी वजह खुद को संक्रमित किए जाने की आशंका रही है. सरकार ऐसे समय पर प्रभावशाली तरीके से काम करने के बजाए केवल सवाल उठाती रही. मुस्लिम विरोधी भावना से लड़ने के लिए सरकार ने कोई कोशिश नहीं दिखाई. हफ्तों से महीनों से सरकार इसी राह पर चलती रही. इसका जवाब भी जरूरी है.

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बेजुबानों को आवाज देना ही पत्रकारिता

तवलीन सिंह इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि पत्रकार का फर्ज होता है उन लोगों की आवाज उठाना जो बेजुबान होते हैं. यह पत्रकारिता ही थी जिसने दहेज से प्रताड़ना की शिकार महिलाओं के किस्से उजागर करते हुए इसके विरुद्ध कानून बनवाया, बलात्कार पर कठोर कानून बनवाने को विवश किया. लेकिन, लेखिका महसूस करती हैं कि कोरोना संक्रमण काल में बहुत कम पत्रकारों ने अपना फर्ज निभाया. सड़क पर घर के लिए निकले प्रवासी मजदूरों की कहानी दिखाने के लिए लेखिका बरखा दत्त की सराहना करती हैं. उनका मानना है कि बरखा के कारण ही टीवी चैनल मजदूरों की पीड़ा बताने को विवश हुए.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि कोरोना संक्रमण की रिपोर्टिंग आंकड़ों में सिमट कर रह गई है. इन रिपोर्टों से इंसानियत गायब हो गई है. वह रोमानिया की एक रिपोर्ट का जिक्र करती हैं जिसमें एक मां अपनी संतान को पहली बार गोद में तब लेती है जब वह 3 हफ्तों का हो चुका था. वह लिखती हैं कि पत्रकारों ने देश के सबसे गरीब तबके की कहानियों को अनदेखा किया है. इसी वजह से शासक भी इसकी अनदेखी कर रहे हैं. वह पूछती हैं कि कहां हैं वे सांसद और विधायक जो इन गरीबों के वोटों से चुनाव जीतते हैं?

गोदाम भरे पड़े हैं फिर लोग क्यों भूखे हैं?

टाइम्स ऑफ इंडिया में हरदीप सिंह लिखते हैं कि देश में सरप्लस अनाज को जरूरतमंद लोगों के बीच मुफ्त में बांटने का ऐसा अवसर फिर कभी नहीं आएगा. 75 मिलियन टन अनाज गोदामों में पड़ा है, मगर अप्रैल महीने में सिर्फ 1 मिलियन टन अनाज बांटा गया है. लेखक ब्रिटिश राज में बंगाल में पड़े अकाल की याद दिलाते हैं. वह पूछते हैं कि आज तो हम आजाद हैं. फिर भूख और जरूरत के वक्त अनाज गोदामों में क्यों पड़ा है? लेखक का कहना है कि इस बात से डरने की जरूरत नहीं है कि गोदामों में कितना अनाज सड़ गया है. अनाज के रखरखाव पर सालाना 15 हजार करोड़ रुपये खर्च होते हैं. यह रकम भी कोरोना काल में गरीबों के काम आ सकती है.

हरदीप सिंह का सुझाव है कि अगर पीडीएस सिस्टम सही से काम नहीं कर रहा तो अनाज को जिला प्रशासन के हवाले कर दिया जाए. स्थानीय नेताओं की मदद से भी जरूरतमंद गरीबों तक अनाज पहुंचाया जा सकता है. वह निर्यात का बहाना करने वालों को आगाह करते हैं कि आज हिंदुस्तान का गेहूं इतना सस्ता नहीं है कि दुनिया इसे खरीदे. सबसे अहम बात यह है कि जब हमारे देश में लोग भूखे हैं तो हम निर्यात की क्यों सोचें.

महामारी का सबक: ताकत बढ़ाएं, कमजोरी भगाएं

हिंदुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने 54 दिन के लॉकडाउन, उसके अनुशासन, असर और संघीय व्यवस्था की खूबी-खामी का ब्योरा रखा है. सबसे बड़ी खूबी यह रही है कि विशाल आबादी, आकार, जटिलताओं, विविधताओं के बावजूद संकट की घड़ी में सभी राज्यों ने एकजुट होकर संघीय व्यवस्था को मजबूत बनाया है. हालांकि कई उदाहरण ऐसे रहे हैं जब जरूरी सेवाओं से जुड़े लोगों पर हमले हुए, पुलिस ने सड़क पर मजदूरों से ज्यादती की, मगर व्यापक फलक पर देखें तो स्पष्ट निर्देशों की कमी की वजह से ऐसा हुआ. सबसे अहम पहलू यह है कि अगर देश के नागरिकों का सहयोग नहीं होता तो लॉकडाउन सफल नहीं हो सकता था. प्रधानमंत्री ने शानदार संवाद कायम करते हुए चार बार देश को संबोधित किया और दो बार ‘मन की बात’ को इसी मकसद के लिए समर्पित किया.

सरकार ने फैसला लेने की ताकत दिखाई. शुरुआती दौर में कम टेस्टिंग, सामुदायिक संक्रमण से इनकार, पीपीई किट की कमी जैसी बातें जरूर हुईं, लेकिन सरकार ने वैज्ञानिक इनपुट का इस्तेमाल फैसले लेने में किया. संघीय संरचना की मजबूती भी इस संकट के दौर में दिखी. देश के कई राज्यों में मजबूत मुख्यमंत्रियों ने जनता की जरूरतों को समझा और लॉकडाउन को सफल बनाया. हालांकि, नीति और उसके क्रियान्वयन में बड़ा अंतर भी दिखा. गृह मंत्रालय को बारंबार राज्यों को लिखना पड़ा कि ट्रकों को आने-जाने दिया जाए. मगर, सबसे बड़ी असफलता प्रवासी मजदूरों की स्थिति को समझने में हुई लगती है. लॉकडाउन के कारण छोटे और मझोले उद्योगों की स्थिति को भी समझने में सरकार से चूक हुई है. यह समय है जब हम अपनी ताकत को मजबूत करें और कमजोरियों को दूर करें.

कोरोना युद्ध में कल्पनाएं ही हथियार

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में अपने लेख में 7 कल्पनाएं की हैं. पहली कल्पना है कि कोरोना वायरस को टीके के बगैर हराया जा सकता है. लॉकडाउन ही संक्रमण रोकेगा. मगर, वह कहते हैं कि ऐसा संभव नहीं है. दूसरी कल्पना है कि प्रवासी कामगार अपने शिविरों, आइसोलेशन सेंटर में रहने की स्थितियों और मिल रहे भोजन से संतुष्ट होंगे. मगर, चिदंबरम इंडियन एक्सप्रेस की 28 अप्रैल की एक रिपोर्ट का हवाला देते हैं जिनसे इस कल्पना की हवा निकल जाती है.

लेखक तीसरी कल्पना करते हैं कि प्रवासी कामगार बगैर काम धंधे के, पैसों के और परिवार को बगैर किसी मदद के खुश हैं. हालांकि वह कहते हैं कि सच यह है कि बहुत से कामगारों को सरकारों की तरफ से कोई मदद नहीं मिली है.

चौथी कल्पना है कि किसी की नौकरी नहीं गई है और काम पर लौटने तक उनकी नौकरी बनी रहेगी. सच्चाई यह है कि उत्पादन और मांग का चक्र टूट जाने के बाद एमएसएमई बकाया के बोझ तले दोबारा फैक्ट्रियों के खुलने पर संदेह बना हुआ है. वर्कफोर्स में 35.4 फीसदी कमी आ चुका है. पांचवीं कल्पना है कि एमएसएमई की मदद के लिए वित्तीय कार्य योजना लाने का वादा केंद्र सरकार पूरा करेगी. छठी कल्पना है कि बड़े उद्योग खुद को किसी तरह बचा ले जाएंगे. अगर ऐसा हुआ तब भी कम वर्कफोर्स, पूंजीगत व्यय में कटौती, वर्क फ्रॉम होम जैसी स्थितियों के बीच उद्योग सिमट जाएंगे, स्पर्धा और कम हो जाएगी. सातवीं कल्पना है कि अर्थव्यवस्था पुरजोर तरीके से वापसी कर ले. लेखक कल्पना को लेकर कैरोल को याद करते हैं- वास्तविकता के खिलाफ युद्ध में कल्पना ही एकमात्र हथियार है.

ऋषि-इरफान का जाना

मुकुल केसवान टेलीग्राफ में लिखते हैं कि दो दिन में दो कलाकार इरफान खान और ऋषि कपूर दुनिया से चले जाएंगे, किसी ने सोचा नहीं था. ऋषि कपूर के बारे में सुनकर पहली प्रतिक्रिया हुई- ‘बॉबी’. उस जमाने के लोग कभी इस फिल्म को भूल नहीं सकते. इसी तरह इरफान के गुजर जाने की खबर से ध्यान आया ‘मकबूल’. विशाल भारद्वाज की शानदार फिल्म. इस फिल्म से इरफान सदाबहार अभिनेता बन गए. नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, पंकज कपूर और तब्बू की पंक्ति में उन्हें गिना जाने लगा. बॉबी और मकबूल में 30 साल का फर्क है. बॉबी ऐसी फिल्म है जिसके जरिए उस जमाने के लोग अपनी उम्र जोड़ा करते हैं. ऋषि और इरफान वास्तव में मर्लो ब्रांडो और दिलीप कुमार जैसे कलाकार की याद दिलाते हैं.

इरफान खान ने कभी मुंबई को बॉलीवुड कहना पसंद नहीं किया. उनकी राय में इससे मुंबई की अपनी पहचान खो जाती है वो बॉलीवुड का संस्करण लगती है. फिल्मों में इरफान के पूर्वज कहलाते हैं नसीरुद्दीन शाह जो ऋषि कपूर से उम्र में थोड़े बड़े हैं. श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, सईद मिर्जा, केतन मेहता और कई अन्य प्रोड्यूसरों ने इरफान और नसीरुद्दीन को स्टारडम दिलाई है. कला फिल्मों से व्यावसायिक फिल्मों में सफलता का दौर समान रूप से दोनों कलाकारों ने देखा. इरफान ने देश और दुनिया के दर्शकों में उस दौर में जगह बनाई, जब फिल्में कई प्लैटफॉर्म पर देखी जाने लगी थीं-मल्टीप्लेक्स, टेलीविजन, स्ट्रीम्ड या ऑनडिमांड. एक इंटरव्यू में ऋषि कपूर ने अध्ययन की कमी की बात मानी थी मगर उनके लिए एक्टिंग का मतलब था स्टूडियो के फ्लोर पर ही स्पॉट इम्प्रोवाइजेशन.

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