दिल्ली पुलिस का पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को गिरफ्तार करना पहले से ही विवादास्पद हो गया है, जिस संदेहात्मक आधार पर उन पर आपराधिक आरोप लगाए गए न सिर्फ उसके कारण बल्कि पुलिस बल और मजिस्ट्रेट की कार्रवाई को लेकर भी जिनके सामने उसे पेश किया गया था.
21 साल की एक्टिविस्ट को बेंगलुरु से बिना कोई ट्रांजिट रिमांड लिए गिरफ्तार करने से लेकर, दिल्ली के मजिस्ट्रेट के उसे पांच दिन तक पुलिस हिरासत में भेजने के फैसले तक, इस बारे में गंभीर सवाल हैं कि क्या कानूनी प्रक्रियाओं का सही तरीके से पालन किया गया है.
इसके अलावा अपने ट्वीट्स और अब चुनिंदा सूचनाएं मीडिया को लीक कर रवि के बारे में एक राय बनाने की दिल्ली पुलिस की कोशिश हाल के दिल्ली और बॉम्बे हाइकोर्ट के आदेशों के उलट करते नजर आते हैं.
यहां कुछ प्रमुख मुद्दों का जिक्र किया जा रहा है जो भविष्य में कानूनी कार्यवाही में फंस सकते हैं.
गिरफ्तारी पर सवाल
1.दिल्ली पुलिस ने रवि की गिरफ्तारी के लिए ट्रांजिट रिमांड ऑर्डर क्यों नहीं लिया?
रवि की गिरफ्तारी बेंगलुरु में हुई थी न कि दिल्ली में, ऐसे में उसकी गिरफ्तारी को लेकर जो सबसे पहला सवाल उठा कि दिल्ली पुलिस उसे कर्नाटक से बाहर ले जाने और दिल्ली लाने के लिए वहां की स्थानीय कोर्ट से ट्रांजिट रिमांड आदेश हासिल करने में नाकामयाब रही.
ट्रांजिट रिमांड का सिद्धांत इस तथ्य से आता है कि संविधान के अनुच्छेद 22 (2) के तहत गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को 24 घंटे के अंदर सबसे “निकटम मजिस्ट्रेट” के सामने पेश करना होता है.
दंड प्रक्रिया संहिता (कोड ऑफ क्रिमिनल प्रॉसीजर) के तहत ट्रांजिट रिमांड लेना अनिवार्य नहीं है. लेकिन 2019 के एक आदेश में दिल्ली हाई कोर्ट ने अंतर-राज्यीय गिरफ्तारियों के मामलों में दिल्ली पुलिस के लिए कई दिशा-निर्देश जारी किए थे जिनका पालन किया जाना चाहिए, इनमें शामिल हैं:
“गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को निकटम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश कर ट्रांजिट रिमांड हासिल करने की कोशिश की जानी चाहिए जब तक कि हालात इसके विपरीत करने को मजबूर न करें और गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के अंदर दंड प्रक्रिया संहिता के आदेश पत्र एस 56 और एस 57 का उल्लंघन किए बिना मामले के अधिकार क्षेत्र वाले मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जा सकता है.”
ये साफ नहीं है कि मौजूदा स्थिति में ऐसी क्या मजबूरी थी जिसने दिल्ली पुलिस को बेंगलुरु में दिशा रवि को एक जज के सामने पेश करने से रोका, क्योंकि दिल्ली पुलिस ने दावा किया है कि वो स्थानीय पुलिस के साथ संपर्क में थी और अपने कार्यक्रम की जानकारी भी उन्हें दी थी.
पुलिस जब किसी गिरफ्तार व्यक्ति को उसके शहर से दूसरे शहर ले जाती है तो उसके पहले ट्रांजिट रिमांड का मुद्दा बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि ये पुलिस केस की छानबीन के लिए और ये सुनिश्चित करने के लिए कि सभी प्रक्रियाओं का पालन किया गया है, प्रतिरक्षा की पहली पंक्ति को तैयार करता है.
दिल्ली हाई कोर्ट के दिशा-निर्देशों के मुताबिक इनके अलावा गिरफ्तार व्यक्ति को राज्य से बाहर ले जाए जाने से पहले उसके वकील से “परामर्श” करने देने का मौका भी शामिल है. इस मामले में दिल्ली पुलिस ने इतना ही कहा है कि उन्होंने रवि के वकील को उसकी गिरफ्तारी के बारे में जानकारी दी थी-सूचना देना और परामर्श करना बिल्कुल अलग-अलग बात है, ऐसे में मजिस्ट्रेट के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न बनता है कि ट्रांजिट रिमांड की अनुमति दी जाए या नहीं.
2. क्या गूगल डॉक्युमेंट टूलकिट के ‘एडिटर’ के रूप में रवि के शामिल होने पर उसकी गिरफ्तारी की जरूरत थी?
दिल्ली पुलिस की 15 फरवरी की प्रेस रिलीज के मुताबिक, स्पेशल सेल की एक टीम दिशा से पूछताछ के लिए बेंगलुरु भेजी गई थी और उसके फोन से “काफी संवेदनशील सूचनाएं निकालने में कामयाब रही”. माना जा रहा है कि इस जानकारी से
“ये बात साफ हो गई कि दिशा ने अपने सहयोगियों शांतनु और निकिता जैकब के साथ मिलकर टूलकिट गूगल डॉक्युमेंट तैयार किया और दूसरों को भेजा. दिशा जो कि फाइड्रेज फॉर फ्यूचर नाम के एक पर्यावरण अभियान से जुड़ी हुई है, ने ग्रेटा थनबर्ग को टेलीग्राम पर टूलकिट भेजा और उसे इस पर काम करने को भी मनाया.”
प्रेस रिलीज के मुताबिक इस वजह से और इस तथ्य के कारण कि रवि ने व्हाट्सऐप ग्रुप को डिलीट कर दिया जिसमें इनमें से कुछ चर्चाएं हुई थीं, पुलिस ने उसे गिरफ्तार करने का फैसला किया.
हालांकि टूलकिट मामले को लेकर दर्ज पुलिस की एफआईआर में ये दावा किया गया है कि ये धारा 124 ए (राजद्रोह), 153 (दंगों को भड़काना) और 153 ए (संप्रदायों के बीच नफरत भड़काना) के तहत अपराध है. इस मामले में गिरफ्तारी के लिए पुलिस के पास “विश्वसनीय सूचना” होना बहुत जरूरी है कि जिस व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा रहा है उसने ये सभी अपराध किए हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार ये कहा है कि किसी आरोपी व्यक्ति के कथित बयान/कार्रवाई और उसके परिणामस्वरूप हुई हिंसा के बीच सीधा संबंध होना चाहिए.
यहां तक कि दिल्ली पुलिस की प्रेस रिलीज में भी 26 जनवरी को हुई हिंसा और टूलकिट के कंटेंट के बीच किसी ऐसे संबंध की बात नहीं कही गई है, टूलकिट में केवल सोशल मीडिया कैंपेन सहित विरोध-प्रदर्शनों के कानूनी तरीकों की बात है. पुलिस की ओर से बताए जा रहे “संवेदनशील सूचनाओं” से हुए खुलासों में भी हिंसा के बारे में कोई बात नहीं है.
उनके अनुसार
“टूलकिट तैयार करने का मुख्य उद्देश्य कानूनी तौर पर चुनी गई सरकार के खिलाफ गलत सूचनाएं और असंतोष फैलाना था. टूलकिट ने फेक न्यूज और अन्य झूठ को कृत्रिम तरीके से बढ़ाने की कोशिश की और जल्दबाजी में 26 जनवरी, यानी भारत के गणतंत्र दिवस पर एक्शन की कोशिश की.”
असंतोष बिना हिंसा भड़काने के राजद्रोह नहीं होता- सुप्रीम कोर्ट ने बलवंत सिंह के मामले में भी ये कहा है कि अगर इससे किसी तरह की हिंसा नहीं भड़की हो तो खालिस्तान जिंदाबाद जैसे नारे लगाना राजद्रोह नहीं होगा.
टूलकिट में जिस “एक्शन” करने की बात कही गई है उसमें कहीं भी किसी तरह की हिंसा शामिल नहीं है। यानी केदारनाथ सिंह फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जो मापदंड तय किए थे वो भी पूरे नहीं होते हैं.
रिमांड को लेकर सुनवाई पर सवाल
3. रिमांड को लेकर हुई सुनवाई के दौरान दिशा रवि को उसकी पसंद का वकील क्यों नहीं दिया गया?
दिल्ली पुलिस ने अपनी प्रेस रिलीज में दावा किया है कि रविवार 14 फरवरी को पटियाला हाउस कोर्ट मजिस्ट्रेट के सामने हुई सुनवाई में रवि की ओर से एक वकील मौजूद थे. हालांकि ये लीगल ऐड के वकील थे, वो वकील नहीं जो ये मामला उनके लिए लड़ रहे हैं.
अनुच्छेद 22 (1) कहता है कि हर गिरफ्तार व्यक्ति को “उसकी पसंद के वकील” द्वारा बचाव का अधिकार है. दिल्ली पुलिस ने रवि के वकीलों को गिरफ्तारी की सूचना दी थी इस कारण उन्हें पता था कि कौन रवि के वकील हो सकते हैं.
और इसके बावजूद, वकीलों ने दावा किया है कि उन्हें पूछने के बाद भी रिमांड पर सुनवाई के बारे में जानकारी और रविवार को कहां सुनवाई होगी इस बारे में पूछे जाने के बावजूद नहीं बताया गया.
दिल्ली की अदालतों के ड्यूटी रोस्टर देखने के बाद रवि के वकील दरअसल दिल्ली की किसी और अदालत में चले गए थे जहां उन्हें रवि को पेश किए जाने की उम्मीद थी लेकिन न्यूज रिपोर्ट से उन्हें पता चला कि रवि को पटियाला हाउस कोर्ट में पेश किया गया है.
ये साफ नहीं है कि रवि की पसंद के वकीलों (जिनके बारे में पुलिस अच्छे से जानती थी) को रिमांड पर होने वाली सुनवाई की जगह के बारे में सूचना क्यों नहीं दी गई.
इसी तरह की घटना पत्रकार मनदीप पुनिया के साथ हुई जिसके बारे में वरिष्ठ वकील रेबेका जॉन ने क्विंट को बताया. पुनिया के वकीलों को बताया गया कि उसे रोहिणी कोर्ट में पेश किया जाएगा लेकिन पुलिस ने उसे तिहाड़ जेल कोर्ट में पेश करने का फैसला ले लिया.
4. मजिस्ट्रेट ने पांच दिन की पुलिस हिरासत का आदेश क्यों दिया?
सुप्रीम कोर्ट और कई हाई कोर्ट के आदेशों से ये बात स्थापित है कि मजिस्ट्रेट को रिमांड ऑर्डर पर मशीनी तरीके से आदेश देने की जरूरत नहीं है, उन्हें वास्तव में केस डायरी, अरेस्ट मेमो और एफआईआर देखना है जिससे पता चल सके कि आरोपी के खिलाफ मामला सच में बनता है कि नहीं.
बेशक, ये सबूत की गहरी तहकीकात और आकलन नहीं हो सकता, जो कि सुनवाई के दौरान होगा, लेकिन सिर्फ दिखावे के लिए भी नहीं होना चाहिए. दरअसल, अर्णब गोस्वामी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में इस बात की पुष्टि की है कि एक आरोपी के खिलाफ एफआईआर और पुलिस के सबूतों की जांच हर स्तर पर करना कोर्ट की जिम्मेदारी है जिससे ये पता चल सके कि कहीं आरोपी को फंसाया तो नहीं जा रहा है.
“... ये सभी कोर्ट-जिला अदालत, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट- की जिम्मेदारी है कि वो-सुनिश्चित करें कि आपराधिक कानून नागरिकों के चयनात्मक उत्पीड़न के लिए एक हथियार न बन जाए.”-अर्णब गोस्वामी को जमानत देते वक्त अपने विस्तृत आदेश में सुप्रीम कोर्ट
इसका मतलब पुलिस की जांच को रद्द करना या उन्हें अन्य संभावित विकल्प तलाशने से रोकना नहीं है-हालांकि इसका मतलब ये सुनिश्चित करना है कि जब तक पर्याप्त सबूत न हों किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को नहीं छीना जाए.
हालांकि, जैसा कि पहले चर्चा की जा चुकी है, दिल्ली पुलिस की खुद की प्रेस रिलीज से, उनके दावों को सही ठहराने के लिए पर्याप्त सामग्री नहीं दिखाई देती है कि रवि ने एफआईआर के तहत बेहद गंभीर अपराध किए हैं.
यहां तक कि जूम मीटिंग भी, जिसमें रवि कथित तौर पर शामिल हुई थी जहां टूलकिट पर विदेशी संगठन पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन के साथ चर्चा हुई थी, जिस पर दिल्ली पुलिस खालिस्तान से संबंध होने का आरोप लगाती है, इन आरोपों को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है जबतक कि मीटिंग में हिंसा भड़काने की कोई योजना नहीं बनाई गई हो-जिसका आरोप नहीं लगाया गया है.
इन परिस्थितियों में इस मामले में रवि की पसंद का वकील नहीं होना मजिस्ट्रेट के लिए ज्यादा बड़ी चिंता की बात होनी चाहिए थी-और इसके बावजूद भी मजिस्ट्रेट ने रवि को पांच दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया.
दिल्ली पुलिस के बयान और मीडिया को लीक पर सवाल
5. दिल्ली पुलिस एक ऐसे मामले, जिसकी जांच जारी है, को लेकर ट्वीट क्यों कर रही है और मीडिया को चुनिंदा सूचनाएं लीक क्यों कर रही है?
14 फरवरी को ही दिल्ली पुलिस ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से कई ट्वीट किए जिसमें दिशा रवि की गिरफ्तारी को सही बताने की कोशिश की गई, इसकी कड़ी आलोचना भी हुई.
ट्वीट में कहा गया कि रवि एक “साजिशकर्ता” है और “भारत के खिलाफ असंतोष फैलाने के लिए खालिस्तान समर्थक पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन के साथ मिलकर काम किया.”
दिल्ली पुलिस ने न्यूज 18 जैसे मीडिया हाउस को दिशा से सवाल-जवाब की जानकारी भी लीक की जिसने बुलेटिन में चलाया कि कैसे रवि ने शुरू में सच न बताने के बाद कुछ बातों को कबूल किया था.
इस बात को बिना इस सूचना के सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए था कि इन सभी दावों के लिए रवि को किसी अदालत ने अब तक दोषी नहीं पाया है क्योंकि ये बेगुनाही की धारणा और निष्पक्ष ट्रायल के अधिकार को प्रभावित करता है.
इस तरह के व्यवहार को लेकर पहले भी दिल्ली हाई कोर्ट दिल्ली पुलिस की खिंचाई कर चुकी है जब दिल्ली पुलिस ने दिल्ली दंगों की साजिश के मामले में आरोपी पिंजरा तोड़ संगठन की कार्यकर्ता देवांगना कलिता के खिलाफ प्रेस रिलीज जारी किया था. तब हाइकोर्ट ने कहा था कि:
‘’चुन-चुन कर जानकारी लीक करना, ताकि पब्लिक मान ले कि आरोपी ही दोषी है, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और बाकी मीडिया का इस्तेमाल कर आरोपी की इमेज खराब करने के लिए अभियान चलााना, और शुरुआती जांच के दौरान ही केस सॉल्व करने के संदेहास्पद दावे करना, मंजूर नहीं किया जाएगा.’’
हाई कोर्ट ने कहा कि इससे न केवल आरोपी की निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार पूर्वाग्रही हो गया बल्कि इसका असर ये भी हो सकता है कि “इसमें शामिल व्यक्ति की गरिमा छिन जाए या उसे अनदेखा कर दिया जाए.” गरिमा का अधिकार, निश्चित रूप से संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का हिस्सा बनने के लिए अच्छी तरह से तय है.
6. मीडिया हाउस दिल्ली पुलिस के नेरेटिव को बिना डिस्क्लेमर दिए क्यों रिपोर्ट कर रहे हैं?
इस तरह के “अनुचित” पक्ष को फैलाना पुलिस की ही नहीं बल्कि मीडिया हाउस की भी गलती है क्योंकि वो कोई डिस्क्लेमर नहीं दे रहे. वो नहीं बता रहे कि ये महज आरोप हैं.
अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत को जिस तरह से मीडिया ने दिखाया और उनकी पूर्व गर्लफ्रेंड अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती के खिलाफ खबरें दिखाई उसके बाद हाल ही में बॉम्बे हाइकोर्ट ने इस पर एक आदेश जारी किया है.
हाई कोर्ट ने ये निर्देश दिया कि मीडियो को ऐसी चीज नहीं दिखानी चाहिए जिससे जांच के प्रति पूर्वाग्रह पैदा हो सकता है लेकिन सही सुनवाई पर असर पड़ सकता है. जैस कि..
“1872 के एविडेंस ऐक्ट के महत्वपूर्ण पहलु जनता को बताए बिना किसी आरोपी द्वारा पुलिस को दिए गए कथित इकबालिया बयान को प्रकाशित करना और जनता को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करना कि वही सबूत है, जो न्यायालय के समक्ष स्वीकार्य है और न्यायालय द्वारा उस पर कार्यवाई न करने का कोई कारण नहीं है..”
और
“...किसी भी व्यक्ति की चरित्र हत्या में लिप्त होना और उसके कारण उसकी प्रतिष्ठा का हनन करना”
मीडिया चैनलों द्वारा रवि के बारे में पुलिस से लीक जानकारी की कवरेज साफ तौर पर इन दिशानिर्देशों के खिलाफ है. बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश के बाद इसे अदालत की अवमानना माना जा सकता है क्योंकि ये न्याय प्रशासन में दखल देता है.
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