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समलैंगिक सेक्स को अपराध मानने वाली धारा 377 पर फिर विचार करेगा SC

कोर्ट ने ये आदेश 10 अलग-अलग याचिकाकर्ताओं की याचिकाओं पर दिया गया है

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भारत
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सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा है कि वो समलैंगिक सेक्स को अपराध मानने वाली आईपीसी की धारा 377 पर फिर से विचार करेगा. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने आईपीसी की धारा 377 को बरकरार रखने वाले अपने साल 2013 के आदेश पर पुनर्विचार करने का फैसला किया है. उन्होंने कहा, "हमारे पहले के आदेश पर पुनर्विचार किए जाने की जरूरत है."

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क्या है धारा 377?

आईपीसी की धारा 377 अप्राकृतिक अपराधों का हवाला देते हुए कहती है कि जो कोई भी किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ प्रकृति के विपरीत यौनाचार करता है तो इस अपराध के लिए उसे उम्र कैद की सजा होगी या एक निश्चित अवधि जो दस साल तक बढ़ाई जा सकती है और उस पर जुर्माना भी लगाया जायेगा.

पिछले साल कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने आईपीसी की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) में बदलाव के लिए भारतीय दंड संहिता (संशोधन) विधेयक लाया था, लेकिन वो लोकसभा में पास नहीं हो पाया था.
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कोर्ट ने क्यों किया ये नया फैसला?

कोर्ट ने ये आदेश 10 अलग-अलग याचिकाकर्ताओं की याचिकाओँ पर दिया गया है जिसमें कहा गया है कि IPC की धारा 377 अनुच्छेद 21 (जीने का अधिकार) और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन है.

सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले अपने एक आदेश में दिल्ली हाईकोर्ट के समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के फैसले के विरुद्ध फैसला सुनाया था. इस मामले को एक बड़ी पीठ के पास भेजते हुए कोर्ट ने कहा कि 'जो किसी के लिए प्राकृतिक है वो हो सकता है कि किसी दूसरे के लिए प्राकृतिक न हो.'

कोर्ट में सोमवार को क्या हुआ?

सोमवार को पीठ धारा 377 को उस सीमा तक असंवैधानिक घोषित करने के लिये नवतेज सिंह जौहर की याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिसमें परस्पर सहमति से दो वयस्कों के यौनाचार में होने पर मुकदमा चलाने का प्रावधान है. जौहर की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार ने कहा कि ये दंडनीय प्रावधान असंवैधानिक है क्योंकि इसमें परस्पर सहमति से यौन संबंध बनाने वाले वयस्कों पर मुकदमा चलाने और सजा देने का प्रावधान है.

दातार ने कहा, आप परस्पर सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करने वाले दो वयस्कों को जेल में बंद नहीं कर सकते. उनका तर्क था कि यौनाचार के लिये अपने साथी का चयन करना मौलिक अधिकार है.

उन्होंने गैर सरकारी संगठन नाज फाउण्डेशन की याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट के 2009 के फैसले का भी हवाला दिया जिसमें इस प्रावधान को असंवैधानिक करार दिया गया था. हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट का फैसला निरस्त करते हुए इस प्रावधान को संवैधानिक बताया था.

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