बीजेपी गिरेगी तो चमकेंगे गडकरी
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में नितिन गडकरी होने का मतलब समझाया है. उन्होंने नितिन गडकरी के व्यक्तिगत जीवन और आचार-व्यवहार से लेकर उनके नागपुर और आरएसएस कनेक्शन को सामने रखा है. इसके साथ ही ‘महाराष्ट्र में चर्चा है’ के हवाले से कहा है कि नितिन गडकरी को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने नहीं दिया गया.
इस वजह से वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से खार खाए हुए हैं. इसके बाद पी चिदंबरम ने नितिन गडकरी के हर उस बयान का जिक्र किया है, जो उन्होंने मार्च 2018 के बाद से दिए हैं और जो नरेंद्र मोदी और अमित शाह के खिलाफ हैं.
चिदंबरम लिखते हैं कि नितिन गडकरी ने जितना कहा है उतना कोई विपक्ष का नेता ही कह सकता है. फिर भी, न आरएसएस की ओर से और न ही बीजेपी की ओर से उन पर नकेल कसने की कोशिश की गयी है. इसकी वजह भी चिदंबरम ने बतायी है कि बीजेपी में गडकरी जैसे कई और भी नेता हैं और ये नेता यूपी, एमपी, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हैं, जहां बीजेपी की हालत पतली है या लोकसभा चुनाव में पतली होने वाली है.
चिदंबरम का दावा है कि इन चार राज्यों की 145 लोकसभा सीटों में बीजेपी के पास 135 सीटें हैं जिनमें से 80 सीटें पार्टी खो सकती है. चिदंबरम का दावा है कि जितना अधिक ये गिरावट होगी, गडकरी उतना अधिक चमकते जाएंगे. कुल मिलाकर लेखक ने गडकरी को बीजेपी के पतन से जोड़ा है.
आबादी के हिसाब से बंटी नहीं दिख रही हैं नौकरियां
अमर उजाला में महीपाल ने बेरोजगारी और रोजगार में जातीय हिस्सेदारी पर तथ्यात्मक और विश्लेषणात्मक आलेख लिखा है. उन्होंने लिखा है कि दुनिया में विकास का मतलब जीडीपी में कृषि का योगदान घटते जाने के रूप में सामने आया है. भारत भी उसी राह पर है, लेकिन एक मामले में फर्क है. भारत की जीडीपी में कृषि का योगदान अपेक्षाकृत ज्यादा तो है ही, रोजगार का बोझ भी कृषि पर ही ज्यादा है. इस वजह से हालात बिगड़ते चले जा रहे हैं. छिपी बेरोजगारी की ओर उन्होंने खास तौर पर ध्यान दिलाया है.
महीपाल ने लिखा है कि जितना अधिक उद्योग धंधे संगठित हुए हैं वहां असंगठित मजदूरों की संख्या उतनी अधिक बढ़ी है. इसकी वजह है सभी काम ठेकेदारों से कराए जाने की प्रवृत्ति.
लेखक ने आंकड़ों के सहारे लिखा है कि सरकारी नौकरियों में ए, बी, सी और डी वर्ग में जैसे-जैसे निचले स्तर की ओर बढ़ते हैं एससी, एसटी और ओबीसी का प्रतिनिधित्व जनसंख्या के हिसाब से बढ़ता चला जाता है. फिर भी अंतिम आंकड़ा कम जनसंख्या वाले सवर्ण वर्ग के पक्ष में होता है. इस स्थिति को उन्होंने ‘जिसकी संख्या भारी उसकी कम हिस्सेदारी’ के रूप में सामने रखा है.
गरीबी बांटेगी राहुल की योजना
इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह ने राहुल गांधी की न्यूनतम आमदनी की गारंटी योजना का मजाक उड़ाया है. उन्होंने इंदिरा गांधी की ‘गरीबी हटाओ’ नारे का जिक्र करते हुए राजीव गांधी तक इस मकसद में कांग्रेस सरकार की विफलता का जिक्र किया है. इस क्रम में लेखिका ने समाजवादी अवधारणा में भी खोट निकाली है. तवलीन सिंह ने लिखा है कि धन पैदा करने वाले जो मुट्ठीभर लोग हैं उसके लिए नफरत ही इस अवधारणा का आधार है.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि इस देश में गरीबी हटाने की दिशा में काम तब शुरू हुआ जब पीवी नरसिम्हाराव की सरकार ने आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत की.
मगर, जबसे सोनिया गांधी के हाथों में कमान आयी कांग्रेस गरीबी बांटने की पुरानी नीति पर दोबारा चल पड़ी. एक बार फिर राहुल गांधी उसी नीति का अनुसरण कर रहे हैं, जिसमें सरकार खुद धन पैदा नहीं करती, बल्कि धन पैदा करने वाले कुछेक लोगों से नफरत करते हुए उसी धन को लुटाती है. ऐसी सरकार गरीबी खत्म नहीं करती, गरीबी बांटती हैं. तवलीन सिंह ने संतोष जताया है कि यह अच्छा है कि आम चुनाव से पहले लोगों को राहुल गांधी के आर्थिक और राजनीतिक विचार का पता चल गया.
‘गेमचेंजर’ रहा बीता हफ्ता
जनसत्ता में सुधीश पचौरी ने बाखबर में बीते हफ्ते गेमचेंजर के रूप में पेश की गयी खबरों का शानदार संकलन और उन घटनाओं की मनोरंजक प्रस्तुति की है. प्रियंका को कांग्रेस की प्रभारी और यूपी की महासचिव बनाने की खबर को गेमचेंजर बताने और प्रियंका की इंदिरा से तुलना करने, यूपी में एसपी-बीएसपी या बीजेपी में से किसका गणित बिगाड़ने वाली हैं प्रियंका जैसे सवाल और उन्हें चाकलेटी बताते बीजेपी नेता का जिक्र सुर्खियां रहीं. चंदा कोचर पर एफआईआर, मंत्री द्वारा सीबीआई को चेताने, फिर तबादले भी खबर बनीं.
लेखक ने यूपी के सीएम योगी के उस बयान को भी सामने रखा है, जिसमें ‘सुप्रीम कोर्ट नहीं कर सकता तो हम 24 घंटे में मंदिर बना सकते हैं’ की घोषणा है. सुब्रह्मण्यम स्वामी तो 10 सेकेंड में राम मंदिर मसला सलटाते दिखे. इन सबके बीच नितिन गडकरी के अच्छे सपने पूरे नहीं होने पर जनता की ओर से पिटाई की बात भी सामने आयी.
उस पर शिवसेना की टिप्पणी का भी जिक्र आया. तभी सिद्धारमैया की माइक छीनने के बहाने एक महिला का दुपट्टा खींचने की घटना सामने आयी. और, फिर सामने आया राहुल का सिक्सर. गरीबों को न्यूनतम आय गारंटी. विवादित भूमि में 2.77 एकड़ छोड़कर बाकी भूमि मालिकों को लौटाने की खबर और आखिर में मंदिर बनाने की तारीख के एलान पर सप्ताह की गेमचेंजर खबरों का अंत होता है.
बढ़ती बेरोजगारी चुनाव नतीजों पर नहीं डालेंगे असर!
टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित स्वामनॉमिक्स में एसए अय्यर ने लिखा है कि रोजगार के बुरे आंकड़ों का असर चुनाव नतीजों पर नहीं होता है. इस बात को उन्होंने बेरोजगारी के ताजा आंकड़ों और उसके संदर्भ में 2014 के बाद से हुए चुनावों में बीजेपी की लगातार होती रही जीत से जोड़कर देखा है. वे लिखते हैं कि 45 साल में रोजगार की स्थिति सबसे बुरी है.
2017-18 में शहरी क्षेत्रों में 7.8 फीसदी बेरोजगारी खतरनाक स्तर पर दिखी. 2011-12 से 2017-18 के बीच 15 से 29 साल के नौजवानों में बेरोजगारी 8.1 फीसदी से बढ़कर 18.7 फीसदी हो गयी. वहीं यह युवतियों के लिए यह 13.1 फीसदी से बढ़कर 27.2 फीसदी हो गया.
लेखक ने कहना चाहा है कि अगर बेरोजगारी से चुनाव पर फर्क पड़ता तो बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए के हाथ में 21 राज्यों की सरकारें नहीं आतीं. यहां तक कि नोटबंदी के बाद भी बीजेपी ने यूपी में भारी जीत दर्ज की. जीएसटी लागू होने के बाद से भी कई राज्यों में बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा रहा. कर्नाटक में बीजेपी ने बेहतर प्रदर्शन किया. तीन राज्यों में हार के बावजूद बीजेपी के वोट शेयर नहीं घटे. यहां तक कि ताजा अनुमानों में भी बीजेपी इन राज्यों में अच्छा प्रदर्शन करने वाली है.
मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ का क्या मतलब?
द टाइम्स ऑफ इंडिया में शोभा डे ने भारत रत्न और इससे जुड़े विवादों के बीच कुछ अलग हटकर कहने की कोशिश की है. उन्होंने सवाल उठाया है कि करोड़ों की आबादी किसी एक नाम पर कैसे सहमत हो सकती है खासकर तब जब खुद इस सम्मान पर कई सवाल खड़े हों? उन्होंने सोशल मीडिया की भूमिका की भी चर्चा की है जहां इससे जुड़े विवाद पर सर्वाधिक चर्चा हुई.
शोभा डे सवाल उठाती हैं कि सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न मिल सकता है तो विराट कोहली क्यों परिपक्व होने के इंतजार में 10 साल और बिताए? उनका सवाल मरणोपरांत या फिर कोमा में जाने पर दिए जाने वाले भारत रत्न के सम्मान पर भी है. शोभा डे कहती हैं कि भारत रत्न की चमक का आनंद हस्तियां सामान्य जीवन में क्यों नहीं उठाएं.
लेखिका ने सवाल उठाया है कि 65 साल में सिर्फ 5 महिलाओं को ही भारत रत्न का अवार्ड क्यों? चुनाव के ठीक 6 महीने पहले भारत रत्न की घोषणा पर भी उनका शक जाता है. वे कहती हैं कि क्यों नहीं इसे चुनने की आजादी देश के नागरिकों को दी जाए जिनके पास बड़ी संख्या में उनके अपने हीरो अपनी हिरोइनें हैं. आखिर में वह अपने आलेख का समापन इसे चाय पर चर्चा के लिए व्यंग्यात्मक रूप में छोड़ते हुए करती हैं कि बीते दिनों में कॉफी का फ्लेवर थोड़ा फीका पड़ गया है.
किसानों की हालत में क्या हुआ है बदलाव?
द हिन्दू में आशिमा गोयल ने लिखा है कि राजस्व घाटे में स्थिरता, कर सुधार, सब्सिडी का बेहतर वितरण और पूंजीगत खर्चे में वृद्धि की वजह से ही सरकार करदाताओं और किसानों को राहत दे सकी है. वह लिखती हैं कि कि 20 से 75 हजार करोड़ रुपये किसानों और कर राहत दिए जाने के बावजूद राजस्व घाटे पर इसका कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ा, तो इसकी वजह है विशाल अर्थव्यवस्था. नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद टैक्स की दरों में कटौती हुई है. आम लोग जो पहले परेशान हो रहे थे, उन्हें अब फायदा होता दिख रहा है.
लेखिका का दावा है कि कर वसूली अब जीडीपी का 12 फीसदी हो चुकी है. हालांकि अप्रत्यक्ष कर बढ़ता नहीं दिखा है जो 5.5 फीसदी पर स्थिर है. जो रकम किसानों और कर राहत के दौर पर दी जाएगी वह जीडीपी का महज 0.4 फीसदी है. महंगाई कम होने की वजह से हालात बेहतर हुए हैं. स्थिति ऐसी है कि सरकार को उधार मिल पा रहे हैं. एक ऐसे समय में जब दुनिया में मांग कम हो रही है तो भारत घरेलू मांग को बढ़ाने की ओर बढ़ सकता है. किसानों को नकद और टैक्स में छूट से इस दिशा में आगे बढ़ने में मदद मिलेगी.
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