‘टाइम’ में मोदी से भेदभाव
संबित पात्रा ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि तथ्यों को बताने में ही नहीं, छिपाकर भी पक्षपात या भेदभाव किया जाता है और नरेंद्र मोदी के साथ टाइम मैगजीन में हुई पत्रकारिता में विगत पांच साल के दौरान ‘भ्रष्टाचार’ पर खामोशी के जरिए यही किया गया है. वे लिखते हैं कि
2014 में नरेंद्र मोदी की जीत की सबसे बड़ी वजह ‘भ्रष्टाचार’ थी. जीत के बाद नरेंद्र मोदी ने ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ का नारा दिया था जिस पर वे टिके रहे और यही वजह है कि वाराणसी से नामांकन के वक्त उनके साथ अभूतपूर्व भीड़ थी.
संबित पात्रा ने टाइम मैगजीन में स्वच्छ भारत, जनधन और मद्रा योजना का उल्लेख नहीं होने पर भी आश्चर्य जताया है. उनका दावा है कि इन लोक कल्याणकारी कार्यक्रमों के जरिए हिन्दुस्तान बदल गया. जो काम इंदिरा गांधी न कर सकीं, वह संभव हो गया. नरेंद्र मोदी की सरकार ने गरीबों की जिंदगी बदल दी. संबित पात्रा ने लिखा है कि मोदी सरकार आने के बाद हर हफ्ते दंगे की आशंका निर्मूल साबित हुई. वे लिखते हैं कि नरेंद्र मोदी का जन्म लोकतांत्रिक प्रक्रिया से हुआ और देश की जनता में लोकतंत्र के प्रति गहरी आस्था है. एक बार फिर मोदी की मौजूदगी मतदान से ही बनी रहने वाली है.
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कांग्रेस और बीजेपी के इर्द-गिर्द है 2019 का चुनाव
रजीत एस भल्ला ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि 2014 में नरेंद्र मोदी की पार्टी बीजेपी को महज 31 फीसदी वोट मिले थे और गठबंधन को 38.5 फीसदी वोट. फिर भी बीजेपी को 282 सीटें मिली थीं और एनडीए को 324 सीटें. इसे लोकप्रिय जनादेश नहीं मिलने के तौर पर भी व्यक्त किया जाता रहा है. दोबारा ऐसा नहीं हो सकता और इसलिए मोदी का दोबारा जीतकर लौटना मुश्किल होगा.
क्या 2019 का चुनाव परम्परागत चुनाव होने वाला है? मतलब ये कि जिस तरह 1996 और 2009 के बीच कांग्रेस 145 सीटों के आसपास रही, 114 के स्कोर तक नीचे गयी और फिर 1999 में 206 सीटों पर उछलकर आ पहुंची थी, क्या उसी तरह एक बार फिर कांग्रेस 140 के आसपास सीटें लाने जा रही है? कांग्रेस ने 145 सीटें पाने के बाद भी 10 साल तक यूपीए का शासनकाल चलाया.
सुरजीत एस भल्ला मानते हैं कि 2019 के चुनाव का सबसे प्रमुख पहलू है ध्रुवीकरण. बीजेपी और कांग्रेस समर्थक के रूप में चुनाव लड़े जा रहे हैं. यूपी जैसे राज्य में कांग्रेस समर्थक का मतलब कांग्रेस न होकर महागठबंधन है. वे लिखते हैं कि यह बात 23 मई को ही बता चलेगी कि कांग्रेस का गुरुत्वीय आकर्षण बरकरार रहता है या कि उसकी जगह बीजेपी ने ले ली है. लेखक का मानना है कि चुनाव में विकास कोई बड़ा मुद्दा नहीं है. यहां तक कि रोजगार घटने जैसी बातों से भी बेपरवाह होकर युवा वोट करने जा रहे हैं.
कांग्रेस मजबूत होगी, बीजेपी कमजोर
हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि कोई भी पूर्वानुमान या एक्जिट पोल 23 मई के नतीजों की तस्वीर नहीं बता सकता. इसकी वजह ये है कि वोट शेयर में बहुत बड़ा फर्क नहीं होते हुए भी सीटों में बड़ा बदलाव, जैसा कि उत्तर प्रदेश में, हो सकता है. कांग्रेस, बीजेपी और गैरकांग्रेस-गैर बीजेपी दलों को लेकर तीन महीन बातें नोट की जा सकती हैं. पहली बात ये है कि 2014 के मुकाबले कांग्रेस की स्थिति में सुधार होगा, बीजेपी की सीटें चाहे जो हों, लेकिन इसका भौगोलिक फैलाव होगा और क्षेत्रीय दल अकेले चलने को लेकर दबाव में रहेंगे.
चाणक्य लिखते हैं कि हिंदी पट्टी के छह राज्यों में बीजेपी को 100 में से 97 सीटें मिली थीं जिस वजह से कांग्रेस मुक्त भारत का नारा चला था. मगर, एंटी इनकम्बेन्सी ने इस नारे को गलत साबित किया और स्थानीय बीजेपी सरकारों को सबक मिला. 2019 में कांग्रेस मुक्त का नारा खत्म हो चुका है.
कांग्रेस की वापसी और यूपी में एसपी-बीएसपी से बीजेपी को चोट लगने वाली है. फिर भी वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी. कांग्रेस को 2004 और 2009 में आंध्र प्रदेश से मिलने वाला फायदा नहीं है. क्षेत्रीय दल भी किसी न किसी के साथ चलने को मजबूर हैं आंध्र को छोड़कर. टीएमसी और बीजेडी को भी अगर बीजेपी से लड़ना है तो इसी रास्ते पर चलना होगा.
कारोबारी चंदे पर निर्भर हो रही है राजनीति
द टेलीग्राफ में अनूप सिन्हा लिखते हैं कि लोकतंत्र में नेताओं को जितनी जरूरत मतदाताओं की है उससे अधिक जरूरत कारोबारियों की है. वे लिखते हैं कि मतदाताओं का एक तबका लोकतंत्र से उदासीन होकर मतदान में हिस्सा नहीं लेता है, वहीं नोटा का विकल्प चुनने वाले मतदाता लोकतंत्र की प्रक्रिया में शरीक होकर भी किसी उम्मीदवार के साथ नहीं होता. व्यवस्था से दोनों नाराज हैं लेकिन एक निष्क्रिय है और दूसरा सक्रिय.
लेखक ने लिखा है कि चुनाव में कारोबारी वर्ग के लोग बढ़-चढ़कर चंदा देते हैं. इलेक्टोरल बॉन्ड आ जाने के बाद अब विदेश से चंदा लेना भी आसान हो गया है. मगर, इसका फायदा उस दल को होता है जो पहले से स्थापित हैं.
अगर कोई नयी पार्टी सामने आ जाए और उसे बड़ी सफलता मिले तो उसके सामने धन की दिक्कत हो जाती है. चंदे इकट्ठा करना भी मुश्किल हो जाता है. अब यह छिपी बात नहीं रह गयी है कि कारोबारी वर्ग राजनीतिक दलों में निवेश करते हैं और बाद में अपने मनोनुकूल नीतियां बनाने में हस्तक्षेप करते हैं. लेखक का मानना है कि वास्तव में राजनीतिक दलों को या राजनीति को जितनी आवश्यकता वोटरों की नहीं रह गयी है उससे अधिक आवश्यकता कारोबारियों से चंदे की हो गयी है.
मोदी को अर्थव्यवस्था के बारे में कोई समझ नहीं :चिदंबरम
पी चिदंबरम ने अमर उजाला में लिखा है कि नरेंद्र मोदी को अर्थव्यवस्था के बारे में कोई समझ नहीं है. वे न मैक्रो इकॉनोमिक्स समझते हैं और न ही उनमें नीतिगत बदलावों के परिणामों का पूर्वानुमान लगाने की क्षमता है. यहां तक कि वे अर्थशास्त्रियों से ज्यादा नौकरशाहों पर भरोसा करते हैं. इसी वजह से भारत गंभीर संकट में फंसता चला गया है.
चिदंबरम लिखते हैं कि वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कभी भी नोटबंदी की जिम्मेदारी नहीं ली है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह फैसला था. नोटबंदी की नाकामी को स्वीकार करने को आज कोई तैयार नहीं है. वे लिखते हैं कि
नोटबंदी और जीएसटी की वजह से छोटे व मझोले उद्योग बर्बाद हो गए. एनपीए की कठोरता अव्यवहारिक साबित हुई. वित्त मंत्रालय की ओर से जारी रिपोर्ट कार्ड का जिक्र करते हुए चिदंबरम ने लिखा है कि 2016-17, 17-18 और 18-19 में जीडीपी की वास्तविक दर 8.2 फीसदी से गिरकर 7.2 फीसदी और फिर गिरकर 7 फीसदी रह गयी. 2018-19 की चौथी तिमाही में अनुमानित विकास दर 6.5 फीसदी रह गयी थी. चिदंबरम ने वोटरों को आगाह किया है कि इस गंभीर स्थिति पर जरूर गौर करें.
अमेरिका का वेनेजुएला पर आर्थिक हमला
जनसत्ता में ब्रह्मदीप अलूने ने वेनेजुएला के संकट को सामने रखा है. वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था कच्चे तेल पर निर्भर है और अमेरिका ने वेनेजुएला से कच्चा तेल खरीदने से पूरी दुनिया को रोक दिया है. स्थिति यह है कि वेनेजुएला में महंगाई चरम पर है, करंसी का कई गुणा अवमूल्यन हो चुका है, खाने-पीने तक की दिक्कत से देश जूझ रहा है.
लेखक अलूने ने लिखा है कि वेनेजुएला ने राष्ट्रपति शावेज के नेतृत्व में 1998 के बाद से अमेरिका विरोध की नीति पर चलना शुरू किया था, जो वर्तमान राष्ट्रपति निकोलस मादुरो के नेतृत्व में भी जारी है. चीन, रूस जैसे देश वर्तमान शासक के साथ हैं तो अमेरिका खिलाफ में. भारत को भी अमेरिका ने वेनेजुएला से कच्चा तेल खरीदने से रोक रखा है. अमेरिका ने वेनेजुएला में विपक्ष के नेता ग्वाइदो को राष्ट्रपति मान लिया है. इस तरह वेनेजुएला में दो-दो राष्ट्रपति हैं. यूएन लाचार है और महाशक्तियों के बीच की लड़ाई में पिसने के लिए वेनेजुएला अभिशप्त है.
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क्रिकेट में ‘हितों के टकराव’
सुरेश मेनन ने द हिन्दू में बीसीसीआई को ‘हितों के टकराव’ को समझने की हिदायत दी है. कुछ साल पहले एक फर्जी ट्विटर हैंडल से हुए ट्वीट के जरिए यह मसला उठा था मगर इसने क्रिकेट में ‘हितों के टकराव’ पर बड़ी बहस छेड़ दी थी. ‘हितों के टकराव’ को लेकर 2012 में एक विधेयक भी पेश करने की कोशिश राज्यसभा में हुई थी लेकिन पारित नहीं हो सकी.
लेखक ने याद दिलाया है कि अधिक समय नहीं हुआ है जब बीसीसीआई के प्रेसिडेंट की अपनी आईपीएल टीम हुआ करती थी और उसमें उनके दामाद महत्वपूर्ण अधिकारी होते थे. तब मुख्य चयनकर्ता भी उसी टीम के ब्रांड एंबेसडर होते थे.
सुरेश मेनन ने ‘हितों के टकराव’ को लेकर जस्टिस मुकुल मुद्गल और जस्टिस लोधा के आदेश की याद दिलाते हैं. इसके बावजूद उन अधिकारियों पर सवाल खड़े करते हैं, जो आईपीएल में होने के साथ-साथ राज्य या राष्ट्रीय स्तर के क्रिकेट अधिकारियों में भी शामिल हैं. वे सचिन तेंदुलकर के इस तर्क से सहमत नहीं हैं कि क्रिकेट बोर्ड में सलाहकार रहते हुए कोई वित्तीय लाभ नहीं मिलता. लेखक का कहना है कि सुविधाएं तो मिलती हैं. इससे ज्यादा वे तर्क देते हैं कि क्रिकेट अकादमी चलाने वाले खिलाड़ी चयनकर्ता बनकर ‘हितों के टकराव’ से कैसे बच सकते हैं. लेखक ने ‘हितों के टकराव’ के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराते हुए इस समस्या की ओर देश का ध्यान दिलाया है.
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