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संडे व्यू: बंगाल ने खोई अपनी खासियत, ‘एनकाउंटर ब्रिगेड’ बेनकाब

देश के प्रमुख अखबारों के अहम आर्टिकल्स एक साथ 

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'एनकाउंटर ब्रिगेड बेनकाब

मीनल बघेल ने द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह की चिट्ठी के बाद एनकाउंटर ब्रिगेड बेनकाब हो गई है और इस बारे में आने वाले समय में और भी खुलासे होंगे. वह याद दिलाती हैं कि 1993 से 2003 के बीच अंडरवर्ल्ड की दहशत मुंबई की सड़कों पर हुआ करती थी और उसी दौरान कई एनकाउंटर स्पेशलिस्ट ने भी शोहरत कमाई. प्रदीप शर्मा, विजय सालस्कर, अरुण बोरुदे, रविंद्र आंग्रे, प्रफुल्ल भोसले, दया नायक और सचिन वझे.

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इनमें से ज्यादातर एनकाउंटर स्पेशलिस्ट किसी न किसी राजनीतिक दल से भी जुड़े रहे. कईयों ने चुनाव भी लड़े. छोटे स्तर पर एनकाउंटर करने वाले इन लोगों ने सत्ता और शोहरत का बेजा इस्तेमाल किया. “कूपर या ऊपर?”(मुंबई के अस्पताल का नाम कूपर) वाला खौफनाक दौर भी लोगों को याद है.

बघेल लिखती हैं कि एनकाउंटर ब्रिगेड में कोई ऐसा नहीं जो आय से अधिक संपत्ति, रंगदारी, हिरासत में जुल्म, बलात्कार या हत्या जैसे आरोपों में निलंबित न हुआ हो या फिर जेल न गया हो. परमबीर सिंह की चिट्ठी से पता चलता है कि देश की सेवा करने से पहले बॉस की सेवा करना अफसरों की प्राथमिकता होती है और इससे खौफनाक उदाहरण सामने आया है.

लेखिका ने 1993 में अपराधियों, नेताओं और नौकरशाहों के बीच नेक्सस पर केंद्रीय गृह सचिव एनएन वोहरा की टिप्पणी की याद दिलाई है. इकबाल मिर्ची सिगरेट बेचते हुए बॉम्बे पुलिस के संरक्षण में भारत में ड्रग का बादशाह बन गया. इकबाल मिर्ची से जुड़े सारे दस्तावेज एंटी नारकोटिक्स सेल के डीसीपी राहुल राय सुर के समय में गायब हुए, जो प्रदीप शर्मा और विजय सालस्कर के साथ मिलकर काम करते थे और जिनकी जगह 26/11 हमले में शहीद हुए हेमंत करकरे ने ली. सबूत के अभाव में इकबाल मिर्ची का प्रत्यर्पण नहीं कराया जा सका. बाद में ईडी ने अपने चार्जशीट में बताया कि वही इकबाल मिर्ची राहुल राय सुर की हत्या करना चाहता था.

नेता भगवान नहीं हो सकते

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की झूठी तारीफ करने की होड़ में नया नाम उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत का जुड़ गया है. उन्होंने नरेंद्र मोदी को भगवान बताते हुए उनकी तुलना श्री राम और श्री कृष्ण से की है. फटी जीन्स के बयान को तवज्जो मिलने से इस बयान की बहुत चर्चा नहीं हो सकी. बीजेपी में आगे बढ़ रहे लोगों में चापलूसी भरे बयान अब उनकी खासियत बन चुके हैं. नरेंद्र मोदी को ऐसी चापलूसी से दूर रहने की जरूरत है.

भारत में अमीर-गरीब और शिक्षित-अशिक्षित लोगों को समान रूप से वोट देने का अधिकार तब मिला था जब लोग राजे-रजवाड़े के साथ उन्हें भगवान मानते रहने के आदी थे. यह क्रांतिकारी कदम था. अमेरिका जैसे देशों में महिलाओं को वोट का अधिकार पाने के लिए संघर्ष करना पड़ा. इंग्लैंड में अनपढ़ लोगों को वोट का अधिकार नहीं था. इस पृष्ठभूमि में नेताओं को भगवान का दर्जा देना लोकतंत्र का अपमान करना है.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि नरेंद्र मोदी ने जितने काम किए हैं उनका जिक्र ही उनकी तारीफ के लिए काफी है. हाल के दिनों में निजीकरण के लिए उन्होंने प्रतिबद्धता दिखाई है और कहा है कि इस सोच को बदलने की जरूरत है कि आईएएस ही व्यवस्था चला सकते हैं. स्वच्छता मिशन, उज्जवला योजना की सफलता उनकी बड़ी कामयाबी है. जलशक्ति मिशन भी ऐसी ही योजना है जो असंभव लगती थी लेकिन उसे संभव कर रहे हैं नरेंद्र मोदी. ऐसे में झूठी तारीफ की नरेंद्र मोदी को आवश्यकता नहीं है.

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भारतीय राजनीति में ‘मुस्लिम पार्टी’ का उदय

टेलीग्राफ में असीम अली ने लिखा है कि असम में कांग्रेस-लेफ्ट-एआईयूडीएफ गठबंधन, पश्चिम बंगाल में कांग्रेस-लेफ्ट-आईएसएफ गठबंधन और केरल में कांग्रेस-आईयूएमएल गठबंधन के रूप में एक नई बात देखने को मिल रही है. सियासत में स्वतंत्र रूप से मुसलमान खड़े होते दिख रहे हैं. हिंदुत्व के प्रभाव वाली राजनीति के बरक्श ये चीजें देखने को मिल रही हैं.

लेखक का कहना है कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बाद से धर्मनिरपेक्ष राजनीति से जुड़ी पार्टियों से सवाल पूछे जाने लगे. मुसलमानों ने कांग्रेस से सवाल पूछना शुरू किया कि उसने सच्चर कमेटी पर कभी बहस क्यों नहीं होने दी. हिंदुत्व के प्रभाव वाली सियासत में विभिन्न सदनों में मुसलमानों की मौजूदगी लगातार कम होती चली गई. तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों ने भी टिकटों में मुसलमानों के हिस्से कम कर दिए.

मुस्लिम पार्टी के तौर पर नई जरूरत को पहचाना जाने लगा है. केरल में आईयूएमएल कांग्रेस और लेफ्ट दोनों के साथ सत्ता में रह चुकी है. यही प्रवृत्ति असम और बंगाल में भी उभरने लगी है. मुसलमानों की उपेक्षा के कारण ही यह स्थिति पैदा हुई है. इससे पहले यूपी में पीस पार्टी का जन्म भी समाजवादी पार्टी नेता मुलायम सिंह की तुष्टिकरण की सियासत के विरोध में हुआ था. पीस पार्टी ने पिछड़े मुसलमानों और दलितों को इकट्ठा किया. यही काम बंगाल में पीरजादा अब्बास सिद्दीक करते दिख रहे हैं.

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चुनाव में बंगाल ने खो दी अपनी खासियत

सज्जन कुमार ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि पहचान की जैसी सियासत पश्चिम बंगाल में हो रही है इससे पहले कभी नहीं हुई थी. बीजेपी और टीएमसी बंगाल की विशेषता को खत्म कर देने की सियासत कर रही हैं. महिष्या समेत तीन जातियों को ओबीसी की सूची में शामिल करने का वादा ताजातरीन उदाहरण है जिस बारे में ममता बनर्जी का कहना है कि बीजेपी ने टीएमसी के घोषणापत्र को चुरा लिया है.

2011 में वाममोर्चा सरकार के जाने के बाद से राज्य में नए किस्म का बदलाव शुरू हुआ. ममता बनर्जी का करिश्मा और लेफ्ट विरोधी माहौल इस बदलाव की मूल वजह थे. परस्पर विरोधी विचारों वाले नक्सली, मुख्य धारा, दलित, मुस्लिम और दूसरी तरह के पहचान से जुड़े लोग भी इस बदलाव की वजह रहे.

टीएमसी ने वर्ग आधारित राजनीति की जगह जाति और समुदाय की राजनीति शुरू की. भाषा या संस्कृति को संकीर्ण साम्प्रदायिक ढांचे में ढाला जाने लगा. अलग-अलग बोर्ड बनाकर गोरखा समुदायों को सहलाया गया. नादिया और नॉर्थ 24 परगना जिलों में नामसुद्रा दलित मतुआ महासंघ को लुभाया गया. इमाम और मुअज्जिनों को भत्ते दिए गए. कांग्रेस और लेफ्ट से अल्पसंख्यकों को दूर करने के लिए सिद्दिकुल्ला चौधरी, फुरफुरा शरीफ के पीरजादा तोहा सिद्दीकी जैसे धार्मिक लोगों को आकर्षित किया गया. ऐसे कदमों से टीएमसी ने बंगाल में बीजेपी के लिए राजनीतिक रूप से उभरने का अवसर पैदा किया.

स्पर्धा की सियासत में उलझकर ममता ने हिंदुओं को लुभाने के लिए पुजारियों के लिए भत्ता और दुर्गा पूजा पंडालों के लिए 50 हजार रुपये की घोषणा की. इस तरह लोककल्याण की प्राथमिकता खत्म हो गई. आज बंगाल में एनआरसी और सीएए का मतलब बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ खत्म करना बन चुका है. हिंदू शरणार्थी अवैध घुसपैठिए नहीं हैं. मतुआ समुदाय के साथ बीजेपी की मोहब्बत खुल्लमखुल्ला है. हिंदुत्व का नारा हिंदी भाषी लोगों और बंगाली हिंदू दोनों को लुभा रहे हैं. इन सबके बीच बंगाल ने अपनी राजनीतिक पहचान को खोया है.

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एक व्यक्ति से मिल रही है सबसे बड़े लोकतंत्र को ताकत!

वॉशिंगटन पोस्ट में कपिल कोमिरेड्डी ने लिखा है कि लोकतांत्रिक दुनिया में नरेंद्र मोदी के बराबर कोई दूसरी शख्सियत नजर नहीं आती. दुनिया के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम का नाम मोदी के नाम पर हो चुका है. चार दिन के भीतर ही देश की स्पेस एजेंसी ने मोदी की तस्वीर के साथ उपग्रह को रवाना किया. एक ही हफ्ते में मोदी का नाम धरती से लेकर सितारों की दुनिया तक पहुंच गया.

कपिल कोमिरेड्डी लिखते हैं कि मोदी की महिमा एक इंसान के गुणगान से कहीं ऊपर है. इसका मकसद हिंदू राष्ट्रवाद को शोकेस करना है. दशकों से देश में हिंदू राष्ट्रवाद पर धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र हावी रहा है. गांधी, नेहरू, टैगोर जैसे नेता राष्ट्र की पहचान रहे हैं. हिंदू राष्ट्रवादियों में गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे, उनके मेंटर वीडी सावरकर और नस्लीय श्रेष्ठता की वकालत करने वाले एमएस गोलवलकर रहे हैं. 2014 में नरेंद्र मोदी ने अपनी विचारधारा पर समावेशी आधुनिक तकनीक को वरीयता दी जिसके पीछे यही वजह है.

कपिल कोमरेड्डी लिखते हैं कि नरेंद्र मोदी को उनके समर्थक न्यू इंडिया के फादर के तौर पर स्थापित कर रहे हैं. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नरेंद्र मोदी को ‘भारत को दैवीय उपहार’ और ‘गरीबों का मसीहा’ बताया था. किरण रिजिजू ने ‘मोदी युग’ को 450 साल की गुलामी के बाद का गौरवशाली युग करार दिया था. स्वदेशी के प्रतीक चरखा से जुड़े अभियानों में महात्मा गांधी की तस्वीर की जगह अब नरेंद्र मोदी की तस्वीर है. दुनिया को बताया गया है कि कोरोना काल में पीएम केयर्स बनाकर किस तरह अरबों रुपये गरीबों के लिए इकट्ठे किए गये. कोरोना वैक्सीन के सर्टिफिकेट पर प्रधानमंत्री की तस्वीर हैं. कभी लोकतंत्र की प्रेरणा रहे देश में इन सब पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी खामोश हैं.

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