कार्ल मार्क्स और थॉमस पेन से नजर हटाकर जरा ध्यान दीजिए कि बराबरी का संदेश देने वाले पहले पैगंबर का जन्म आज के दिन 566 ईस्वी में हुआ था. इसे ‘ईद उल मिलाद उल नबी’ के रूप में मनाया जाता है.
पैगंबर मोहम्मद कोई दैवीय ताकत नहीं थे. उन्होंने कभी ऐसा दावा भी नहीं किया. ईसा और मूसा की तरह अब्राह्म की परंपरा में पैगंबर का दर्जा हासिल करने से पहले टुकड़ों में बंटे हुए समाज में उन्होंने कामयाबी और इज्जत हासिल की.
खुद को बेहद धार्मिक मानने वाले मुसलमानों के लिए भी वह पहले मुसलमान और अंतिम पैगंबर हैं, ईश्वर नहीं.
शायद एक आम इंसान और एक यतीम होने की वजह से ही समानता को लेकर वे इतने संवेदनशील थे. समानता, दया, संवेदना और व्यवस्था इस्लाम की नींव की सबसे खास बातें हैं. छठी शताब्दी के अरब जगत के लिए (एक तरह से दुनियाभर के लिए) ये विचार काफी तरक्कीपसंद और क्रांतिकारी थे.
दस्तूर-अल-मदीना और उम्मा का जन्म
करीब 622 ईस्वी के आसपास, पैगंबर मोहम्मद ने दस्तूर-अल-मदीना तैयार किया. इस दस्तावेज ने अलग-अलग जनजातियों के बीच चली आ रही दुश्मनी और लड़ाइयों को खत्म कर मुसलमानों, यहूदियों और ‘बुतपरस्तों’ को एक समुदाय बनाते हुए एक-दूसरे के प्रति उनकी जिम्मेदारियों को तय किया.
एक तरीके से वह दस्तावेज पहले इस्लामिक राज्य का संविधान था. पर उस दस्तावेज में इससे भी अधिक क्रांतिकारी कुछ और था.
अमेरिका की स्वतंत्रता की उद्घोषणा “सभी मनुष्यों को बराबर बनाया गया है” से सदियों पहले मदीना के इस दस्तावेज ने अरब जगत को बराबरी का अधिकार दे दिया था.
मदद को दया नहीं, कर्तव्य समझें
इस्लाम की मुख्य विचारधारा का हिस्सा जकात भी सीधे-सीधे समानता का व्यावहारिक रूप है. आमतौर पर इसका मतलब भीख देना समझा जाता है. पर मोहम्मद साहब ने इसे सभी मुसलमानों का धार्मिक कर्तव्य बताया है. संपन्न मुसलमानों को अपनी आय का एक हिस्सा गरीबों, यात्रियों और जरूरतमंदों को देना उनके धर्म का हिस्सा है.
जकात का मतलब सिर्फ जरूरतमंदों की मदद ही नहीं है, जकात का मतलब मेहमाननवाजी भी है. मेहमानों की, साथियों के धर्म की, विश्वास और विचारों की इज्जत. यह एक सीधा सा विचार है, जो अजनबियों को मेहमान और मेहमानों को दोस्त बना देता है.
महिलाएं, इस्लाम और मोहम्मद
कुछ चीजें वक्त के साथ बदलती हैं, कुछ नहीं बदलतीं. आज की तरह, पैगंबर के समय में भी अरब जगत में संतान के रूप में बेटों की इच्छा बहुत ज्यादा थी. बेटियों को पैदा होते ही मार दिया जाता था. उन्होंने इस कुप्रथा के खिलाफ धर्म को खड़ा किया था.
इस्लाम में प्रचलित बहुविवाह की प्रथा को भी उस समय से जोड़कर देखा जाए, तो समझ आता है कि विधवाओं को सहारा देने के लिए ही इसे मान्यता दी गई होगी. और नकाब? न तो इस्लाम और न ही पैगंबर मोहम्मद ने इसे महिलाओं के लिए जरूरी बताया है.
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