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संडे व्यू: भारत के बड़े कारोबारियों का कितना दबदबा? यूक्रेन युद्ध के नतीजे गंभीर

संडे व्यू में पढ़ें टीएन नाइनन, संजय बारू, प्रताप भानु मेहता, अमित भादुड़ी और अदिति फडणीस के विचारों का सार.

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भारत
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अरबपतियों का राज

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में बीते दिनों दो घोषणाओं की ओर ध्यान दिलाया है. एक है टाटा के स्वामित्व वाली एअर इंडिया की 470 यात्री विमानों की खरीद के ऑर्डर और 370 विमानों की खरीद का विकल्प रखने वाला सौदा. दूसरा है मुकेश अंबानी, कुमार मंगलम बिड़ला और टाटा समेत विभिन्न कारोबारी घरानों द्वारा एक ही राज्य उत्तर प्रदेश में 3.5 लाख करोड़ रुपये के निवेश की प्रतिबद्धता जताना.

सवाल उठता है कि भारत के बड़े कारोबारी घरानों का कितना दबदबा है? क्या देश की महत्वाकांक्षाएं इन कारोबारी समूहों की सफलताओं पर निर्भर हैं?

एक आंकड़े के हवाले से नाइनन लिखते हैं कि गौतम अडानी की कंपनियां देश के कुछ सबसे बड़े बंदरगाहों का संचालन करती हैं, 30 फीसदी अनाज का भंडारण करती है, बिजली वितरण के पांचवें हिस्से को संभालती है, कॉमर्शियल एअर ट्रैफिक का चौथाई हिस्सा उसके जिम्मे है और देश के कुल सीमेंट जरूरत के पांचवें हिस्से का उत्पादन करती है. रिन्यूएबल एनर्जी का पांचवां हिस्सा उत्पादन भी यह समूह चाहता है और इसके लिए 4.5 लाख एकड़ जमीन की चाहत रखती है, जो दिल्ली राज्य के भूभाग से बड़ा है.

लेखक का कहना है कि मौजूदा दौर में अडानी का मामला अति महत्वाकांक्षा नजर आता है. दक्षिण कोरिया, जापान और रूस के अनुभव ने दिखाया है कि कारोबारी समूह का मॉडल अक्सर राजनीतिक संपर्कों के साथ आता है.

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Adani समूह को तलाशना होगा सामाजिक आधार

संजय बारू द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि किसी कंपनी या ब्रांड की पहचान उपभोक्ता बाजार या शेयर बाजार में उसकी लोकप्रियता से होती है. इसके लिए सामाजिक समर्थन जरूरी है. इसमें वक्त लगता है.

उन्होंने अपना सामाजिक आधार नहीं बनाया. न तो यह ‘हमारा बजाज’ या ‘ओनली विमल’ वाली लीग में शामिल है और न ही धीरूभाई अंबानी की तरह अडानी के पास वैसे शेयर धारक हैं, जिनके लाभुकों से ऑडिटोरियम भर जाए.

संजय बारु याद दिलाते हैं जब जॉर्ज फर्नांडीज ने 1978 में कोका कोला और आईबीएम से भारत छोड़कर चले जाने को कहा था. तब उनके निशाने पर उन कंपनियों से ज्यादा अमेरिका था. भारतीय कंपनियों को भी भारत का प्रतिनिधि होने के कारण नफा या नुकसान उठाना पड़ा है- टाटा को बांग्लादेश में, जीएमआर को मालदीव में, डाबर को नेपाल में और अडानी को श्रीलंका में.

संजय बारू याद दिलाते हैं कि टाटा समूह ने 1950 के दशक में स्वतंत्र पार्टी को फंडिंग की थी. जवाहर लाल नेहरू ने तब कहा था कि, 'स्वतंत्र पार्टी बहुत दूर तक चलने वाली नहीं है.' जीडी बिड़ला ने भी कोलकाता में चैंबर ऑफ कॉमर्स की बैठक में कहा था कि, 'कोई स्वतंत्र पार्टी या जनसंघ कांग्रेस का स्थान नहीं लेगी. आप कांग्रेस को तोड़ सकते हैं, कमजोर कर सकते हैं. इससे कम्युनिस्ट सत्ता में आएंगे जो सबसे पहले आपका गला दबाएंगे.' निश्चित रूप से अडानी को नरेंद्र मोदी की नजदीकी का फायदा मिला, लेकिन इसी का खामियाजा भी वे भुगतते नजर आ रहे हैं.

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दूसरे वर्ष में यूक्रेन युद्ध के नतीजे गंभीर

प्रताप भानु मेहता द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि जब यूक्रेन पर रूस ने हमला किया था तो दुनिया इसके अंजाम को लेकर चिंतित थी. एक साल बाद लोगों का ध्यान इस युद्ध से हटा है. नाटो की रणनीति यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति करते हुए खुद युद्ध से दूर रहने की है. यूक्रेन के लोगों की बहादुरी ने चौंकाया है जो बर्बर रूसी हमले का सामना कर रहे हैं. रूसी सैन्य शक्ति की यूक्रेनियों ने पोल खोल दी है.

अब युद्ध के दूसरे साल में प्रवेश कर जाने के बाद यह आशंका बढ़ गई है कि रूसी और बर्बर हो सकते हैं. अगर पुतिन को लगा कि उनकी हार हो रही है तो वे युद्ध को और विध्वंसक बना सकते हैं.

मेहता लिखते हैं कि यूरोप ने ऊर्जा आपूर्ति का तरीका ढूंढ लिया है. विभिन्न देशों के बीच कारोबार में नयी करेंसी स्वैप करने की व्यवस्था ने जन्म लिया है. इसके अलावा रूस पर आर्थिक प्रतिबंध का असर पड़ता नजर नहीं आया है. इस युद्ध ने अमेरिका के हाथ बांध दिए हैं. अमेरिका ने अपने मित्र देशों भारत और इजराइल को लोकतांत्रिक मूल्यों से समझौता करने को संरक्षण दिया है. यूक्रेन युद्ध से वर्चस्व के लिए प्रतिद्वंद्विता बढ़ी है और रूस में युद्ध जीतने का विश्वास घटा है. चीन का बैलून अमेरिका के आसमान पर और अमेरिकी जहाज का चीन के चारों ओर चक्कर लगाना महत्वपूर्ण घटनाएं हैं.

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फासीवाद और तानाशाही का फर्क

अमित भादुड़ी द टेलीग्राफ में लिखते हैं कि फासीवाद और तानाशाही पर भ्रमित होना आम है. सर्वहारा वर्ग की तानाशाही वाला मार्क्सवादी नजरिया एक वर्ग, खासकर एक पार्टी की बात करता है जो अक्सर सुप्रीम लीडर पर आकर खत्म हो जाता है. फासीवाद में हमेशा एक सुप्रीम लीडर होता है जो पार्टी को अपने मनमुताबिक ढालता है. व्यक्तिगत अधिनायकवाद तानाशाही और फासीवाद में साझा तत्व है. फासीवाद में दुश्मन की अवधारणा बनाकर सत्तावादी प्रवृत्तियों को मजबूत किया जाता है. दुश्मन के खतरे को बड़ा करना फासीवाद के लिए आवश्यक शर्त है.

वीडी सावरकर और एमएस गोलवलकर ने हिंदुओं पर खतरे के तौर पर मुसलमानों को चुना था, अंग्रेजों को नहीं. फासीवाद तभी मजबूत होता है जब लक्षित आबादी अस्तित्व को खतरा वाली धारणा का शिकार हो जाता है. संदेश बनने लगता है कि ‘वे’ खतरा हैं ‘हमारे लिए’.

अमित भादुड़ी लिखते हैं कि जब दुश्मन दूसरे देश के हों तो मस्क्यूलर नेशनलिज्म की आवश्यकता होती है. इसके साथ हेट स्पीच जुड़ जाती है. ‘आतंकवाद के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा’ जैसी सोच पैदा होती है और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ को परिभाषित करने का अधिकार सरकार के पास होता है. गोधरा की घटना को हिंदुओं पर हमला के तौर पेश किया गया था. जबकि, बालाकोट में सर्जिकल स्ट्राइक मस्क्यूलर नैशनलिज्म का उदाहरण है. बगैर आर्थिक समर्थन के ये चीजें आगे नहीं बढ़ सकतीं.

गौतम अडानी ने सही कहा कि हिंडनबर्ग की रिपोर्ट सिर्फ उनपर नहीं, देश पर हमला है. बस वे कहना भूल गए कि ये हमला मोदी का समर्थन कर रहे अरबपतियों पर है. हिंदू राष्ट्र प्रॉजेक्ट ‘रिसर्जेंट गुजरात’ का अगला पड़ाव है. तब कम मशहूर अडानी उनके साथ खड़े थे. ‘विकास का गुजरात मॉडल’ तभी खड़ा हुआ था.

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फडणवीस या पवार में कोई तो बोल रहा झूठ!

अदिति फडणीस बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखती हैं कि उपमुख्यमंत्र देवेंद्र फडणवीस हाल में कहा था कि 2019 में शरद पवार को पूरी जानकारी थी कि उनके भतीजे के साथ मिलकर महाराष्ट्र में सरकार बनायी जा रही थी. पवार ने इसका समर्थन भी किया था. फडणवीस के दावे को शरद पवार ने गलत बताया है. 23 नवंबर 2019 को राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने अल सुबह देवेंद्र फडणवीस को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और अजित पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई थी. एक बात तय है कि देवेंद्र फडणवीस और शरद पवार में कोई एक तो झूठ बोल रहा है.

अदिति फडणीस लिखती हैं कि 2012 में मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने घोषणा की थी कि उनकी सरकार महाराष्ट्र की सिंचाई परियोजनाओं पर श्वेत पत्र लाएगी. यह श्वेत पत्र जिस मंत्री पर निर्णय देता वह थे अजीत पवार. इस घोषणा ने संभवत: शरद पवार को भी चौंकाया हो.

फडणीस लिखती हैं कि प्रियम गांधी-मोदी की हालिया किताब में देवेंद्र फडणवीस के दावों की पुष्टि की गयी है कि अजित पवार को अपने चाचा का पूरा समर्थन हासिल था. इसमें देवेंद्र फडणवीस की ओर से शरद पवार को किए गए फोन का भी ब्योरा है. इसमें पवार और नरेंद्र मोदी के बीच बातचीत का भी जिक्र है, जिससे पता चलता है कि बातचीत उन्नत अवस्था में थी. शरद पवार के बारे में फडणवीस का आकलन तिरस्कारपूर्ण रहा है.

एक मीडिया कॉनक्लेव में देवेंद्र ने कहा था, “उन्हें (शरद पवार को) शतरंज खेलना पसंद है और मुझे यह खेल ज्यादा पसंद नहीं.” बृहन्मुंबई महानगरपालिका का चुनाव कुछ हफ्ते बाद होने हैं. यह महाराष्ट्र के सियासत में विभिन्न दलों और नेताओं की बड़ी परीक्षा होगी.

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