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संडे व्यू: रोजगार पर अनोखे दावे, ब्रिटेन में चुनाव से सबक

पढ़ें करन थापर, तवलीन सिंह, पी चिदंबरम, इयान ब्रेमर और शंकर अय्यर के विचारों क सार

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चुनाव मैदान में डटे हैं ‘बूढ़े’ राष्ट्रपति

इयान ब्रेमर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में जो बाइडन की उम्मीदवारी की अटकलों पर लिखा है. 2024 के राष्ट्रपति चुनाव में चार महीने से भी कम समय बचा है. डेमोक्रेट्स अब राजनीतिक तूफान का सामना कर रहे हैं. डॉनल्ड ट्रंप के खिलाफ बहस में राष्ट्रपति जो बाइडन प्रभावशाली साबित नहीं हुए हैं. डेमोक्रेट्स अब जो बाइडन की जगह नये चेहरे की उम्मीद कर रहे हैं जो तभी संभव है जब स्वयं बाइडन राष्ट्रपति की दौड़ से हट जाएं. बाइडन की उम्र को लेकर भी चिंता बढ़ रही है. वे अभी 81 साल के हैं और पांच साल बाद 86 साल के हो जाएंगे. न्यूयॉर्क टाइम्स के संपादकीय बोर्ड ने जो बाइडन से राष्ट्रपति की दौड़ से बाहर निकलने का आग्रह किया है.  

ब्रेमर लिखते हैं कि जो बाइडन की जगह नया उम्मीदवार को लेकर भी चर्चा गरम है. उपराष्ट्रपति कमला हैरिस बाइडन से अधिक लोकप्रिय नहीं हैं और उन्हें किसी अन्य दावेदार के लिए किनारे करने से बड़ी संख्या में महिलाओं पर अल्पसंख्यक मतदाताओं के अलग होने का जोखिम है. कैलीपोर्निया के गवर्नर गेविन न्यूजॉम, मिशिगन के गवर्नर ग्रेचेन हावाइटमर, फ्लोरिडा के गवर्नर रॉन डेसेंटिस के नामों पर भी अटकलें हैं. पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा और बिल क्लिंट्न के समर्थन के सार्वजनिक प्रदर्शन से बाइडन के इरादे मजबूत हुए हैं. राष्ट्रपति अभी भी डॉनल्ड ट्रंप को हरा सकते हैं. ज्यादातर पोलस्टर्स का मानना है कि दूसरे कार्यकाल के लिए जो बाइडन बहुत बूढ़े हो चुके हैं.

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ब्रिटेन में चुनाव से सबक

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि यूनाइटेड किंगडम यकीनन दुनिया का सबसे बहु सांस्कृतिक समाज है. इसमें भारतीय मूल के प्रधानमंत्री, कई चांसलर, विदेशसचिव और गृह सचिव रहे हैं जो या तो अश्वेत या एशियाई हैं. हाल ही में हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए चुने गये सांसदों में से तेरह प्रतिशत अश्वेत/एशियाई या जातीय अल्पसंख्यक मूल के हैं जबकि पिछले सदन में यह संख्या 10% थी.

  • इनमें 29 भारतीय मूल के लोग हैं

  • 15 पाकिस्तानी मूल के हैं

  • 12 सिख हैं

  • फिर भी एशियाई आबादी का केवल 8%

  • अश्वेत 4% हैं

  • भारतीय मूल के लोग 3.1% हैं

  • पाकिस्तानी मूल के लोग 2.7% हैं

तुलनात्मक रूप से भारत की आबादी में मुसलमान लगभग 15% हैं और आनुपातिक रूप से लोकसभा में 74 मुस्लिम सांसद होने चाहिए. जबकि, हैं सिर्फ 24. 2019 में यह 26 था, 2014 में 23 था. हमारे 28 राज्यों में से किसी में भी मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं है, 15 में कोई मुस्लिम मंत्री नहीं है. 10 में सिर्फ एक है.

करन थापर लिखते हैं कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के पास एक भी मुस्लिम लोकसभा सांसद नहीं है. यूपी में जहां लगभग 20% मुस्लिम हैं, पार्टी के पास विधानसभा का एक भी मुस्लिम सदस्य नहीं है. 2017 में भी यही स्थिति थी. गुजरात में 1998 के बाद से किसी भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा है.

लेखक ने एक और तुलना की है. ब्रिटेन में निवर्तमान प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने इस्तीफा दे दिया. 2014 में भारत में कांग्रेस की सबसे बुरी हार के बाद किसी ने इस्तीफा नहीं दिया. सोनिया गांधी तीन और वर्षों तक अध्यक्ष बनी रहीं. अंतत: अपने बेटे के लिए रास्ता बनाया. 2022 तक गांधी परिवार से बाहर किसी नेता को चुनने के लिए चुनाव नहीं हुए. शशि थरूर की उम्मीदवारी पर नाराजगी जताई गयी. मल्लिकार्जुन खड़गे अध्यक्ष जरूर हैं लेकिन राहुल गांधी ही वह व्यक्ति हैं जो मायने रखते हैं. सोनिया गांधी बूढ़ी, अस्वस्थ और आम तौर पर संसद में बोलने के लिए अनिच्छुक हैं, कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष बनी हुई हैं.

तीन नये कानूनों पर चर्चा की अनदेखी क्यों? 

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि आपराधिक कानून संविधान की समवर्ती सूची का विषय है. अगर संसद द्वारा बनाए गये कानून और राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गये कानून एक-दूसरे के प्रतिकूल हैं तो संविधान का अनुच्छेद 254 लागू होगा. सवाल उठाते हुए पी चिदंबरम ने लिखा है कि नये तीनों कानूनों में भी पुराने कानूनों की ही नकल है. संशोधनों के माध्यम से भी समान नतीजे हासिल किए जा सकते थे. विधि आयोग की उपेक्षा का प्रश्न भी लेखक ने उठाया है. मृत्युदंड को बरकरार रखने, एकांत कारारावस जैसी क्रूर और अमानवीय सजा शुरू करने, व्यभिचार को आपराधिक कानून के दायरे में दोबारा लाने, मानहानि को आपराधिक कृत्य बनाने, सहमति के बगैर समलैंगिक संबंध अपराध नहीं होने जैसी बातों पर लेखक ने सवाल उठाए हैं. 

चिदंबरम ने लिखा है कि ‘राजद्रोह’ के अपराध को क्यों बढ़ाया और बरकरार रखा गया है? आतंकवाद के अपराध को सामान्य पराधिक कानून में क्यों लाया गया है जबकि यूएपीए के तौर पर विशेष अधिनियम है? लेखक का सवाल है कि चुनावी अपराध को नये कानून में क्यों शामिल किया गया है जबकि जनप्रतनिधित्व अधिनियम 1950 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 पहले से मौजूद हैं? लेखक ने ध्यान दिलाया है कि गिरफ्तार करने और पुलिस हिरासत की मांग करने के लिए अधिक छूट दी गयी है. जमानत नियम है, जेल अपवाद है- इसे और अधिक स्पष्ट करने की आवश्यकता थी. मजिस्ट्रेट को 40 से 60 दिन तक जमानत देने से इनकार करने का प्रावधान भी समझ से परे है. लेखक ने संघवाद के सिद्धांत का समर्थन करते हुए प्रांतीय अधिकारों के अतिक्रमण पर भी चिंता जताई है.

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महिलाओं के साथ खड़ा होना जरूरी 

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि पिछले सप्ताह जब सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ते का वही हक है जो इस देश की बाकी औरतों को है तो काफी खुशी हुई. कुछ साल पहले जयपुर में मिले अनुभव को साझा करते हुए लेखिका ने लिखा कि एक महिला अपनी छोटी बच्ची के साथ धूप में खड़ी थी, परेशान थी. उसे उसके शौहर ने घर से निकाल दिया था. दूसरी शादी कर ली थी. अधेड़ के साथ दूसरी बीवी बनने के बाद जब संतान के तौर पर बेटा न हुआ तो अब उसे घर से निकाला जा रहा था. पुलिस हस्तक्षेप से बात बनी थी. ऐसे मामलों में कानून ही सहारा होता है चाहे पीड़िता मुस्लिम हो या फिर हिन्दू.  

तवलीन सिंह शाहबानों मसले का जिक्र भी करती हैं जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने का काम किया गया था. मगर, बाद के दौर में सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग मामलों में लगातार महिलाओं का पक्ष लिया और ताजा मामला भी उसी कड़ी है. आज बदली हुई परिस्थिति में किसी को इस फैसले का विरोध करने का साहस नहीं है. लेखिका का मानना है कि धर्म के नाम पर जब कोई गलत काम होता है तो उसका विरोध करना जरूरी है वरना आज भी इस देश में नाबालिग लड़कियों की शादियों की प्रथा जायज होतीं और शायद सती प्रथा भी. ऐसा नहीं है कि भारत की महिलाओं का जीवन अब स्वर्ग बन गया है लेकिन प्रयास तो किया गया है कानूनी और सामाजिक तौर पर उन गलत प्रथाओं को समाप्त करने का, जो सदियों से चली आ रही थी धर्म-मजहब के बहाने. लेखिका ने बेटे की चाहत में जुड़वा बेटियों की हत्या की ख़बर का जिक्र भी करती हैं. एक मां की बेबसी और इस अपराध के होने देने में उसकी भूमिका का भी लेखिका ने जिक्र किया है. 

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रोजगार पर अनोखे दावे 

शंकर अय्यर ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारत की आबादी 1.4 अरब से अधिक हो चुकी है. अनुमान है कि 15 से 64 साल के बीच कामकाजी वर्ग से 68 प्रतिशत लोग आते हैं. इसका अर्थ है कामकाजी वर्ग 95 करोड़ के करीब है. बीते शुक्रवार को एक अंतरराष्ट्रीय बैंक ने क शोध रिपोर्ट में कहा कि युवा आबादी के लिए पर्याप्त रोजगार सृजित करने के लिए भारत को 7% से अधिक तेजी से विकास करने की आवश्यकता होगी. भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी वेबसाइट पर भारत KLEMS 2024 का डेटा प्रकाशित किया. पूंजी, श्रम, ऊर्जा, सामग्री और सेवाओं के इनपुट से यह विश्लेषण सामने आया बताया गया है. इसके अनुसार भारत ने 2023-24 में 4.67 करोड़ नौकरियां पैदा हुई हैं. 2022-23 में यह आंकड़ा 1.91 करोड़ और 2021-22 में 1.19 करोड़ था.  

शंकर अय्यर बताते हैं कि एनएसएस ने असंगठित क्षेत्र के द्योमों का वार्षिक सर्वेक्षण 2022-23 जारी किया जिसकी तुलना AUSUSE 2015-16 से करने पर पता चलता है कि 54 लाख नौकरियों की गिरावट असंगठित क्षेत्र में देखने को मिली है. KLEMS डेटाबेस पर सवाल है कि अगर नौकरियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है तो जीडीपी 8 प्रतिशत से ज्यादा रहने के बावजूद निजी खपत 4 प्रतिशत पर क्यों है? गुजरात के भरूच में एक कंपनी में 10 पदों के लिए 1800 युवाओं की कतार लगने पर भगदड़ क्यों? लखनऊ में 60 हजार नौकरियों के लिए 48 लाख आवेदन भी चौंकाता है.

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