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संडे व्यू: राजनीतिक चंदे के प्रावधानों में पारदर्शिता कहां?

नोटबंदी: साहसिक फैसले की कमी, अब आर्थिक और प्रशासनिक सुधारों की जरूरत

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राजनीतिक चंदे के प्रावधानों में पारदर्शिता कहां?

हिन्दुस्तान टाइम्स में करन थापर ने वित्त मंत्री अरुण जेटली के बजट में राजनीतिक चंदे को पारदर्शी बनाने संबंधी प्रावधानों पर सवाल उठाए हैं. करन कहते हैं कि जेटली के प्रशंसक इस कदम की तारीफ कर रहे हैं लेकिन विरोधी इन्हें आंखों में धूल झोंकने वाला करार दे रहे हैं. आखिर सच कहां है? इन प्रावधानों के तहत राजनीतिक पार्टी कैश में 2000 रुपये से ज्यादा का चंदा नहीं ले सकेंगी. यह चुनावी फंडिंग को साफ-सुथरा बनाने का कदम लग सकता है. लेकिन जरा गौर करने पर दूसरी कहानी नजर आएगी.

राजनीतिक पार्टियां अब भी 2000 रुपये तक का दान ले सकती हैं और इन दानदाताओं की पहचान गुप्त रखी जाएगी. इसलिए राजनीतिक पार्टियों को अब यह कहना होगा कि उन्हें जो चंदे मिले थे, वो सभी 2000 रुपये या इससे कम की राशि में थे.

चूंकि कैश में चंदे को गैरकानूनी नहीं बनाया गया है और चंदा देने वालों का नाम अब भी गुप्त रखा जाना है. चंदा लिया जाता रहेगा और कहा जाएगा कि ये सब 2000 रुपये या इससे कम की राशि के तौर पर हासिल हुआ है. ऐसे में आप समझ सकते हैं कि किस तरह की पारदर्शिता सुनिश्चित होगी.

अब बांड खरीद कर चंदा देने के प्रावधान पर आते हैं. चूंकि बांड खरीद कर दान देने वालों की पहचान भी जाहिर नहीं की जाएगी इसलिए यहां भी पारदर्शिता सुनिश्चित नहीं होती. यह डेमोक्रेसी में मिले हमारे उस अधिकार का हनन करती है, जिसके तहत हमें यह जानने का अधिकार है राजनीतिक दलों की फंडिंग कौन कर रहा है और उन्हें कौन कितना पैसा दे रहा है?

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यूपी की बदहाली

अमर उजाला में रामचंद्र गुहा ने इस बार अपने कॉलम मे बदहाल यूपी का जिक्र करते हुए कहा है कि यह राज्य पहचान के राजनीतिक बवंडर में फंस गया है. इस राज्य में राजनेताओं का आकलन इस बात से नहीं होता कि वे जमीनी स्तर पर कैसा काम करते हैं, बल्कि इस आधार पर होता है कि वे किस जातीय या धार्मिक समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं या पक्षधर हैं.

गुहा लिखते हैं- यूपी की बदहाली के लक्षण यहां के सबसे बड़े शहर कानपुर में देखे जा सकते हैं. जिन लोगों ने कानपुर को उत्कर्ष के दिनों में देखा था, वे शायद अब इसे पहचान भी न पाएं. शहर के पुराने उद्योग या तो बंद हो गए हैं या मरणासन्न हैं. आईआईटी कानपुर दिल्ली, आईआईटी खड़गपुर और चेन्नई आईआईटी से पिछड़ चुका है.

उन्होंने लिखा कि यूपी के शासन की बदतर स्थिति के लिए एक दूसरा कारण, इसका बड़ा आकार भी जिम्मेदार है. बीमार उत्तर प्रदेश को स्वस्थ करने के लिए जरूरी है इसे तीन या चार स्वशासी हिस्सों में बांट दिया जाए.

साहसिक फैसले की कमी

हिंदी अखबार जनसत्ता में छपने वाले अपने कॉलम दूसरी नजर में पी. चिदंबरम ने एक बार फिर अरुण जेटली के बजट को निशाना बनाया है. उन्होंने लिखा है- जब हम इस साल में प्रवेश कर रहे थे तो कुछ चीजें एक दम साफ थीं.

  • एक- बाहर की परिस्थिति अनुकूल नहीं थी( तेल के दाम बढ़ रहे थे और संरक्षणवाद उभर रहा था).
  • दो, देश की अर्थव्यवस्था धीमी पड़ गई थी (जैसा कि दुनिया के अन्य देशों में हो रहा है).
  • तीन, जब अर्थव्यवस्था का ग्राफ चढ़ रहा था तो रोजगार के अवसरों में वृद्धि मामूली थी.
  • चार, कृषि क्षेत्र का बुरा हाल था.
  • पांच, वृद्धि के चार इंजनों में से तीन ( निजी निवेश, निजी खपत और निर्यात) ठीक से काम नहीं कर रहे थे.
  • छह, नोटबंदी ने भारत के आर्थिक विकास बुरी तरह व्यवधान डाला था. इस संदर्भ को देखते हुए बजट की मंजिल तय की जानी चाहिए थी. वे लक्ष्य वित्त मंत्री के बजट भाषण में, आंकड़े बजट दस्तावेजों में और प्रावधान वित्त विधेयकों में प्रतिबंबित होने चाहिए थे.

अफसोस, बजट भाषण में ऐसा कुछ नहीं था. न ही वित्त मंत्री ने बजट के बाद मीडिया के साथ ढेरों साक्षात्कार में इन लक्ष्यों के बारे में कुछ कहा. यह सिकुड़न का बजट है. सरकार को व्यापक रणनीति और साहस के साथ फैलाव की रणनीति अपनानी चाहिए थी. सरकार पर डर हावी है. ऐसा लगता है उसने साहसिक सुधारों से मुंह मोड़ लिया है.

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अब आर्थिक और प्रशासनिक सुधारों की जरूरत

दैनिक जनसत्ता में ही तवलीन सिंह अपने कॉलम वक्त की नब्ज में लिखती हैं कि प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के फैसले पर सदन में अपनी पीठ थपथपाई. उन्होंने कहा कि यह ऐसा देश है कि जहां छोटी सी परेशानी पर लोग हिंसा पर उतारू हो जाते हैं. लेकिन नोटबंदी की वजह से होने वाली परेशानी के बावजूद ऐसा कुछ नहीं हुआ.

अब एक महीने बाद यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, मणिपुर के चुनाव परिणाम आएंगे तो यह साफ हो जाएगा कि इस फैसले को जनता का कितना समर्थन प्राप्त था. फिलहाल जब में यूपी के दौरे पर थी तो मुझे ऐसे लोग मिले जिन्हें नोटबंदी के कारण काफी परेशानी हुई थी. पीएम ने नोटबंदी का जो साहस दिखाया क्या वह इसके बाद आर्थिक और प्रशासनिक सुधार भी कर सकेंगे?

सच तो यह है कि आर्थिक सुधारों से ज्यादा जरूरी है प्रशासनिक सुधारों की. क्योंकि सच तो यह है कि दिल्ली के सरकारी भवनों की मानसिकता अभी नहीं बदली है. अब भी हमारे आला अधिकारी आम नागरिकों की परवाह कम और अपने राजनीतिक आकाओं की परवाह ज्यादा करते हैं. शायद इसलिए नोटबंदी लागू करते समय उन्हें अंदाजा ही नहीं था कि आम आदमी को कितनी परेशानी होगी. मोदी ने साबित कर दिया है कि उनमें साहसिक फैसले लेने का दम है. लिहाजा अब वह आर्थिक और प्रशासनिक सुधार भी कर दिखाएं.

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राजनीतिक साहस से सुलझेगा बैंकिंग संकट

टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस. अंकलसरैया ने कहा है कि अगर बैंक भारतीय अर्थव्यवस्था के दिल हैं तो इसमें छेद है. भारत के सार्वजनिक बैंकों के 20 फीसदी लोन फंस चुके हैं. देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम कहते हैं कि भारत दोहरे बैलेंस शीट की समस्या में फंसा है- बैंकों की खराब बैलेंस शीट और दूसरे इससे कर्ज लेने वालों की खराब वित्तीय हालत. इस कर्ज की वापसी नहीं हो रही है.

देश को इस परिस्थिति में साहसिक कदम उठाना होगा. उसे कर्ज को बट्टेखाते में डालना होगा लेकिन सरकार ऐसा करने का जोखिम नहीं ले सकती क्योंकि इससे सरकार पर बड़े उद्योगपतियों के पक्षपात का गंभीर आरोप लगेगा.

मुख्य आर्थिक सलाहकार इसके लिए ‘बैड बैंक’ की स्थापना का प्रस्ताव रखते हैं लेकिन वित्त मंत्री ऐसे बैंक को फाइनेंस करने से हिचकेंगे. निजी क्षेत्र भी ऐसा नहीं करेगा. लिहाजा बैंकों का यह संकट बरकरार है. मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम कहते हैं इस संकट का सिर्फ एक ही इलाज है और वह राजनीतिक साहस.

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यूपी चुनाव- सबका साथ नारा दांव पर

इंडियन एक्सप्रेस में मेघनाद देसाई ने लिखा है पांच राज्यों के चुनाव में सबसे अहम है यूपी का चुनाव. मोरारजी देसाई और मनमोहन सिंह को छोड़ कर देश के सभी पीएम यूपी से ही चुनाव जीत कर आए हैं. नरेंद्र मोदी की बात करते हुए वह कहते हैं कि कम लोगों को अंदाजा होगा कि अहमदाबाद में अकेले बैठे नरेंद्र मोदी ने यह अंदाजा लगा दिया था कि मंदिर या हिंदुत्व का मुद्दा चुनाव नहीं जीता सकता.

उन्होंने छोटी जातियों, दलितों और ऊंची जातियों के हिंदुओं का समीकरण बना कर दिल्ली की गद्दी हासिल की. लेकिन मुस्लिम वोटर अब भी मोदी की पार्टी से दूर हैं. मोदी शायद मुस्लिम वोटरों को आकर्षित न कर पाएं लेकिन उनकी पार्टी में और संघ परिवार में ऐसे तत्व मौजूद हैं जो ज्यादा नुकसान पहुंचा सकते हैं. लेकिन हालात कुछ हद तक बीजेपी के पक्ष में हैं.

बीफ मुद्दा को ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई है. मंदिर मुद्दा न्यायिक हल का इंतजार कर रहा है. बीजेपी का उग्र साथी संगठन वीएचपी को दरकिनार कर दिया गया है. बहरहाल, यूपी में मोदी का सबका साथ का नारा दांव पर है.

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