जेहादी सोच में है आतंकवाद
इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह लिखती हैं कि 9/11 वाला जेहादी हमला भुलाया नहीं जा सकता. मगर, जिस जेहादी सोच के कारण यह हमला हुआ, उसे दुनिया याद नहीं कर रही है. अगर यह सोच याद की जाती तो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इतने प्यार से न कहते इमरान खान को कि कश्मीर समस्या का हल ढूंढने में वे मदद करने को तैयार हैं. भारत पर भी 26/11 वाले हमले के बाद से ही पाकिस्तान के साथ बातचीत का सिलसिला टूटा पड़ा है. एक के बाद एक सबूत सौंपे गये कि हमले का निर्देश पाकिस्तान में बैठकर दिया जा रहा था, मगर पाकिस्तान मानने को तैयार नहीं होता.
लेखिका का कहना है कि इमरान खान जब से प्रधानमंत्री बने हैं यही संदेश दे रहे हैं कि वे शांति चाहते हैं. मगर, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से वह नरेंद्र मोदी और भारत को बदनाम कर रहे हैं. वे आरएसएस की तुलना नाजी सोच से कर रहे हैं
लेखिका का मानना है कि अगर वे नाजी सोच की तुलना जेहादी सोच से करते, तो उनकी बात में वजन आता. जेहाद इस्लाम का आधार है जो बुतपरस्तों का खात्मा करना चाहता है, काफिरों को मारता है. यही वह सोच है जिस वजह से वर्ल्ड ट्रेड टावर ध्वस्त करने की आतंकी घटना होती है और इसी सोच की वजह से भारत और पाकिस्तान के बीच समस्या है. जेहादी सोच का त्याग किए बगैर भारत-पाकिस्तान के बीच शांति नहीं हो सकती.
चंद्रयान 2 के लिए रोना-धोना क्यों?
शोभा डे ने द टाइम्स ऑफ इंडिया में चंद्रयान 2 के रूप में बड़ी उपलब्धि पर अर्थपूर्ण लेख लिखा है. महज 400 मीटर दूर रह जाने के बाद जो रोना-धोना हुआ, उस पर उन्होंने प्रश्न उठाए हैं. उन्होंने जानना चाहा है कि किस तरीके से चांद पर पहुंचने से लोगों की जिन्दगी बदलने वाली थी? क्या हम पता लगा लेते कि भूखे लोगों को खिलाने के लिए हमारे पास भोजन ज्यादा है या कि बीमारों के लिए अस्पताल या फिर शिक्षा के लिए स्कूल बढ़ गये हैं? लेखिका ने लिखा है कि इसी दुनिया में कोरिया के युवाओं को पता तक नहीं था कि चंद्रयान 2 जैसी कोई बड़ी घटना हो रही है. वे अपने में मस्त दिखे.
लेखिका लिखती हैं कि प्रधानमंत्री के लिए कोई आवश्यकता नहीं थी कि वे वैज्ञानिक समुदाय को ‘सांत्वना’ देते. और, न ही वैज्ञानिकों के लिए रोने-धोने की आवश्यकता थी. इस अवसर का प्रचार-प्रसार करने की भी कोई जरूरत नहीं थी.
गले लगने और सुबकने या फिर इस बात पर बहस का कोई मतलब नहीं है कि कौन भाग्यशाली साबित हुआ और कौन नहीं. हमेशा उम्मीद रहती है. विक्रम लैंडर से सम्पर्क स्थापित करने की कोशिश जारी है. इसरो को मदद कर रहा है नासा. तब तक हम चांद तक उड़ने और तारों के साथ खेलने की कल्पना में हम खोए रह सकते हैं.
सफलता विरोधी, धनविरोधी मानसिकता छोड़नी होगी
चेतन भगत ने द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि भारत की अर्थव्यवस्था बुरे दौर में है. सुपर स्थिर सरकार में विकास दर दोहरे अंक में होने चाहिए थे, लेकिन यह 5 फीसदी पर आ पहुंची है. अमेरिका जैसे 3 प्रतिशत विकास दर वाले देशों के मुकाबले यह ज्यादा है लेकिन यह इस बात के लिए पर्याप्त नहीं है कि कारोबारी देश में अपना कारोबार बढ़ाएं. हर कुछ महीने बदल जाने वाली कर व्यवस्था ऐसी है कि कर अधिकतम है.
ऐसा महसूस होता है मानो कारोबारी माफियाराज चला रहे हों. आप रुपया नहीं बना सकते, सुपर सफल नहीं हो सकते. भारत में सुपर अमीरों को सबसे बुरा माना जाता है. आपकी आमदनी पर अधिकतम कर लिए जाते हैं. कई तरह के सेस जोड़ दिए जाते हैं.
सारा टैक्स चुका देने के बाद जो रकम रह जाती है वह होटलों में 28 फीसदी टैक्स और कार खरीदते वक्त 28 फीसदी टैक्स के रूप में वसूल लिए जाते हैं. जब जीडीपी की संख्या सामने आती है तो न ‘मेक इन इंडिया’ दिखता है और न महान भारत नजर आता है. निवेशक कहीं चले गये होते हैं. लेखक लिखते हैं कि हमने ऐसी अर्थव्यवस्था बनायी है जो निवेशक विरोधी है, धन निर्माण विरोधी है. लेखक सुझाव देते हैं कि कैपिटल गेन्स टैक्स हटाया जाए. जीएसटी कम से कम हो. हर क्षेत्र में विदेशी निवेश 100 फीसदी कर दिया जाए. कर वसूली गिरता है तो गिरने दें. जब अर्थव्यवस्था पटरी पर आएगी तो सबकुछ ठीक हो जाएगा. भारत तेज विकास कर सकता है. बस सफलता विरोधी और धन विरोधी मानसिकता को बदलना होगा.
एनआरआई सबसे बड़े देशभक्त
जी सम्पथ ने द हिन्दू में बताया है कि उनकी देशभक्ति किसी से कमतर नहीं रही है लेकिन किसी की भी देशभक्ति एनआरआई के बाद ही आती है. वे हिमेश रेशमिया को याद करते हैं कि बिना स्वार्थ के प्यार करना ही असल प्यार है जिस भावना को एनआरआई अपनी मातृभूमि भारत के लिए दिखाते रहते हैं.
जी सम्पथ लिखते हैं कि उनका दोस्त बचपन में आजाद भारत की सरकार को कोसा करता था. कहता था कि अंग्रेज होते तो कम से कम सड़कें अच्छी होती. लूट तब भी थी, लूट आज भी है. अब वही मित्र एनआरआई हो चुका है. उसे भारत की 5 प्रतिशत विकास दर अच्छी लगती है
वह जिस देश में रहता है वहां विकास दर 1 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा है. मित्र लेखक से पूछता है कि लोग मजे में तो हैं? लेखक बताते हैं कि खरीदने को पैसे नहीं हैं. मित्र आश्चर्य से चीखता है- क्या बात कर रहे हो? राफेल के लिए अरबों हैं, रूस से हथियार खरीद रहे हैं, चंद्रयान के लिए पैसा है, यहां तक कि सस्ता क्रूड ऑयल खरीदने के बजाए महंगा खरीदना तुम्हें पसंद है. फिर भी पैसे नहीं हैं? केवल उनके ही पास पैसे नहीं हैं जो देशविरोधी हैं. आगे लेखक का मित्र बताता है कि किस तरह रुपया कमजोर होता है तो उसकी डॉलरवाली आमदनी में इन्क्रीमेंट हो जाता है. भारत माता से प्यार करने के लिए उसके पास वाकई कई वजह हैं.
याद रहेंगे एके राय और नियोगी
रामचंद्र गुहा ने द टेलीग्राफ में शंकर गुहा नियोगी और एके राय को याद किया है और उस बहाने गांधीवाद, अम्बेडकरवाद और दूसरे तमाम तरह के वाद की भी याद दिलायी है. एके राय का हाल में ही निधन हुआ, जो झारखण्ड के धनबाद से कई बार सांसद चुने गये थे. शंकर गुहा नियोगी छत्तीसगढ़ में सक्रिय ट्रेड यूनियन नेता थे जिनकी 90 के दशक में हत्या कर दी गयी थी. लेखक एक बार एके राय के घर उनसे मिलने पहुंचे थे जहां वे तो नहीं मिले, लेकिन उनकी मुलाकात शंकर गुहा नियोगी से हुई थी जिन्होंने दरवाजा खोला था.
बंगाली लेखक मनोरंजन व्यापारी की रचना के माध्यम से लेखक ने शंकर गुहा नियोगी को याद किया है. वे बताया करते थे कि जय प्रकाश नारायण का सकारात्मक आंदोलन भी असफल रहा और नक्सलवादियों का नकारात्मक आंदोलन भी. उन दोनों से सीखकर ही उन्होंने ‘विनाश के अंत के लिए सृजन और सृजन के लिए विनाश’ का सिद्धांत अपनाया है.
वेतन की लड़ाई तो जीत ली जाती है लेकिन वह वेतन शराब में बर्बाद हो जाता है. इसलिए नशामुक्ति का अभियान जरूरी हो जाता है. इसी तरह पर्यावरण, जंगल से प्यार करने पर इसके दुश्मनों से रक्षा का भाव जगता है. शंकर गुहा नियोगी को छत्तीसगढ का गांधी कहे जाने के पीछे उनकी सोच ही बड़ी वजह रही है. लेखक का मानना है कि चाहे एके राय हों या शंकर गुहा नियोगी, वे एक जैसे थे. उनकी यादें सहेज कर रखने की जरूरत है.
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