भारतीय राजनीति में व्यक्ति पूजा का रोग
भारतीय राजनीति, नायक पूजा से बुरी तरह ग्रसित रही है. रामचंद्र गुहा ने भारतीय राजनीति की इस पुरानी बीमारी का जिक्र किया है और मौजूदा दौर में मोदी भक्ति पर करारा वार किया है. हिंदी दैनिक ‘अमर उजाला’ में गुहा ने लिखा है कि भारतीय जनता पार्टी व्यक्ति पूजा की विरोधी रही है, मगर आश्चर्य है वह भी नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के आगे झुक गई है. प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करने के बाद से सरकार ने वही किया जो कि पार्टी पहले कर चुकी थी. पूरी तरह से एक व्यक्ति की इच्छाओं और कई बार सनक के आगे समर्पण.
सोशल मीडिया पर लाखों भक्त (इनमें कुछ पत्रकार भी शामिल हैं) व्यक्ति पूजा के सबसे भौंडे रूप का प्रदर्शन कर रहे हैं. पिछले दिनों एक कैबिनेट मंत्री ने नरेंद्र मोदी को मसीहा करार दिया. एक मुख्यमंत्री ने धमकाया कि जो भी प्रधानमंत्री की आलोचना कर रहा है, देशद्रोही है.
गुहा ने अंबेडकर के एक भाषण का हवाला दिया है, जिसमें वह जॉन स्टुअर्ट मिल को उद्धृत करते हुए कहते हैं अपनी स्वतंत्रता को किसी एक महान व्यक्ति के चरणों पर मत रख दो, न ही उसे इतनी ताकत दे दो कि वह इतना ताकतवर हो जाए कि तमाम संस्थाओं को नष्ट कर दे. धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का रास्ता हो सकती है. लेकिन राजनीति में भक्ति या व्यक्ति पूजा निश्चित रूप से अवमूल्यन का रास्ता है और अंतत: तानाशाही की ओर ले जाती है.
एनडीए सरकार का ‘मॉन्यूमेंटल मिसमैनेजमेंट’
अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम ने पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के संसद में बयान के आधार पर सरकार के नोटबंदी के फैसले पर सवाल उठाया है. डॉ. सिंह ने संसद में दिए अपने बयान में मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले को ‘मॉन्यूमेंटल मिसमैनेजमेंट’ करार दिया.
चिदंबरम लिखते हैं- मॉन्यूमेंटल मिसमैनेजमेंट एनडीए सरकार की पहचान बन गया है. यह सरकार जो भी काम करने का बीड़ा उठाती है, उसे पहले से ज्यादा जटिल और खतरनाक बना देती है. नोटबंदी इसका ताजा उदाहरण है.
इस सरकार ने सिर्फ चार लोगों को विश्वास में लेकर इस तरह का बेहद अहम फैसला ले लिया. जिन चार लोगों को विश्वास में लिया गया उनमें से किसी के पास भी करेंसी प्रोडक्शन और प्रबंधन का पर्याप्त ज्ञान नहीं था. लिहाजा उन्होंने इस संबंध में तमाम अहम मुद्दों पर कोई सवाल नहीं किया. चिदंबरम ने दस सवालों की सूची दी है, जिन पर नोटबंदी से पहले विचार किया जाना चाहिए था. लेकिन वह कहते हैं कि यह सरकार पहाड़ खोदने के बाद चूहिया हासिल कर खुश है.
नोटबंदी से जुड़ी हसरतों का सच
करन थापर ने अंग्रेजी अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स के अपने कॉलम में एक काल्पनिक पात्र से यह पूछवाया है कि नोटबंदी से सब परेशान हैं, जिनके पास नोट हैं वो और जिनके पास नहीं है वो भी. फिर भी बहुत कम लोग अपनी तकलीफों की शिकायत करते क्यों दिखाए दे रहे हैं. आखिर नोटबंदी को लेकर उनके भीतर जो आशा पनप रही है उसका रहस्य क्या है?
पहला रहस्य तो है- भ्रष्टाचार. भ्रष्टाचार जिस तरह से इस देश में कैंसर बन कर उभरा है, उसमें रिश्वत की संस्कृति के खिलाफ किसी भी शख्स का खड़ा होना लोगों को जबरदस्त उम्मीद का अहसास कराता है.दूसरी वजह है कि लोगों का यह विश्वास कि बीमारी जितनी घातक होगी दवा उतनी ही कड़वी होगी.
इसलिए लोग परेशानियों के कड़वे घूंट पीने को तैयार है. उनका मानना है कि देश में भ्रष्टाचार खत्म करना एक आग का दरिया है और इसमें डूब कर जाना है. तीसरी वजह भी वही आशावाद है कि जिसमें लोग यह मानकर चलते हैं कि जो भी होता है अच्छे के लिए होता है. थोड़े दिनों का कष्ट है लेकिन आगे चल कर सब ठीक हो जाएगा. करन थापर पूछते हैं कि अगर नोटबंदी के बावजूद भ्रष्टाचार और काला धन खत्म नहीं हुआ तो? वह कहते हैं- कोई बात नहीं हमारी उम्मीदें तो जिंदा ही रहेंगी.
न्यायपालिका का दंभी रवैया
प्रताप भानु मेहता ने राष्ट्रीय गान पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में करारा लेख लिखा है. मेहता लिखते हैं- सुप्रीम कोर्ट इमरजेंसी के बाद सबसे बड़े संकट से गुजर रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाने को लेकर जो फैसला दिया है, उससे साबित हो जाता है कि हाल के दिनों में न्यायशास्त्र में क्या गड़बड़ी हुई है.
राष्ट्रगान को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक लिबरल सोसाइटी में कानून के शासन की अवधारणा की बुनियादी विशेषताओं का जानबूझ कर अपमान करना है. नाम मात्र भी तार्किक ढंग से सोचने का जहमत न उठा कर सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है, उससे लोगों के बीच अदालत का दंभी रवैया ही उजागर होता है. अदालत ने यह फैसला देकर यह समझने में नासमझी की है कि एक लिबरल सोसाइटी में किसी ऐच्छिक चीज को अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता.
मेहता कहते हैं- एक तरफ लोगों के लिए आसान न्याय पाना सपना बनता जा रहा है तो दूसरी ओर न्यायपालिका का दंभ कई मूल्यों और संस्थानों के लिए खतरा बन कर उभर रहा है. राष्ट्रगान पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला भले ही छोटा दिखता हो लेकिन हमें यह भी बताता है कि सुप्रीम कोर्ट की अथॉरिटी कितनी छोटी हो गई है.
मोदी का तीन चरणों का इम्तिहान
अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस. अकंलसरैया ने नोटबंदी के तीन चरणों का जिक्र किया है. पहला- लोग नोटबंदी की दिक्कतों के बावजूद मोदी का समर्थन करेंगे. दूसरा – दो तिमाही तक अर्थव्यवस्था को झटका लगेगा और इससे इसे 1,50,000 करोड़ रुपये का नुकसान हो सकता है. मिनी मंदी का दौर देखने को मिल सकता है और वोटर यूपी चुनाव में बीजेपी के खिलाफ जा सकते हैं. तीसरा चरण आना अभी बाकी है.
मोदी नोटबंदी से आए अतिरिक्त पैसे से 25 करोड़ जनधन खातों में दस से पंद्रह हजार रुपये डाल सकते हैं. यह यूपी में बीजेपी के समर्थन में लहर पैदा कर सकती है और पार्टी यहां का किला फतह कर सकती है.
दो चरण दिख चुके हैं- लोगों का गुस्से का असर नोटबंदी के बाद हुए 14 संसदीय और विधानसभा सीटों के उपचुनाव में दिख गया है. गुजरात और महाराष्ट्र के स्थानीय चुनाव में भी भाजपा की स्थिति अच्छी रही है.
हालांकि गुजरात में पटेल आंदोलन की वजह से इसे थोड़ा धक्का लगा है. इन दोनों चरणों में मोदी विजेता रहे हैं. जहां तक तीसरे चरण का सवाल है तो जनधन अकाउंट मे पैसा डाल कर एक बार वह फिर विजेता बन सकते हैं. मोदी देश के इतिहास में पहले नेता होंगे, जो इतने लोगों को सीधे पैसा मुहैया कराएंगे. यह कदम भाजपा को यूपी का चुनाव जीतवा सकता है.
पीएम के खिलाफ हमलावर विपक्ष की दरकार
अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में आकार पटेल ने देश में कमजोर विपक्ष पर सवाल उठाया है. उन्होंने लिखा है कि लोकसभा और राज्यसभा दोनों जगह विपक्षी दल कांग्रेस सरकार को घेरने में लगातार नाकाम रहे हैं. उसके पास अच्छे वक्ताओं की भारी कमी है.
विपक्ष में कुछ नेता हैं, जो मोदी सरकार को टक्कर दे सकते हैं. इनमें केजरीवाल, ममता बनर्जी और नीतीश कुमार शामिल हैं. लेकिन विपक्ष का काम तो कांग्रेस को ही करना होगा. ये लोग कांग्रेस का काम नहीं कर सकते.
पटेल लिखते हैं- विपक्ष का सामना इस वक्त अपने समय के सबसे गिफ्टेड पीएम से है. नरेंद्र मोदी हमले करने में माहिर हैं और नए जुमले गढ़ने में इनका कोई जवाब नहीं है. ऐसे चुस्त-दुरुस्त पीएम के खिलाफ कांग्रेस बेहद कमजोर नजर आती है.
मोदी सरकार ने जिस तरह से आधी-अधूरी तैयारी के साथ नोटबंदी जैसा अहम फैसला किया वैसा कांग्रेस करती तो मोदी उसकी बखिया उधेड़ कर रख देते. कोई भी विपक्ष इस तरह के सुनहरे अवसर को नहीं छोड़ता लेकिन कांग्रेस सरकार के इस कदम का विरोध करने में बिल्कुल बेअसर रही है. कांग्रेस की भाव-भंगिमा से ऐसा लग रहा है कि उसे पता ही नहीं है कि उसकी मांग क्या है? और यह सब ऐसे वक्त में हो रहा है जब एक बेहतर सधे हुए वैचारिक विपक्ष की जरूरत है.
फिदेल कास्त्रो के जाने के बाद
अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में मेघनाद देसाई ने फिदेल कास्त्रो को स्टालिन और माओ की तुलना में नरम तानाशाह करार दिया है.
देसाई ने लिखा है कि स्टालिन के अत्याचार से हजारों लोग मारे गए. स्टालिन के अत्याचारों का भांडा निकिता ख्रुश्चेव ने फोड़ा. उसी तरह चीन में माओ की सांस्कृतिक क्रांति की वजह से लगभग चार करोड़ लोगों की मौत हो गई. इसकी तुलना में फिदेल एक ऐसे क्रांतिकारी साबित हुए जो लंबे समय तक अमेरिकी वर्चस्व से लड़ते रहे.
इसकी वजह से क्यूबा ने आर्थिक नाकेबंदी और तमाम तरह की तकलीफें झेलीं. लेकिन फिदेल क्यूबा में न तो समृद्धि ला पाए और न ही वहां लोगों को आजादी हासिल हुई. अगर क्यूबा को खुद को बदलना है तो फिदेल के जाने के बाद उसे अपने लोगों का जीवनस्तर सुधारना होगा.
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