इंद्रा साहनी के फैसले के लगभग तीन दशकों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 1992 में 9 न्यायाधीशों की पीठ की तय की गई 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा पर संवैधानिक संशोधनों और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के मद्देनजर फिर से विचार किया जा सकता है. जस्टिस अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली पीठ ने सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को नोटिस जारी किया कि क्या आरक्षण की मौजूदा 50 प्रतिशत सीमा को भंग करने की अनुमति दी जा सकती है. साथ ही पीठ ने केंद्र की आर्थिक रूप से कमजोर वर्गो (ईडब्ल्यूएस) के कोटे में संशोधन की भी बात कही.
मराठा आरक्षण को लेकर चल रही है सुनवाई
जस्टिस एल नागेश्वर राव, जस्टिस एस अब्दुल नाजेर, जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस एस रवींद्र भट की पीठ ने कहा कि राज्यों को अपनी बात रखने का मौका दिया जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणी तब आई जब कोर्ट मराठा आरक्षण की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा था.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये मामला केवल एक राज्य तक सीमित नहीं है, इसलिए अन्य राज्यों को भी सुनना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस मामले में इसके फैसले का व्यापक असर होगा. कोर्ट इस संभावना पर भी विचार करेगा कि क्या इंद्रा साहनी के फैसले को किसी बड़ी पीठ को रेफर किया जा सकता है. इस मामले में कोर्ट 15 मार्च से रोजाना सुनवाई शुरू करेगा.
क्या है पूरा मामला?
गौरतलब है कि पिछले साल 9 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में मराठाओं को नौकरी और शिक्षा के लिए आरक्षण लागू करने में स्थगन आदेश को संशोधित करने से परहेज किया था. कोर्ट ने कहा था कि "हमारा विचार है कि इस अपील में उठाए गए मुद्दों और उसके बाद के परिणामों को देखते हुए यह आवश्यक है कि इस अपील की अंतिम सुनवाई जल्द से जल्द पूरी की जाए."
याचिकाकर्ताओं ने जून 2019 में पारित बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दी है. उन्होंने दलील दी है कि शिक्षा और नौकरियों में मराठा समुदाय को क्रमश: 12 प्रतिशत और 13 प्रतिशत कोटा देने वाला अधिनियम वर्ष 1992 में सुप्रीम कोर्ट के 9 न्यायाधीशों वाली पीठ के फैसले में दिए गए उस सिद्धांत का उल्लंघन करता है, जिसने आरक्षण में 50 प्रतिशत की सीमा निर्धारित की थी.
हाई कोर्ट ने मराठा कोटे को बरकरार रखा था, जहां उसने फैसला दिया था कि नौकरियों में आरक्षण 12 प्रतिशत और शिक्षा में 13 प्रतिशत होना चाहिए.
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