फटा हुआ सफेद बैनर, एक लीफलेट और भूरे रंग का कार्टन...सब फर्श पर बिखरे पड़े हैं. साथ ही तमाम दूसरी चीजें भी फैली हुई हैं. कश्मीरी न्यूज आउटलेट The Kashmir Walla की वेबसाइट को कथित रूप से ब्लॉक किए जाने के बाद से इंटरनेट पर वायरल हो रही तस्वीरें, इस वेबसाइट के पत्रकारों के जज्बातों की गवाही देती हैं.
कमरों की दीवारें उजड़ गई हैं. सभी चीजें मौजूद होने के बाद भी दीवारें सूनी. उन पर अखबारों की पुरानी पीली कतरनें चिपकी हैं. ऐसा लगता है, मानो कुछ तो नदारद है. हां, वह गुम हुई चीज है, प्रेस की आजादी.
सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल अप्रैल में कहा था कि लोकतांत्रिक गणराज्य के मजबूत कामकाज के लिए आजाद पत्रकारिता अहम होती है. मलयालम न्यूज चैनल मीडियावन के प्रसारण पर केंद्र सरकार के प्रतिबंध को रद्द करते हुए अदालत ने यह टिप्पणी की थी.
अभी पांच महीने भी नहीं बीते, The Kashmir Walla के स्टाफ का यह बयान आया है:
पिछले 18 महीनों से हम एक बुरे सपने के साथ जी रहे हैं... और फिर शनिवार, 19 अगस्त, 2023 को हमें एक और बड़ा झटका लगा. हमें पता चला कि हमारी वेबसाइट और सोशल मीडिया एकाउंट का एक्सेस ब्लॉक कर दिया गया है.
आगे कहा गया कि जब हमने शनिवार सुबह अपने सर्वर प्रोवाइडर से संपर्क किया और उससे पूछा कि thekashmirwalla.com का एक्सेस क्यों नहीं हो रहा तो हमें पता चला कि हमारी वेबसाइट को IT एक्ट, 2000 के तहत इलेक्ट्रॉनिक्स और इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी मंत्रालय ने भारत में ब्लॉक कर दिया है.
बयान में यह भी बताया गया है कि The Kashmir Walla के करीब पांच लाख फॉलोवर्स वाले फेसबुक पेज को हटा दिया गया है. और ‘कानूनी वजहों से’ हमारे ट्विटर अकाउंट के साथ भी ऐसा ही हुआ.”
आखिर में The Kashmir Walla को श्रीनगर में स्थित अपने दफ्तर की बिल्डिंग के लैंडलॉर्ड से, दफ्तर खाली करने का नोटिस मिला.
ब्लॉक किया गया, मिटाया गया और खत्म किया गया?
इस तरह, एक ही झटके में The Kashmir Walla को ब्लॉक कर दिया गया, सोशल मीडिया से हटा दिया गया और दफ्तर से निकाल बाहर किया गया, लेकिन The Kashmir Walla को लगा यह कोई पहला झटका नहीं है.
सज्जाद गुल ने ट्रेनी रिपोर्टर के तौर पर TKW के साथ कुछ वक्त के लिए काम किया था. जनवरी 2022 में पहले गिरफ्तार किया गया और फिर बाद में उनको PSA के तहत हिरासत में लिया गया. उन्नीस महीने बाद भी वह सलाखों के पीछे हैं.
फरवरी 2022 में ऑर्गनाइजेशन के संपादक फहद शाह ने अपने माता-पिता से कहा था कि उन्हें पुलवामा पुलिस स्टेशन में एक रात बितानी पड़ सकती है, जहां उन्हें उनकी एक न्यूज रिपोर्ट्स के बारे में पूछताछ के लिए बुलाया गया था. लेकिन अठारह महीने से अधिक समय हो गया है और शाह अभी तक घर नहीं लौटे हैं.
TKW ने अपने बयान में कहा कि...
“हमारे फाउंडर- संपादक फहद शाह को फरवरी 2022 में एक मुठभेड़ की कवरेज के लिए गिरफ्तार किया गया था. यह उनकी एक के बाद एक गिरफ्तारियों की शुरुआत थी. चार महीने के भीतर उन्हें पांच बार गिरफ्तार किया गया. उनके खिलाफ गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून के तहत तीन और सार्वजनिक सुरक्षा कानून (PSA) के तहत एक एफआईआर दर्ज की गई है.”
PSA के तहत फहद शाह के हिरासत में रहने के करीब एक साल बाद जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने पूरी कार्यवाही को रद्द किया और कहा कि “मौजूदा मामला ऐसा है, जैसे किसी ने अपने दिमाग का इस्तेमाल किया ही नहीं.” लेकिन फहद शाह अब भी जेल में हैं क्योंकि उनके खिलाफ UAPA के तहत मामले दर्ज हैं.
नया मामला क्या है?
बयान के मुताबिक TKW के स्टाफ को इस बात की जानकारी नहीं है कि उनकी वेबसाइट को भारत में क्यों ब्लॉक किया गया है या उनके सोशल मीडिया अकाउंट को क्यों हटा दिया गया है/रोक दिया गया है.
बयान में आगे कहा गया कि हमें इन कार्रवाइयों के संबंध में कोई नोटिस नहीं दिया गया है और न ही पब्लिक डोमेन में अब तक ऐसा कोई आधिकारिक आदेश है.
आम तौर पर ऑनलाइन कंटेंट को IT कानून की धारा 69ए के तहत ब्लॉक किया जाता है. यह धारा केंद्र सरकार को यह अधिकार देती है कि वह किसी कंप्यूटर रिसोर्स से किसी इनफॉरमेशन को ब्लॉक करने का निर्देश दे सकती है.
केंद्र सरकार या कोई अधिकृत अधिकारी यह आदेश दे सकते हैं, अगर उन्हें यह लगता है कि ऐसा करना "आवश्यक या उचित है". और यह "भारत की संप्रभुता और अखंडता, भारत की रक्षा, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों या सार्वजनिक व्यवस्था के हित में या उपरोक्त से संबंधित किसी भी संज्ञेय अपराध के उकसावे को रोकने के लिए होना चाहिए."
इसके क्या मायने हैं
इसके यह मायने हैं कि "राष्ट्रीय सुरक्षा" जैसी वजह से पूरे न्यूज आर्गेनाइजेशन पर रोक लगाई जा सकती है. वैसे हमें अभी तक यह तो नहीं पता कि सरकार ने किस वजह से TKW को ब्लॉक किया है लेकिन कई मामलों में इन वजहों की दुहाई देकर ऐसे कदम उठाए जा चुके हैं.
MediaOne मामले में, आईटी एक्ट के तहत तो इसे ब्लॉक नहीं किया गया था लेकिन केंद्र सरकार ने चैनल को सिक्योरिटी क्लीयरेंस देने से इनकार कर दिया था. इस मामले में केंद्र सरकार की दलील थी, 'राष्ट्रीय सुरक्षा पर अप्रत्याशित परिणाम'.
अपने फैसले के बचाव में राज्य ने अदालतों को सीलबंद लिफाफे में कुछ रिपोर्ट्स भी सौंपी थीं.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे मंजूर नहीं किया. उसने इस न्यूज़ चैनल के प्रसारण पर लगे प्रतिबंध को रद्द किया और कहा,
"नागरिकों को उनके अधिकारों से वंचित करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसे कानून के तहत अनुमति नहीं दी जा सकती है."
इसके अलावा अदालत ने 'सीलबंद लिफाफे' को नामंजूर कर दिया, और कहा कि "...यह गोपनीयता और अपारदर्शिता की संस्कृति को कायम रखता है, और इसके आधार पर दिए गए फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती."
सुप्रीम कोर्ट ने भी प्रेस की आज़ादी पर खास जोर दिया था और कहा था कि "प्रेस की आज़ादी पर प्रतिबंध नागरिकों को एक ही स्तर पर सोचने के लिए मजबूर करता है." आसान शब्दों में कहें तो, प्रेस की आज़ादी की मौत, आज़ाद विचारों की भी मौत है.
यह सब इतना अहम क्यों है?
सुप्रीम कोर्ट के MediaOne फैसले से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं:
(1) गंभीर "राष्ट्रीय सुरक्षा" जैसे दावों के सामने प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत हमेशा फीका नहीं पड़ सकता
आईटी कानून की धारा 69ए की एक बहुत बड़ी आलोचना यह है कि इसके तहत आदेश पारित करने से पहले नागरिकों (जिनकी सामग्री को ब्लॉक/सेंसर किया जा रहा है) के सुनवाई के अधिकार को छीन लिया जाता है. ऑडी अल्टरम पार्टम या "दूसरे पक्ष को सुनें" प्राकृतिक न्याय का एक प्रमुख सिद्धांत है. लेकिन धारा 69ए के तहत केंद्र को दूसरे पक्ष को सुने बिना भारत की संप्रभुता, राष्ट्रीय सुरक्षा आदि का हवाला देते हुए आदेश जारी करने का अधिकार है.
हालांकि MediaOne मामले में अदालत ने कहा था कि "सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा जैसा मामला है, तो इस आधार पर राज्य अपने निष्पक्ष कार्य करने के कर्तव्य से इनकार नहीं कर सकता."
(2) लोकतंत्र में प्रेस की स्वतंत्रता सबसे ऊपर है
हालांकि मीडियावन के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया वो कोई नया, या फैंसी विचार नहीं था. इस फैसले ने तो 'लोकतंत्र में प्रेस की स्वतंत्रता सबसे ऊपर है' के विचार को ही दोहराया था. भारत के संविधान के भाग III में निहित मौलिक अधिकारों में यह सब मौजूद है और इसे हमारी संवैधानिक अदालतों की समझदारी के जरिए बार बार पुख्ता किया जाता है.
टीवी न्यूज पर्सनैलिटी अर्नब गोस्वामी को जमानत देने के आदेश में, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ (भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश) ने कहा था: "जब तक पत्रकार प्रतिशोध की धमकी से डरे बिना, सत्ता के सामने सच बोल सकते हैं, तब तक भारत की स्वतंत्रता सुरक्षित रहेगी."
फैक्ट-चेकर मोहम्मद जुबैर के ट्वीट करने पर रोक लगाने से इंकार करते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि इस तरह का बैन, वैसा ही है जैसे किसी वकील को बहस करने से बैन किया जाए.
सुप्रीम कोर्ट पहले भी कह चुकी है कि भले ही कुछ मामलों में "गलत रिपोर्टिंग" की गई हो लेकिन पत्रकारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए.
TKW और उसके पत्रकारों के साथ यह 'नाईटमेयर' (बुरे सपने जैसा अनुभव) क्यों?
बदकिस्मती से इसका कोई पक्का जवाब नहीं है.
सर्वोच्च अदालत की तरफ से पुख्ता किए गए मूल्यों और उन मूल्यों को अमल में लाने वाली संस्थाओं के बीच एक बहुत बड़ी खाई नजर आती है. और आज के दौर में वो खाई ऐसी लग रही है जैसे वो और चौड़ी होती जा रही हो.
मीडिया संगठनों और पत्रकारों पर इस कथनी और करनी के फर्क का असर बहुत बड़ा होता है. कोई नहीं चाहता कि सुबह उठने पर पता चले कि उसकी वेबसाइट को ब्लॉक कर दिया गया है और उसका एडिटर जेल में है. कोई नहीं चाहता कि उसके सिर पर तलवार लटकी रहे. आप अपनी स्टोरी कैसे लिखेंगे, जब आपकी कलम ही आपके लिए बारूद बन जाए.
जैसा कि The Kashmir Walla स्टाफ ने लिखा है:
“यह अपारदर्शी सेंसरशिप दिल दहला देने वाली है. अब हमारे पास कहने के लिए बहुत कुछ नहीं बचा है.”
(मेखला शरण द क्विंट की पूर्व लीगल प्रिंसिपल करेस्पॉन्डेंट हैं. ओरिजिनल स्टोरी द क्विंट पर छपी है. यहां उसका हिंदी अनुवाद दिया गया है.)
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