देश का टैक्स टु जीडीपी रेशियो यानी जीडीपी के अनुपात में टैक्स से सरकार की आमदनी अभी 12 पर्सेंट के करीब है. हाल तक यह 10 पर्सेंट हुआ करता था. ज्यादातर लोगों को लगता है कि 12 पर्सेंट का रेशियो कम है और इसे बढ़ाकर 15 पर्सेंट के करीब ले जाना चाहिए.
ऐसा कहने वाले दो बातें भूल जाते हैं. पहली, विकासशील देशों में इस मामले में भारत की स्थिति बहुत खराब नहीं है और कमोबेश हम उनके बराबर हैं. दूसरी और बड़ी बात यह है कि पर्याप्त आमदनी या पर्याप्त खपत (कंजम्पशन) या दोनों के होने पर ही टैक्स का वजूद हो सकता है.
भारत में करीब 130 करोड़ लोग रहते हैं. इनमें से 80 करोड़ की रोजी-रोटी खेती-बाड़ी से चलती है. वैसे देश में खेती से होने वाली आमदनी पर टैक्स लगाया भी नहीं जाता, न ही यह लगाया जाना चाहिए. अगर आप मनी लॉन्ड्रिंग करने वाले शहरी बदमाशों को छोड़ दें, तो खेती से प्रति परिवार आमदनी शायद ही एक लाख रुपये से अधिक होती है.
कृषि पर आश्रित लोगों को हटाने के बाद बचे 50 करोड़ लोग. इनमें से 10 करोड़ ही इतना कमा पाते हैं कि वे टैक्स दे सकें. इन 10 करोड़ में से 2.5 करोड़ के करीब टैक्स चुकाते हैं और उन पर इसका पर्याप्त बोझ है. बाकी के 7.5 करोड़ की आमदनी टैक्स चुकाने लायक है, लेकिन वे किसी न किसी तरह से इससे बच जाते हैं. इसके लिए पूरी तरह इनकम टैक्स विभाग जिम्मेदार है.
टैक्स चोरी रोकने की तमाम कोशिशों के बीच करीब 12 करोड़ लोगों को टैक्स चुकाने की जरूरत नहीं पड़ती. उनकी आमदनी बहुत कम है. देश की दिक्कत यह है कि यहां काफी ज्यादा मुफ्तखोर हैं. अगर आमदनी काफी कम हो और उसके बावजूद आप टैक्स-जीडीपी रेशियो बढ़ाना चाहते हैं तो कंजम्पशन पर टैक्स बढ़ाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता.
दो साल पहले लागू किए गए जीएसटी में यही हुआ है. इसमें 62 पर्सेंट चीजों पर टैक्स शून्य रखा गया है, इसलिए 18 पर्सेंट के सेंट्रल रेट को करीब 3 पर्सेंट अधिक रखना पड़ा. लेकिन इस वजह से कंजम्पशन ग्रोथ सुस्त पड़ गई है. इसलिए कंजम्पशन और इनकम दोनों से कम रेवेन्यू मिल रहा है. सरकार को टैक्स-जीडीपी रेशियो पर फोकस नहीं करना चाहिए.
यह गलत तरीका है. इसी वजह से उसने पैर के साथ अपने सिर पर भी कुल्हाड़ी मार ली है. अब आप पूछेंगे कि अगर सरकार टैक्स-जीडीपी रेशियो पर फोकस न करे तो किस रेशियो पर करे? और क्या इस तरह का कोई भी टारगेट रखने का कोई मतलब है?
मुझे नहीं लगता है कि ऐसे रेशियो से कोई मदद मिलती है. इनसे अर्थशास्त्रियों को वैसी तस्वीर पेश करने में मदद मिलती है, जैसी वह चाहते हैं. उनके अलावा ऐसे रेशियो से किसी का भला नहीं होता. यह भी याद रखिए कि टैक्स-जीडीपी रेशियो तुलनात्मक तौर पर नया कॉन्सेप्ट है. यह सिर्फ 50 साल पुराना है.
पांच दशक पहले कोई जीडीपी तक कैलकुलेट नहीं करता था, फिर इस रेशियो की बात कौन करे. इससे भी बुरी बात यह है कि टैक्स-जीडीपी रेशियो एक राजनीतिक सवाल से जुड़ा हुआ है कि क्या सरकार पर्याप्त टैक्स वसूल रही है? दुनिया की किसी सरकार को नहीं लगता है कि वह पर्याप्त टैक्स वसूल रही है, इसलिए इस सवाल का जवाब हमेशा 'ना' में होता है.
इसलिए भारत एक और गड्ढे में गिर गया है. इससे बाहर निकलने के लिए हमें लक्ष्य बदलना होगा. हमें यह देखना होगा कि कितने लोग टैक्स नहीं चुका रहे हैं. अगले पांच साल में टैक्स चुकाने वालों की संख्या में चार गुना बढ़ोतरी का लक्ष्य रखना चाहिए.
इसके लिए हमें पर्सनल इनकम टैक्स में सिर्फ 10 और 20 पर्सेंट से दो टैक्स स्लैब रखने चाहिए. इससे न सिर्फ बेहतर कंप्लायंस से टैक्स बेस (लिहाजा टैक्स-जीडीपी रेशियो में भी) में बढ़ोतरी होगी बल्कि गांधी परिवार की तरफ से 1957 में शुरू किया गया वह समाजवाद भी खत्म हो जाएगा, जिसमें 1971 में तेजी आई, 1985 में उसका नामोनिशान मिटा और 1997 में सिर्फ उसके अवशेष बचे. अब 10, 20 और 30 पर्सेंट के उस अवशेष के भी जाने का समय आ गया है.
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