उत्तराखंड (Uttarakhand) के जोशीमठ (Joshimath) में भू-धंसाव से पिछले कई दिनों से लोगों की जिंदगियां बीच मझधार में हैं, उनके मकानों में आईं दरारों ने उनकी रातों की नींद उड़ा दी है, लोगों की जिंदगी भर की कमाई दांव पर है और सरकार से मदद की गुहार लगा रहे हैं. कुछ ऐसी ही हाल स्वीडन के किरुना शहर का भी है. वहां भी लोगों के घरों में दरारें आ रही हैं, हैं. लेकिन दोनों में फर्क ये है कि वहां की इमारतों मूव किया जाएगा.
अब सवाल उठता है कि जब दोनों जगहों की समस्या एक जैसी है तो फिर स्वीडन की तरह भारत अपने लोगों का जान-माल बचाना चाहे तो क्यों ऐसा कदम नहीं उठा सकता? तो आइए यहां आपको भारत और स्वीडन में फर्क समझाते हैं.
किरुना
किरुना स्वीडन का सबसे उत्तरी शहर है. यह दुनिया में सबसे बड़ी लौह-अयस्क खदान के लिए प्रसिद्ध है. यहां भी कई जगहों पर 2016 से दरारें आनी शुरू हो गई हैं. इसकी वजह LKAB कंपनी द्वारा खदान का काम है. इसको देखते हुए प्रशासन ने साल 2026 तक लोगों को शहर से तीन किलोमीटर पूर्व में शिफ्ट करने की योजना बनाई है.अठारह हजार जनसंख्या वाले शहर में लगभग 3,000 घरों के साथ-साथ किरुना चर्च सहित इमारतों को शिफ्ट किया जाएगा. कुछ मकानों को ट्रकों पर उठाया जाएगा, जबकि अन्य को सावधानीपूर्वक नई जगह पर उतारना और पुनर्निर्माण करना होगा.
स्वीडन में इमारतों और मकानों की विशेषता यह है कि कई लकड़ी से बने होते हैं, जिसे बड़े ही आसानी से पूरा उठाया जा सकता है.
यहां भी लोगों को अपनी जगह छोड़ने का दुख है, उनके घरों को प्रशासन द्वारा तोड़ा गया लेकिन कई खुश हैं कि प्रशासन उनके घर और बिल्डिंग को नई जगह पर शिफ्ट करेगी. करीब 6 हजार लोगों को शिफ्ट करने की योजना है.
जोशीमठ का क्या हाल?
जोशीमठ शहर के जमीन में समाने का खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है. कई घरों की दीवारों और इमारतों में दरारें मोटी होती जा रही हैं. पिछले कुछ समय में यहां की सड़कों में भी दरारें दिखने लगी हैं, इससे स्थिति चिंताजनक हो गयी है, क्योंकि दरारें घर घंटे बड़ी होती जा रही हैं.
स्थिति को देखते हुए एनटीपीसी के तपोवन विष्णुगढ़ हाइड्रोपावर प्लांट, हेलांग बाइपास रोड के काम और 'ऑली रोपवे' के परिचालन को भी रोक दिया गया है. इस बीच, लगातार लोग घर खाली कर रहे हैं. इसमें कई राहत शिविर तो कई किराए के मकान में जा रहे हैं. शुक्रवार तक 117 लोग किराए के भवन में चले गए, जबकि 878 लोग अभी भी राहत शिविर में रह रहे हैं.
पूरे मामले को लेकर स्थानीय लोगों का आरोप है कि सरकार ने एनटीपीसी के ताबड़तोड़ निर्माण को लेकर उनकी चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया, जिससे ये स्थिति हुई है.
बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2013 में भी चिंता व्यक्त की गई थीं कि हाइड्रोपावर परियोजना से जुड़ी सुरंगे उत्तराखंड में तबाही ला सकती हैं. उस समय ये प्रोजेक्ट रोक दिए गए थे. जोशीमठ नगरपालिका ने दिसंबर, 2022 में कराए गए सर्वे में पाया कि इस तरह की आपदा से 2882 लोग प्रभावित हो सकते हैं. 7 फरवरी, 2021 को चमोली में आई आपदा के बाद से पूरी नीति वैली में जमीन में दरार दिखने लगी.
इससे पहले साल 1970 में भी जोशीमठ में जमीन धंसने की घटनाएं सामने आई थीं.उस समय तात्कालीन गढ़वाल कमिश्नर महेश मिश्रा की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी. इस कमेटी ने साल 1978 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि जोशीमठ, नीति और माना घाटी में बड़ी निर्माण परियोजनाओं को नहीं चलाना चाहिए क्योंकि ये क्षेत्र मोरेंस (छोटी पर्वत श्रृंखला) पर टिके हैं.
भारत क्यों नहीं कर सकता?
पहला दोनों देशों के हालातों (आर्थिक) में अंतर है. दूसरा 'जोशीमठ' में 'किरुना' की तरह भवन नहीं बने हैं, जिसे एक जगह से दूसरे जगह पर शिफ्ट किया जा सके. स्वीडन टेक्नॉलॉजी के मामले में भारत से आगे हैं. साथ ही, वहां की स्थिति भारत जैसी नहीं है. स्वीडन में रहन-सहन का स्तर ऊंचा है. सरकार समाज कल्याण पर ध्यान देती है.
उदाहारण के तौर पर किरुना में दरारें 2016 से आ रही हैं और सरकार लोगों को शिफ्ट 2026 तक पूरे रोडमैप के साथ करेगी, जबकि जोशीमठ में 1970 में पहली बार दरारें आई थीं, लेकिन आज तक उस पर कुछ नहीं हुआ और बिना किसी योजना के लोगों को राहत शिविर में भेजा जा रहा है.
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