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संडे व्यू: आपके लिए अखबारों के बेस्ट लेखकों के ओपिनियन लेख  

रविवार की सुबह क्विंट हिंदी आपके लिए लेकर आया है देश के प्रतिष्ठित अखबारों के चुनिंदा ओपिनियन आर्टिकल    

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1. कौन राष्ट्रवादी, कौन राष्ट्रभक्त

इस साल आजादी की 70वीं वर्षगांठ के मौके पर राष्ट्रवाद का विमर्श ज्यादा प्रासंगिक हो गया है. राष्ट्रवाद को एक नारे की तरह उछालने और इसके नाम पर एक वर्ग का दूसरों पर वर्चस्व कायम करने की चल ही कोशिश के मद्देनजर वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार गुरचरन दास का विश्लेषण बेहद अहम है.

रविवार के टाइम्स ऑफ इंडिया में वह लिखते हैं- पिछले एक साल के घटनाक्रमों ने भारतीयता की हमारी समझ को चुनौती दी है. लिहाजा स्वतंत्रता दिवस यह समझने का बेहतरीन मौका है कि राष्ट्रवाद क्या है और राष्ट्रभक्ति क्या. मेरे ख्याल से राष्ट्रभक्ति एक खास जगह या किसी खास जीवनशैली के प्रति समर्पण है. कोई शख्स अपनी इस जगह या जीवनशैली को सर्वश्रेष्ठ समझ सकता है लेकिन वह दूसरों को इसे ऐसा ही समझने लिए बाध्य नहीं करेगा.

दूसरी ओर राष्ट्रवाद में ताकत और इज्जत हासिल करने के साथ अपने विचार दूसरों पर लादने की इच्छा छिपी होती है. राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति का अंतर समझाने के क्रम में उन्होंने जॉर्ज ओरवेल की परिभाषा का हवाला दिया है. गुरचरन लिखते हैं- राष्ट्रवादी एक सफल भारत की कामना करते हैं लेकिन राष्ट्रभक्त चाहते हैं सभी भारतीय सफल हों, खास कर अल्पसंख्यक. पिछले दिनों जीएसटी लागू होने पर राष्ट्रवादी और राष्ट्रभक्त दोनों खुश थे. राष्ट्रवादी खुश थे कि इससे देश ज्यादा मजबूत, ज्यादा समृद्ध और ताकतवर बनेगा. जबकि राष्ट्रभक्त यह सोच कर खुश थे कि इससे देश के गरीब लोगों को भी फायदा होगा...... गुरचरन दास का यह विश्लेषण शानदार है और इसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए.

2. स्त्री की नजर से देखने की जरूरत

फेसबुक की भारत, दक्षिण एशिया और सेंट्रल एशिया पब्लिक पॉलिसी डायरेक्टर अंखी दास ने शनिवार के इंडियन एक्सप्रेस में एक शानदार लेख लिखा है. मेकिंग अ फेमिनिस्ट मैन शीर्षक से लिखे इस आर्टिकल में उन्होंने समाज में स्त्रीवादी नजरिये को अहमियत देने का सवाल उठाया है. इस आर्टिकल में उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ता रंजना कुमारी का हवाला दिया है.

रंजना कुमारी कहती हैं- एक महिला अधिकार कार्यकर्ता के तौर पर वह लोगों से मिलती हैं तो वे कहते हैं कि अपनी बेटियों की परवरिश बेटों की तरह कर रहे हैं. कोई भी यह नहीं कहता के वे अपने बेटों को बेटियों की तरह बड़ा कर रहे हैं. दरअसल हम अपने बेटों का स्त्रीवादी मूल्यों से परिचित ही नहीं कराते. लिहाजा बेटे और लड़कों का समुदाय इससे अनजान रह जाता है. हालात बदले हैं और महिलाओं ने चुप रहना छोड़ दिया है. यह ताकत उसे आर्थिक स्वतंत्रता से मिली है.

महिलाएं अपने समाजिक, आर्थिक और यौन अधिकारों को हासिल करने को तत्पर दिख रही हैं. वे इतनी आसानी से अपनी जगह छोड़ती नहीं दिखतीं. महिलाओं और पुरुषों में अब एक वास्तविक पार्टनरशिप दिख रही है. खास कर वर्ष 2000 या इसके बाद पैदा हुए बच्चों में. इंटरनेट और सूचना क्रांति से लड़कियों की आवाज और मुखर हुई है. निर्भया मामले में हम यह देख चुके हैं. और यह भी देखा कि कैसे लड़कियों और लड़कों दोनों ने इस मामले में कंधा से कंधा मिलाकर संघर्ष किया. आंखी लिखती हैं कि आजादी की 70वीं वर्षगांठ पर उम्मीद की जा सकती है कि महिला और पुरुष के साथ मिलकर इस देश में रेप और दूसरी सामाजिक बुराइयों से लड़ेंगे. पुरुषों के बीच जेंडर सेंसिविटी बढ़ेगी और स्त्री के नजरिये से चीजों को देखेंगी. महिला और पुरुषों का एक होना ही इस देश की आत्मा को बचाएगा.

3. पॉलिसी एक्शन का इंतजार

इंडियन एक्सप्रेस में छपने वाले अपने कॉलम अक्रॉस द आइल में पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने एक बार फिर सरकार की आर्थिक नीतियों को घेरा है. उन्होंने लिखा है कि देश सरकार से पॉलिसी एक्शन का इंतजार कर रहा है. चिदंबरम लिखते हैं यह बड़े दुख की बात है कि सरकार के रवैये से आरबीआई के गवर्नर को वक्त से पहले जाना पड़ रहा है. लेकिन क्या सरकार आने वाले गवर्नर का काम आसान करने के लिए कोई कदम उठा रही है. मेरे ख्याल से सरकार देश को बताने के बाध्य है कि वह देश में धीमी मांग को तेज करने, रुकी हुई परियोजनाओं में रफ्तार लाने और धीमे क्रेडिट ग्रोथ को बढ़ाने के लिए क्या करने जा रही है. वह ऊंची खाद्य महंगाई को रोकने और मैन्यूफैक्चरिंग की दुर्दशा सुधारने के लिए क्या कर रही है. नौकरियां बढ़ाने के लिए वह क्या कदम उठाने जा रही है. सरकार को यह बताना पड़ेगा ताकि रिजर्व बैंक के अगले गवर्नर और मॉनेटरी पॉलिसी कमेटी नीतिगत ब्याज दरों में कटौती कर सकें.

चिदंबरम ने मोदी सरकार को सलाह देते हुए लिखा है- सरकार को तीन संकेतकों पर हर महीने नजर रखनी होगी. पहला- कितनी रुकी हुई परियोजनाएं कॉमर्शियल ऑपरेशन डेट की ओर बढ़ी हैं. दूसरा- मौजूदा दौर में इंडस्ट्री की उपयोग क्षमता की क्या हालत है और तीसरा- कितनी नई फैक्टरियों ने उत्पादन शुरू किया है और कितने नए रोजगार पैदा हुए हैं.

रिजर्व बैंक के गवर्नर का यह कहना सही है कि वह पॉलिसी एक्शन का इंतजार कर रहे हैं. उन्होंने जो नहीं कहा वह साफ है- सरकार नीतिगत कदम उठाएगी तभी वह रिजर्व बैंक की पॉलिसी रेट में कटौती करेंगे. रघुरामराजन की विदाई की ओर इशारा करते हुए उन्होंने लिखा है-मैसेंजर का संदेश साफ है. आज से 20 दिन बाद मैसेंजर चला जाएगा. रह जाएगा तो सिर्फ उसका मैसेज.

4. नहीं बदले हालात

अमर उजाला में वरिष्ठ पत्रकार पुरुषोत्तम दास ठाकुर ने ओडिशा की आंखें खोलने वाली तस्वीर पेश है. पूर्वी भारत के इस गरीब राज्य में पिछले दो दशकों में जमीनी हालत नहीं बदले हैं. ठाकुर राज्य के बरलाबहेली के उस शख्स की तलाश में निकलते हैं, जिसकी मां बालमती की 1996-97 में भूख से मौत हो गई थी. गूंधर नाम का वह शख्स उस समय छह साल का था. गांव की एक पड़ोसी महिला ने बताया कि गूंधर अब एक राइस मिल में काम करता है.

बीस वर्ष बाद गूंधर 25-26 साल का हो चुका है. ऐसा लगा मानो वह बचपन के कुपोषण से अभी तक उबर नहीं पाया है. उसका घर अब भी मिट्टी और खपरैल वाला ही है. ठाकुर ने उसे बीते दिनों की याद दिलाई तो उसने कहा कि उसे याद है. उसके मां-बाप भूखे-प्यासे बीमार हो गए थे और मां चल बसी थी. मां-बाप के मरने के बाद गूंधर के बारे में ठाकुर ने खबर लिखी थी और प्रशासन ने उसे एक आश्रम स्कूल में भर्ती करवा दिया था. लेकिन जब वह घर आता तो खाने के लाले पड़ जाते. वह 50 रुपये रोजाना महीने पर होटल में काम करने लगा, जहां उसे खाना भी मिलता था. अब वह एक राइस मिल बोरी सिलने का काम करता है. उसे रोजाना 80 रुपये मिलते हैं. भरी बोरियां ढोने के 130 रुपये मिलते हैं.

लेकिन बचपन से कुपोषण का शिकार गूंधर यह काम नहीं कर पाता. ओडिशा में तमाम विकास परियोजनाओं और औद्योगीकरण के बावजूद ठाकुर का यह ब्योरा बताता है कि राज्य में गरीबों की रोजमर्रा की जिंदगी का संघर्ष कम नहीं हुआ है. अमर उजाला के देशकाल पेज पर छपे ठाकुर के इस लेख से देश की जमीनी हालात का पता चलता है. देश के पिछड़े राज्यों में गरीबों की रोजमर्रा की जिंदगी के संघर्ष की कहानी काफी कुछ कह जाती है.

5. मेंटल हेल्थ को तरजीह दें

द हिंदू ने शनिवार के अपने एडिटोरियल में मेंटल हेल्थ केयर बिल, 2016 के राज्यसभा में पारित होने का जिक्र किया है. एडोटिरयल में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर राज्य की जिम्मेदारी निर्धारित करने और इसके शिकार लोगों और उनके परिवार को ज्यादा अधिकार देने के प्रावधानों की तारीफ की गई है.

द हिंदू का कहना है कि इस बिल से मानसिक बीमारियों के इलाज तक लोगों की पहुंच और बढ़ेगी. भारत में मानसिक स्वास्थ्य के इलाज को लेकर स्थिति काफी खराब है. इसमें द लासेंट का हवाला देकर कहा गया है कि भारत और चीन दोनों ने मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी अपनी प्रतिबद्धताओं को दोहराया है. लेकिन चीन मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं की कवरेज बढ़ाने में हमसे काफी आगे पहुंच गया है. भारत अपने स्वास्थ्य बजट का सिर्फ एक फीसदी से थोड़ा ही मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च करता है. अगर मेंटल हेल्थ बिल के प्रावधानों को कारगर बनाना है तो यह स्थिति बदलनी होगी. संपादकीय में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर स्थानीय और राज्य स्तरीय अस्पतालों की खराब स्थिति का भी जिक्र किया गया है और कहा गया है वहां कई बार बेहद जरूरी दवाएं भी मुहैया नहीं होती और न काउंसलर की व्यवस्था. आधुनिक जीवनशैली के तनावों को देखते हुए भारत में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने पर हिंदू का यह एडोटरियल बेहद सामयिक है.

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