पहलू खान हत्याकांड: एक और स्याह पहलू
पिछले साल अप्रैल में राजस्थान में गाय ले जाते वक्त पहलू खान की हत्या कर दी गई थी. उनका परिवार अब भी उनके गम में जी रहा है. हर्ष मंदर ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है एक साल हो गया, पहलू खान का परिवार और उन जैसे दूध का कारोबार करने वाले दूसरे किसानों की किस्मत अंधेरे में गर्क हो चुकी है.
गोरक्षा के नाम पर हुई हत्याओं के खिलाफ हर्ष मंदर ‘कारवां-ए-मोहब्बत’ निकाल चुके हैं. मंदर लिखते हैं-
पहलू खान ने मरने से पहले जिन छह लोगों के नाम लिए थे उनमें से हरेक को पुलिस छोड़ चुकी है. जबकि कई अदालतों में इस आधार पर फैसले हुए हैं कि मरने वाला शख्स झूठ नहीं बोल सकता. उल्टे अब पहलू के साथ हमले के शिकार अजमत और रफीक के खिलाफ गो तस्करी के आरोप में मामला दायर किया जा चुका है.
इस मामले का एक और पहलू अब और भी गंभीर होता जा रहा है. पहलू खान मेव मुसलमानों के जिस समुदाय से ताल्लुक रखते थे. वह पीढ़ियों से गाय पालता आ रहा है. दूध का कारोबार करता आ रहा है. लेकिन हमले के डर से अब मेव मुस्लिम गाय नहीं पाल पा रहे हैं. लिहाजा, उनकी आर्थिक स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही है. रेतीली जमीन, पानी की कमी की वजह से वे एक ही फसल ले पाते थे. लेकिन अब गाय पालने की वजह से जाने पर बन आए खतरे ने उन्हें गरीबी के अथाह अंधेरे में धकेल दिया है.
1988 जैसा क्यों लग रहा है 2018
मशहूर इतिहासकार और पब्लिक इंटेलक्चुअल रामचंद्र गुहा को 2018 का माहौल 1988 जैसा लग रहा है. अमर उजाला में गुहा लिखते हैं- इस महीने की शुरुआत में मैं दिल्ली में था. यहां का माहौल मुझे नवंबर 1988 जैसा लगा. यह वो दौर था जब राजीव के खिलाफ बोफोर्स घोटाले की जांच की मांग गति पकड़ रही थी और उनके करीबी लोगों पर अंगुली उठा रहे थे. एक बार फिर ऐसा ही माहौल है. एक विद्वान जिन्होंने मई 2014 में नरेंद्र मोदी की जीत का बड़े उत्साह से स्वागत किया था अब सरकार के विरोधी हो गए हैं. वह सोचते हैं कि सरकार ने अपनी वैधता खो दी है और अब चुनाव होंगे तो उसे 120 से ज्यादा सीटें नहीं मिलेंगी.
1984 में चार सौ अधिक सीटें जीतने के बाद राजीव की कांग्रेस सरकार पांच साल बाद 197 सीटों पर सिमट गई थी. अभी कोई अनुमान नहीं लगा सकता कि मोदी की बीजेपी के 2014 की 282 सीटें कितना नीचे गिरेंगी. लेकिन समानताएं स्पष्ट तौर पर दिख रही हैं.
अनेक ऐसे लोग जो कांग्रेस के परंपरागत मतदाता नहीं थे, उन्होंने 1984 में राजीव में संभावनाएं देखी थीं. बीजेपी के कभी आलोचक रहे अनेक लोगों ने 2014 में मोदी में उम्मीद देखी थी. इतनी सद्भावना होने के बावजूद राजीव ने देश को आगे बढ़ाने का अवसर गंवा दिया था और तेजी के साथ ऐसा लगता है कि मोदी भी उसी रास्ते पर हैं.
पेट्रोल सस्ता करने का लालच छोड़ दें मोदी
टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस. अंकलसरैया ने नरेंद्र मोदी को पेट्रोल सस्ता कर वाहवाही लूटने की कोशिश से बचने की सलाह दी है. स्वामीनाथन अपने कॉलम में लिखते हैं- कच्चे तेल की कीमतें चार साल के सबसे ऊंचे स्तर यानी 75 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच चुकी हैं. 2014 के आखिर में तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में भारी कमी का फायदा उठाते हुए घरेलू बाजार में इस पर दी जाने वाली सब्सिडी खत्म कर दी थी. अब जब अगला चुनाव नजदीक आ रहा है तो मिडिल क्लास उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए वे पेट्रोल-डीजल के दामों में सब्सिडी देने की पहल कर सकते हैं. लेकिन उन्हें इस लालच से बचना चाहिए.
स्वामी लिखते हैं- मुफ्त में चीजें बांटने से चुनाव जीते जा सकते, तो किसी की सत्ता कभी जाती ही नहीं. पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम कह चुके हैं कि वोटरों को खरीदा नहीं जा सकता . मोदी भी यह बात कह चुके हैं. अब उन्हें इस पर टिके रहना चाहिए.
बहरहाल, यूपीए से लेकर एनडीए के बीच के घटनाक्रमों ने तेल की कीमतों से राजनीति को अलग करने की जरूरत बता दिया है. स्टील और सीमेंट की कीमतों की तरह ही पेट्रोल और डीजल की कीमतों को भी बाजार के भरोसे छोड़ दें. लोग उसे बाजार का फेनोमेना समझेंगे, राजनीतिक नहीं. अगर पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर नियंत्रण की शुरुआत होती है तो राजनीतिक और आर्थिक सिरदर्द भी शुरू हो जाएगा.
बहुसंख्यकों का आतंक
आकार पटेल ने बहुसंख्यकवाद के वर्चस्व के खतरे गिनाए हैं. एशियन एज में पटेल लिखते हैं- औपनिवेशिक शासन के खात्मे के बाद भारतीय उप महाद्वीप में धार्मिक और जातीय बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों के खिलाफ गोलबंद होते रहने की परंपरा कायम कर चुके हैं. श्रीलंका में बहुसंख्यक सिंघली भाषी बौद्धों ने धर्म और भाषा के नाम पर तमिलों से लड़ाई की. भारत में हमें इस बात पर अचरज हो सकता है कि बौद्ध और हिंदू एक दूसरे से नफरत कैसे कर सकते हैं लेकिन बहुसंख्यकवाद का यही असली रूप है. यह हमेशा अपना एक दुश्मन खोज लेता है.
पटेल ने श्रीलंका, बांग्लादेश और खास कर पाकिस्तान का उदाहरण देकर बताया है कि किस तरह बहुसंख्यकवाद के आतंक ने इन देशों को भुगतने पर मजबूर किया.
पटेल लिखते हैं, नेहरू की बदौलत देश को सेक्यूलर संविधान मिला. हालांकि, इसके कुछ अंश बहुसंख्यकों के विचारों का समर्थन करते हैं. कांग्रेस के शुरुआती कुछ दशकों के शासन ने इस असलियत को छिपाए रखा. बहुसंख्यक के वर्चस्व के मामले में हम भी श्रीलंकाइयों, पाकिस्तानियों और बांग्लादेशियों से कम नहीं हैं. हमारे अंदर भी बहुसंख्यकवाद की प्रवृति बेहद ताकतवर है. यही प्रवृति आज अल्पसंख्यकों पर हमले को बढ़ावा दे रही है.
वह लिखते हैं- मुझे यह कहने के लिए सबूत देने की जरूरत नहीं है. किसी भी दिन का अखबार ले लीजिए, आपको इसका सबूत मिल जाएगा. हिंदुत्व के नेता और बुद्धिजीवी कहते हैं कि बहुसंख्यक प्रतिक्रिया में कदम उठाते हैं. हम किसी पर पहले हमले नहीं करते. इस दावे का मतलब यह है कि हम जो कह रहे हैं वो ठीक है. इस मामले में हमारा रवैया दक्षिण एशिया के दूसरे बहुसंख्यकों की तरह नहीं है. लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि भारत में बहुसंख्यकों का आचरण भी दक्षिण एशिया के दूसरे देशों की बहुसंख्यक आबादी के तौर-तरीके जैसा ही है.
रेप केस- दंड का डर खत्म क्यों?
दैनिक जनसत्ता में पी चिदंबरम ने अपने कॉलम में कठुआ कांड की चर्चा की है. वह लिखते हैं- बलात्कार की वजह सेक्स नहीं है. यह कल्पना करना कठिन है कि कोई किसी औरत (जो कि उससे अपनी पूरी ताकत से लड़ रही होती है) या बच्च्ची के साथ जबर्दस्ती करके यौनसुख हासिल कर सकता है.
बलात्कार का संबंध स्त्री पर, खासकर स्त्री के शरीर पर पुरुष की सत्ता से है. सामूहिक बलात्कार दंड-मुक्ति के भरोसे का चरम कृत्य है.
उन्नाव और कठुआ में हुए अपराधों को अंजाम देने वाले जानते थे कि हमारी न्याय व्यवस्था खंडित हो चुकी है और जो थोड़ी-बहुत बची हुई है भी, वह भी तोड़ी-मरोड़ी जा सकती है. कठुआ में बच्ची की मौत और उन्नाव की घटना को लेकर काफी हंगामा मचने के बावजूद प्रधानमंत्री 13 अप्रैल तक कुछ नहीं बोले.
दोनों घटनाओं में बीजेपी ने आरोपों को झुठलाने और ध्यान बंटाने की ही कोशिश की- जो कि सरासर राजनीतिकरण था- फिर भी बीजेपी दूसरों को कोसती रही कि वे मामलों को राजनीतिक रंग दे रहे हैं, स्त्रियों और बच्चियों के प्रति बढ़ रही हिंसा चिंताजनक है, पर और भी चिंताजनक यह विश्वास है कि कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता, जो कि लगता है सार्वजनिक पद पर बैठे हर व्यक्ति के मन में घर कर गया है. ऐसा लग सकता है कि इसे रोका नहीं जा सकता, पर यह इस पीढ़ी का कर्तव्य है कि वह इस सिलसिले को रोके और देश को दंड-मुक्ति का गणतंत्र न बनने दे.
अफवाह और जेटली
और आखिर में कूमी कपूर का इनसाइड ट्रैक. इंडियन एक्सप्रेस में वह लिखती हैं- अरुण जेटली के आवास 2 कृष्णा मेनन मार्ग के गेट पर एक नोटिस चिपका है- नो विजिटर्स अलाउड. इससे इस अफवाह को हवा मिली कि वित्त मंत्री गंभीर तौर पर बीमार हैं और उन्होंने पूरी तरह एकांत में रखा गया है.
यह सही है कि जेटली को सप्ताह में दो बार डायलिसिस से गुजरना पड़ता है. लेकिन वे पूरी तरह एकांत में नहीं हैं. हालांकि, उनसे मिलने-जुलने वालों को सीमित कर दिया गया है. डॉक्टरों ने कहा है कि जब तक फेफड़ों के संक्रमण में कुछ कमी न आ जाए तो उन्हें गैर जरूरी मुलाकातों से दूर रखा जाए. अब उनकी हालत थोड़ी ठीक है. जेटली हर दिन अपने गार्डन में दो बार चहलकदमी करते हैं. फाइलों को क्लियर करने के लिए दो घंटे शाम को काम करते हैं.
एक सप्ताह पहले नए सदस्य के तौर पर शपथ लेने के लिए वह राज्यसभा पहुंचे थे. बहरहाल, जेटली के पास अब टेलीफोन पर ज्यादा जानकारी लेने और इस पर सोचने-विचारने का काफी वक्त है.
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