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संडे व्यू: मोदी-मनमोहन में कौन बड़े रिफॉर्मर? भूल है RCEP से दूरी?

संडे व्यू में पढ़ें देश के बेहतरीन अखबारों के बेस्ट आर्टिकल

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बड़ी भूल साबित होगी आरसीईपी में शामिल न होना?

टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि अगर भारत जीडीपी में 25 फीसदी मैन्युफैक्चरिंग के लक्ष्य के प्रति गंभीर है तो अब इसके लिए समय-सीमा को दोबारा तय किया जाना चाहिए. अब यह 2022 न होकर 2030 हो सकता है. सबसे पहले मनमोहन सिंह ने 2012 में 2022 का लक्ष्य तय किया था जिसे पीएम नरेंद्र मोदी ‘मेक इन इंडिया’ के बाद से लगातार दोहराते रहे हैं. अगर भारत कोविड-2019 से पहले की स्थिति यानी 2019-20 की स्थिति में लौट आता है यानी भारत की जीडीपी 2021-22 में 204 लाख करोड़ की हो जाती है और अगले 8 सालों तक 6 फीसदी की विकास दर बनी रहती है तो भारतीय अर्थव्यवस्था 2029-30 तक 325 लाख करोड़ के आकार की हो सकेगी. इस दौरान मैन्युफैक्चरिंग को वर्तमान में 204 लाख करोड़ के 14 प्रतिशत से बढ़कर 324 लाख करोड़ के 25 फीसदी का होना होगा. यानी 28 लाख करोड़ से बढ़कर 81 लाख करोड़ की बढ़ोतरी.

नाइनन लिखते हैं कि जब मैन्युफैक्चरिंग बढ़ेगा तो सर्विस सेक्टर की जीडीपी में हिस्सेदारी कम होगी. वे लिखते हैं कि घरेलू बाजार पर निर्भर रहकर मैन्युफैक्चरिंग को इतनी तेज गति दे पाना संभव नहीं है. भारत को अपनी अर्थव्यवस्था के आकार के मुताबिक निर्यात बाजार भी खोजने होंगे. रीजनल कॉम्प्रिहेन्सिव इकॉनोमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) से बाहर रहने का निर्णय दीर्घावधि में मोदी सरकार की बड़ी गलती साबित हो सकती है. आरसीईपी के कारण भारत से उद्योगों का पलायन हो सकता है.

लगभग सभी एशियाई-प्रशांत देशों के साथ भारत का व्यापार प्रतिकूल है यानी व्यापार घाटे की स्थिति है. भारत को एक दशक के भीतर खुद को तैयार करना होगा. अगर तब भी आत्मनिर्भर होना ही प्राथमिकता रहेगी तो उसका मतलब होगा कि भारत ने हार मान ली है.
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मनमोहन-मोदी में बेहतर कौन- जारी है चिदंबरम-पनगढ़िया में बहस

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में डॉक्टर अरविंद पनगड़िया के साथ सुधारों और वृद्धि पर बहस को आगे बढ़ाया है. इस बहस की शुरुआत तब हुई थी जब पी चिदंबरम के लेख ‘बिना वृद्धि के सुधार’ के जवाब में डॉक्टर पनगढ़िया ने ‘मोदी के सुधारों के रिकॉर्ड का बचाव’ नाम से लेख लिखा. चिदंबरम ने पांच सुधारों का जिक्र करते हुए लिखा था कि महत्वपूर्ण बात यह है कि सुधारों से जीडीपी की वृद्धि दर में इजाफा होता है या नहीं. डॉ पनगड़िया ने पीवी नरसिंहराव और अटल बिहारी वाजपेयी को सुधारों का जनक बताया था. अब एक बार फिर जवाब में पी चिदंबरम ने लिखा है कि जिन पांच सुधारों का श्रेय डॉक्टर पनगढ़िया ने नरेंद्र मोदी को दिया है उनका जिक्र खुद चिदंबरम भी कर रहे हैं लेकिन उनमें दो अन्य सुधारों को छिपाया नहीं जाना चाहिए- नोटबंदी और जीएसटी.

चिदंबरम ने लिखा है कि वे डॉ पनगढ़िया के वृद्धि दर के आंकड़ों से सहमत हैं- नरसिंहराव 5.1 फीसदी, वाजपेयी 5.9 फीसदी, डॉ मनमोहन सिंह 7.7 फीसदी और मोदी 6.8 फीसदी. मगर, डॉ मनमोहन सिंह के दो कार्यकाल किसी भी अन्य प्रधानमंत्री की तुलना में काफी अच्छे रहे थे. चिदंबरम ने मनमोहन सिंह के कार्यकाल में26 सुधारों की सूची पेश की है. उन्होंने दावा किया है कि मनमोहन सिंह का सुधार लोगों की खुशहाली के लिए था और यह ‘मेरे सुधारों से वृद्धि हुई’ वाला भाव था. जबकि, नरेंद्र मोदी ने ‘मैंने सुधार किए’ जैसे दावे करते हुए आत्मप्रचार मात्र किया है.

पाकिस्तान पर ओबामा की चुप्पी

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि बराक ओबामा की जीवनी के दिलचस्प अध्यायों में एक और आखिरी अध्याय है ‘द प्रॉमिस्ड लैंड’. यह 2011 में पाकिस्तान के एबोटाबाद में ओसामा बिन लादेन के खात्मे की कहानी है. यह 27वें अध्याय में 673वें पेज से शुरू होती है. ओबामा उन पलों को याद करते हैं. कुछ घंटे बाद पत्नी मिशेल से इसे शेयर करते हैं और एक-दूसरे को गले लगाते हैं. लेखक ने आश्चर्य जताया है कि ओबामा ने पाकिस्तान की भूमिका के बारे में चुप्पी साध ली. क्या पाकिस्तान ओसामा बिन लादेन को छिपा रहा था और मसले को उलझा रहा था या फिर वह इससे अनजान था और इस तरह अक्षम था?

लेखक याद करते हैं कि 2017 में उन्होंने यही सवाल ओबामा से तब पूछा था जब वे हिन्दुस्तान टाइम्स लीडर समिट में आए थे. जवाब में ओबामा ने कहा था कि उनकी सरकार के पास इस बात के सबूत नहीं हैं कि लादेन की मौजूदगी के बारे में पाकिस्तान को कुछ पता था या नहीं. ओबामा ने कहा था कि “जो कुछ मैंने कहा है उससे आगे सोचने की जिम्मेदारी मैं आप पर छोड़ता हूं.“

करन थापर बताते हैं कि यही सवाल उन्होंने परवेज मुशर्रफ से भी पूछा था जिन्होंने कहा था कि शायद आईएसआई सो रहा होगा. फिर उन्होंने जोड़ा था कि समय-समय पर ऐसा करने का आईएसआई को अधिकार भी है. लेखक ने बताया है कि ओबामा के लिए पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री आसिफ अली जरदारी से बात करना मुश्किल लग रहा था मगर ओबामा ने लिखा है कि जरदारी की प्रतिक्रिया शानदार रही थी और उन्होंने ओसामा बिन लादेन की मौत को अच्छी खबर बताया था.

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बिहार से मिले हैं तीन संदेश

मार्क टुली ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि बिहार विधानसभा चुनाव में तीन बातें अपमानजनक हुई हैं और बीजेपी के कट्टर हिन्दुत्व के सामने विपक्ष ढहता दिख रहा है. रिकॉर्ड चौथी बार मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार की संख्या सिमट गयी और सहयोगी बीजेपी, जनता और प्रेस ने उनका अपमान किया. नीतीश की रैलियों में जनता नहीं उमड़ी और वोट देते वक्त पीछे रही.

मार्क टुली लिखते हैं कि प्रेस ने नीतीश को राजनीतिक ताकत के रूप में कमतर आंका. बीजेपी ने एलजेपी पर अंकुश नहीं लगाते हुए उसे शह दिया और नीतीश का अपमान किया. चुनाव के बाद भी दो उपमुख्यमंत्री बनाने और नीतीश से उनकी पसंद का डिप्टी सीएम छीन कर बीजेपी ने उन्हें कमजोर किया है. टुली लिखते हैं कि जो नीतीश ईमानदारी और सुशासन के लिए जाने जाते रहे हैं, जिन्हें कभी भविष्य का प्रधानमंत्री समझा जाता था वही आज अपने पद पर बने रहने के लिए अपमान सह रहे हैं.

मार्क टुली ने लिखा है कि कांग्रेस फिर अपमानित हुई है. आलाकमान की चुप्पी भी अपमानजक है. जी-हुजुरी करने वाले मुखर हैं. बिहार में अब कांग्रेस प्रासंगिक नहीं रह गयी है. जो लोग कह रहे हैं कि गांधी नहीं तो कांग्रेस नहीं, वो नहीं देख पा रहे हैं कि गांधी के ही नेतृत्व में कांग्रेस सिमटती चली जा रही है. टुली लिखते हैं कि कांग्रेस के लगातार अपमान का मतलब यह है कि देश में बीजेपी को चुनौती देने के लिए कोई राष्ट्रीय पार्टी नहीं रह गयी है.

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डायना की याद दिला रहे हैं डोनाल्ड

मॉरीन डॉड ने न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा है कि डोनाल्ड ट्रंप का व्यवहार उस बच्चे की तरह है जो अकेला और दुखी हो और जो लगातार खुद को नुकसान पहुंचाता हो. लेखिका डायना और डोनाल्ड दोनों में समानता का जिक्र करती हैं. जहरीली जुबान, प्रशंसकों से सीधा संबंध और नियमों को न मानने वाले. कब क्या करेंगे पता नहीं. अपना ही टीवी कवरेज देखने और चुनिंदा रिपोर्टर को फोन करने का स्वाभाव भी एकसमान. शीर्ष पद पर रहकर दोनों नाखुश रहे. डायना ने तकरीबन राजतंत्र को तहस-नहस कर डाला और डोनाल्ड ने लोकतंत्र को.

विरोधियों को गले लगाने में डायना माहिर थीं जबकि डोनाल्ड उनके ठीक विपरीत रहे. डायना की कपोल कल्पित कहानियों से आपका दिल भर आए और अंत ऐसा कि आप दुखी हो जाएं. डायना पर भौंकने वाले थे, तो डोनाल्ड खुद दूसरों पर भोंका करते हैं. ट्रंप लगातार खुद को विजेता बताकर अपने आपको और देश को परेशान कर रहे हैं. मीडिया समेत अन्य को दुश्मन बता रहे हैं. काल्पनिक वैश्विक षडयंत्र की बात भी वे कर रहे हैं. मिशिगन के अफसरों को भी प्रभावित करने की नाकाम कोशिश ट्रंप कर चुके हैं. जो बाइडन जॉर्जिया में भी आगे निकल चुके हैं. ट्रंप जैसा व्यवहार ही रिपब्लिकन्स का भी है. ट्रंप से तुलना करती हुई लेखिका डायना को लेकर ब्रिटिश राजघराने के व्यवहार और फिर राजघराने के प्रति डायना की अपरिपक्व प्रतिक्रियाओं की याद दिलाती हैं.

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अडानी आफ्टर गांधी: एक पुस्तक जो न आयी, न आएगी

रामचंद्र गुहा ने द टेलीग्राफ में ‘अडानी आफ्टर गांधी’ की चर्चा की है जो एक पुस्तक होती अगर लिखी गयी होती. इस चर्चा की वजह लेखक ने फिनान्शियल टाइम्स में छपे एक आर्टिकल को बताया है जिसमें मई 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से गुजरात के एक कारोबारी की किस्मत बदलने के बारे में आंकड़ों के साथ चौंकाने वाले ब्योरे दिए गये हैं. इसमें बताया गया है कि प्रधानमंत्री का पदभार संभालने के लिए अडानी के प्राइवेट जेट से नरेंद्र मोदी आए थे. मोदी के पीएम बनने के बाद से अडानी की कुल दौलत 230 फीसदी बढ़ चुकी है जो 26 अरब डॉलर से ज्यादा है. उन्होंने देशभर में इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ी की हैं और सरकारी निविदाएं हासिल की है. लेखक याद करते हैं कि उन्होंने अतीत में अडानी के साथ जुड़ने के अवसर को छोड़ दिया था.

लेखक रामचंद्र गुहा की किताब ‘गांधी बिफोर इंडिया’ सितंबर 2013 में आयी थी और उसके बाद ही मुंबई में साहित्य उत्सव के दौरान एक ऐसे युवक से उनका मिलना हुआ था जिन्होंने अडानी की बायोग्राफी के प्रॉजेक्ट से जुड़ने की बाबत अडानी के साथ उनकी मीटिंग तय कराने का प्रस्ताव रखा था. गुहा ने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. इससे पहले भी लेखक ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जीवनी लिखने के अवसर को स्वीकार नहीं किया था और उसकी वजह उन्होंने वाजपेयीजी की राजनीतिक पार्टी बीजेपी की विचारधारा से असहमत होना बताया है. उनके मुताबिक उन्होंने कांग्रेस नेताओं की ओर से भी मिलते रहे ऐसे अवसरों से भी खुद को दूर रखा है. गुहा लिखते हैं कि वेरियर एल्विन की जीवनी वे इसलिए लिख पाए, क्योंकि उन्होंने उनकी सोच को बदला. एल्विन की वजह से अध्ययन के लिए वे प्रेरित हुए. लेखक बताते हैं कि गांधी से अडानी तक अपने संस्मरण लिखने को शायद वे जरूरत तैयार हो जाएं.

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