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संडे व्यूः एक नजर में देखिए अखबारों का विचार संसार

पढ़िए, देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपे संपादकीय. 

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भारत
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रविवार की सुबह चाय की चुस्कियों के साथ अखबारों के ओपिनियन आर्टिकल हों तो आपके विचारों को पंख लग जाते हैं. इस रविवार क्विंट हिंदी आपके लिए लेकर आया है देश के प्रतिष्ठित अखबारों के चुनिंदा ओपिनियन आर्टिकल. पढ़िए और अपनी बौद्धिक भूख को बेहतरीन खुराक दीजिए.

1. आरएसएस का ‘भारत मॉडल’

गुजरात के ऊना और इसके बाद मध्य प्रदेश में कथित गौ रक्षकों द्वारा की गई दलितों की पिटाई से देश की राजनीति में नया उफान पैदा हुआ है. जाने-माने लेखक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अमर उजाला में छपे अपने कॉलम ‘समय और समाज’ में इसकी गुत्थियां सुलझाने की कोशिश की है. देश में गाय को लेकर हो रही राजनीति को समझाने के लिए उन्होंने अपने लेख की शुरुआत आरएसएस के सरसंघ संचालक एमएस गोलवलकर के अक्टूबर 1952 में लिखे लेख के हवाले से की है.

अपने कायकर्ताओं को प्रेरित करने के लिए गोलवलकर लिखते हैं- हमारे राष्ट्रीय सम्मान से जुड़े इस महान क्षण में होने वाले किसी भी आक्रमण को रोकने के लिए और मातृभूमि में सम्मान की भावना बढ़ाने के लिए स्वराज के पुनर्जागरण के हमारे राष्ट्रीय कार्यक्रम में गोवध पर प्रतिबंध सर्वोच्च प्राथमिकता में होना चाहिए.  

गुहा ने अपने लेख में चंद्रभान प्रसाद का हवाला देते हुए गौ रक्षा की मानसिकता पर रोशनी डाली है. चंद्रभान कहते हैं- हिंदू समाज का एक तबका जो उच्च वर्ग से और संकीर्ण है, उसने यह मान लिया कि जनादेश हिंदू राष्ट्र के लिए है. इसलिए गाय के सम्मान और उसकी पूजा पर जोर दिया जा रहा है, जैसा कि गोलवलकर ने कहा था. रविवार के अमर उजाला में पढ़िए गुहा का यह बेहतरीन आर्टिकल.

2. इतिहास बन जाएगा वीसीआर

पिछले सप्ताह जापान के फुनाई इलेक्ट्रिक ने ऐलान किया कि वह वीडियो कैसेट रिकार्डरों (वीसीआर) की आखिरी खेप बना रहा है. इसके बाद वीसीआर इतिहास की चीज हो जाएंगे. मिंट ने शुक्रवार को अपने संपादकीय में इसका जिक्र करते हुए भारतीय समाज में मनोरंजन के लिए वीसीआर की लोकप्रियता की याद दिलाई. साथ ही बदलती टेक्नोलॉजी और इनोवेशन और विकास के संबंधों का भी जिक्र किया है.

वीसीआर का अतीत में चले जाने की घटना सिर्फ मनोरंजन उद्योग तक ही सीमित नहीं है. यह एक बड़ी तस्वीर की ओर इशारा करती है. वह यह कि अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखने लिए आदमी और मशीन दोनों को अपग्रेड और अपडेट होना होगा. इनोवेशन प्रोडक्टिविटी और ग्रोथ का अभिन्न हिस्सा है. जो इस चक्र से गुजरेंगे वही बदलाव को बेहतर तरीके से अपना सकेंगे.  

संपादकीय में कहा गया है कि मनोरंजन टेक्नोलॉजी, सीडी, डीवीडी, ब्लू-रे डिस्क से होते हुए ऑनलाइन स्ट्रीमिंग के उतार पर आ चुका है. वीसीआर, टेलीग्राफ जैसी टेक्नोलॉजी जिस लहर पर चढ़ कर आईं थी वह भी अब बाजार से बाहर हो चुकी हैं. किसी भी इनोवेशन चक्र में ऐसा होना स्वाभाविक है. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की एक रिपोर्ट कहती है कि टेक्नोलॉजी में बेहद तेज बदलाव के आज के दौर की एक तिहाई स्किल पांच साल के बाद बाजार से बाहर हो जाएगी.

अपनी जिंदगी में बेहद तेज रफ्तार टेक्नोलॉजी के असर पर ध्यान दिलाते इस संपादकीय को जरूर पढ़िए.

3. अमेरिकी चुनाव और प्रेसिडेंट की रेस में थके उम्मीदवार

अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर बेहद गहमागहमी का दौर चल रहा है. अब यह तय हो गया है कि रिपब्लिकन की ओर से डोनाल्ड ट्रंप और डेमोक्रेटिक की ओर से हिलेरी क्लिंटन चुनाव लड़ेंगी. लिहाजा शोभा डे द टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने कॉलम में लिखती हैं- भारतीय मध्य वर्ग में बेमेल जोड़ियों का जिक्र तो होता ही रहता है. यही हाल आजकल अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की तैयारियों में दिख रहा है.

अमेरिकी वोटरों के सामने एक अन-सूटेबल ब्वॉय और एक अन-सूटेबल गर्ल है. ट्रंप और हिलेरी दोनों अतीत के बोझ से इतने लदे हैं कि इससे टाइटेनिक जैसा जहाज भी एक बार नहीं कई बार डूब सकता है. ओबामा की साफ सुथरी छवि के उलट ट्रंप और हिलेरी अपने अनैतिक अतीत से घिरे हैं.

रनिंग मेट यानी उप-राष्ट्रपति पद के दोनों के उम्मीदवार भी करिश्माई नहीं हैं. मतदाताओं से किए जा रहे वादे खोखले और पुराने हैं. राष्ट्रपति पद की इस दौड़ में कोई ताजगी नहीं दिखती.

बहरहाल, अमेरिका में यह बेहद हतोत्साहित करने वाला माहौल है कि दोनों उम्मीदवारों को लोगों को याद दिलाने की जरूरत पड़ रही है कि देश संकट में है और उसे मदद की जरूरत है. अमेरिका के दो सौ साल के इतिहास में यह डरावना क्षण है. दिलचस्प अंदाज में लिखे शोभा डे के इस कॉलम को पढ़ कर अमेरिका चुनाव के बारे में आप एक राय बना सकते हैं.

4. क्या है मजबूत होती अर्थ व्यवस्था का राज?

अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स में मानस चक्रवर्ती ने उदारीकरण के 25 वर्ष पूरे होने पर अखबारों, टीवी चैनलों और दूसरे मंचों पर होने वाली चर्चा का जिक्र करते हुए भारत की आर्थिक तरक्की का राज बताने की कोशिश की है. वह लिखते हैं क्या भारत में उदारीकरण को इसलिए रफ्तार मिली कि हम भारतीय हैचबेक कार, डबल डोर फ्रिज या तरह-तरह की वेराइटी वाले बिस्कुट चाहते थे. नहीं, दरअसल आर्थिक तरक्की की हमारी स्पिरिट को जगाया जॉन कीन्स की इंप्लॉयमेंट, इंटरेस्ट और मनी थ्योरी ने. कीन्स का यह कहना बिल्कुल जायज था कि कुछ भी सकारात्मक करने के लिए एनिमल स्पिरिट जरूरी है.

अपने कॉलम लूज कैनन में वह जानवरों के नाम वाले ब्रांड के शराब को आर्थिक उदारीकरण से जोड़ कर देख रहे हैं. उनका कहना है कि उदारीकरण के बाद ज्यादातर शराब के ब्रांड जानवरों के नाम पर हैं. जैसे - कोबरा और टाइगर बीयर. रॉयल स्टैग, व्हाइट हॉर्स, ब्लैक डॉग. एनिमल स्पिरिट के इन रूपकों और बिहार जैसे राज्य में शराबबंदी का जिक्र करते हुए वह अर्थव्यवस्था में खुलेपन को रोकने की प्रवृति पर चेतावनी देते हैं. अपने इस लेख में चक्रवर्ती ने अर्थव्यवस्था में रफ्तार लाने की इस भावना को जगाने की बेहद दिलचस्प अंदाज में अपील की है.

5. अच्छी नहीं है पीएम मोदी की चुप्पी

अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में यूपीए सरकार में गृह और वित्त मंंत्री रह चुके पी. चिदंबरम ने अपने कॉलम अक्रॉस द आइल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी पर करारी चोट की है. पीएम ने जिन मुद्दों पर चुप्पी साध रखी है उनकी बाकयदा उन्होंने सूची दी है.

व्यापम, ललित मोदी, कलबुर्गी, दाभोलकर और पनसारे, रोहित वेमुला, अखलाक, जेएनयू मामला, पठानकोट हमला और दलितों पर हमले पर उनकी चुप्पी का जिक्र करते हुए चिदंबरम कहते हैं- चुप्पी एक रणनीति हो सकती है. यह चालाकी हो सकती है. लेकिन यह हमारी राजनीति की बुराइयों और समाज की खामियों का जवाब नहीं हो सकती.

जब वाचाल और हर मुद्दे पर बोलने को तत्पर पीएम जानबूझ कर चुप्पी साध लेते हैं तो भद्र नागरिकों की चिंता स्वाभाविक है. ऐसी स्थिति में जाहिर है स्टूडेंट्स उनसे जवाब मांगेंगे. मुस्लिम अलग-थलग महसूस करेंगे और दलितों के मन में डर घर करने लगेगा.

ये हालात अच्छे नहीं हैं. चिदंबरम कहते हैं 2014 के चुनाव अभियान के दौरान भारतीय मतदाता मिस्टर मोदी की वाक कला पर मोहित था. सार्वजनिक तौर पर भाषण की कला में जैसी दक्षता मोदी जी ने हासिल की है, वैसी बहुत कम लोगों ने की है. लेकिन क्या अब मोदी आर्ट ऑफ साइलेंस में दक्षता हासिल कर रहे हैं.

6. अंदर से डरे हुए हैं अर्णब

अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ में रुचिर जोशी ने इस बार अर्णब गोस्वामी को निशाना बनाया है. हाल में अर्णब को खुद को टीवी स्क्रीन पर देशभक्त कहने और दूसरे पत्रकारों पर जुबानी हमलों के संदर्भ में उन्होंने न्यूज चैनलों पर लोगों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने और उन्हें कटघरे में खड़ा करने की प्रवृति के विश्लेषण की कोशिश की है.

अर्णब को बुली करार देते हुए उन्होंने कहा कि हर बुली अंदर से बेहद डरा हुआ होता है.

अर्णब अपना टीवी जिस अंदाज में होस्ट करते हैं उससे यह डर जाहिर हो जाता है. पहला डर टीआरपी खोने का है. अर्णब और टाइम्स नाउ जो कर रहा है वह देश के इंटेलेक्चुअल माहौल में जहर भरने जैसा है. उन्होंने जो दानव खड़ा किया है अब उसकी सवारी करना उनकी मजबूरी है.

यह दानव कुछ इस तरह खड़ा किया जाता है- पहले कोई ऐसा न्यूज आइटम ढूंढों जो दर्शकों के लिए भावुक कर देने वाला मुद्दा हो. फिर हेडलाइन को बेहद बेईमानी भरे अंदाज में पेश करो. तीसरे, मुद्दे पर कोई डिबेट पूरी होने से पहले ही फतवा दे दो. मुद्दे के दूसरी ओर के लोगों को बलि का बकरा बना दो. उनसे न्यूज रूम की रोशनी हटा दो. दर्शक को ऐसा महसूस कराओ कि लगे कि वे अभी-अभी कोई रक्तरंजित लड़ाई जीत कर आए हैं. रुचिर ने सीधे-सीधे इस कथित कायरता को संविधान के साथ धोखाधड़ी करार दिया है.

7. अंधेरे में रोशनी की तरह थीं महाश्वेता देवी

अंग्रेजी अखबार द हिंदू में सुदीप्ता दत्ता ने महाश्वेता देवी को याद किया है. आदिवासियों, शोषितों और वंचितों के लिए उनके संघर्ष को याद करते हुए उन्होंने द्रौपदी, चोटि मुंडा का तीर, हजार चौरासी की मां और टेरोडेक्टिल जैसे उनके उपन्यासों के पात्रों और उनके अंदर की जिजीविषा का जिक्र किया है.

सुदीप्ता कहती हैं - अपने पूरे लेखन में महाश्वेता ने यह सुनिश्चित किया है कि तेज रफ्तार तरक्की कर रहे इस देश में हाशिये पर चले गए लोगों के दुख अनकहे न रह जाएं. वह अपने लेखन और साक्षात तौर पर वह उन वंचितोंं के पास गईं जो शिक्षा, रोजगार , स्वास्थ्य सुविधा और जीविका से महरूम हैं. इनमें से कई भले ही उनकी रचनाओं न पढ़ पाते हों लेकिन महाश्वेता की वजह से दुनिया ने इन लोगों के संघर्ष को जाना.

महाश्वेता ने कभी मुश्किल रास्ता चुनने से परहेज नहीं किया. वामपंथी रुझानों और माकपा सेे नजदीकी के बावजूद उन्होंने नंदीग्राम और सिंगुर मामलों पर जनता का साथ दिया. अस्सी साल की पकी उम्र में भी वह जमीन अधिग्रहण के खिलाफ सत्ता के खिलाफ सडक़ पर उतरने से नहीं हिचकीं.

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