देश में हैं दो भारत
टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के निष्कर्षों को सामने रखकर लिखते हैं कि देश में दो भारत मौजूद हैं. एक भारत में है तमिलनाडु जहां डायरिया के मामले दूसरे भारत के बिहार के मुकाबले एक तिहाई कम है. शिशु मृत्यु दर 40 फीसदी और प्रजनन दर 60 फीसदी है. तमिलनाडु में 92 प्रतिशत और बिहार में 77 प्रतिशत महिलाओं के पास बैंक खाते हैं.
एक भारत में दक्षिण और पश्चिमी भारत के अधिकांश राज्य शामिल हैं. अगर इनमें हरियाणा जैसे राज्यों को मिला दिया जाए तो उनकी सालाना शुद्ध प्रति व्यक्ति आय करीब 3 हजार डॉलर है. यह राशि शुद्ध राष्ट्रीय औसत से 75 प्रतिशत अधिक है. भारत की प्रति व्यक्ति आय नाइजीरिया की प्रति व्यक्ति आय से कुछ कम ही है. जबकि, तमिलनाडु की प्रति व्यक्ति आय फिलीपींस के करीब है. बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश की शुद्ध प्रति व्यक्ति आय से बमुश्किल एक तिहाई है. यह नाइजीरिया के करीब है जिसकी रैंकिंग प्रति व्यक्ति आय के मामले में 215 देशों में 204 है.
केंद्र का प्रति व्यक्ति राजकोषी हस्तांतरण बिहार के लिए कम है और अमीर राज्यों के लिए अधिक. गरीब राज्यों के अपने कर संसाधन भी अमीर राज्यों से कम हैं. ऐसे में यह खाई पाटना आसान नहीं है.
गैरजवाबदेह बन गयी है बीजेपी
द इंडियन एक्सप्रेस में पी चिदंबरम लिखते हैं कि बड़ा और अमीर होने के बाद खतरा गैर-जवाबदेह होने का होता है. अलीबाबा, टैनेसेंट और दीदी पर चीन ने कार्रवाई की. कई देशों में माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और फेसबुक भी ऐसी ही कार्रवाइयों का सामना कर रही हैं. इसका कारण भी यही है कि वे अति बड़ी, अति अमीर और गैर-जवाबदेह बन गयी हैं. व्लादिमीर पुतिन और शी जिनपिंग ने सारी शक्तियां अपनी मुट्ठी में कर ली हैं. ये दोनों देश लोकतांत्रिक नहीं हैं. न ही वे अमीर देशों की सूची में ऊपर आ पाए हैं.
चिदंबरम लिखते हैं कि प्रतिव्यक्ति आय के हिसाब से दुनिया के दस अमीर देशों में एक से दस देशों में लक्जमबर्ग, आयरलैंड, स्विटजरलैंड, नॉर्वे, अमेरिका, आइसलैंड, डेनमार्क, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया और कतर हैं. अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया बड़े देश हैं. बाकी देशों में किसी पर अहंकारी होने का आरोप नहीं लगा.
चिदंबरम लिखते हैं कि बीजेपी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है. वह भारत की सबसे अमीर पार्टी है. लोकसभा में 543 सीटों में से भाजपा के पास 3 सौ सीटें हैं और देश की 4036 विधानसभा सीटों में 1035 बीजेपी के पास हैं. 28 राज्यों में से 17 में बीजेपी का शासन है.
एडीआर के मुताबिक, 2019-20 में 2,642 करोड़ का चंदा बीजेपी को मिला जो देश के बाकी राजनीतिक दलों को मिले चंदे 3,373 करोड़ से थोड़ा कम था. पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 252 करोड़ रुपये खर्च किए, जिनमें अकेले बंगाल में 151 करोड़ खर्च किए गये. बीते सात साल में बीजेपी और गैर-जवाबदेह हो गयी है, जो संसद में बहस नहीं होने देती, बगैर चर्चा के विधेयक पारित करा लेती है, प्रधानमंत्री संसद और मीडिया का सामना करने से बचते हैं और विरोधियों पर केंद्रीय जांच एजेंसियों के जरिए कार्रवाई कराती है. चुनाव में हार के डर के कारण तीन कृषि कानून वापस लिए गए हैं. इससे पहले आंदोलन और आंदोलकारियों को बदनाम करने के पूरे उपाय किए गए.
संयुक्त राष्ट्र में क्यों हारे थे शशि थरूर?
करन थापर ने हिंदुस्तान टाइम्स में शशि थरूर और बान की मून की हाल में अलग-अलग लिखी पुस्तकों के हवाले से 2006 में हुए उस संघर्ष की याद दिलायी है, जिसमें ये दोनों संयुक्त राष्ट्र महासचिव पद के लिए होड़ में थे. बान की मून तब दक्षिण कोरिया की विदेश मंत्री थीं और शशि थरूर तब संयुक्त राष्ट्र में अंडर सेक्रेट्री जनरल. बान की मून ने खुलासा किया है कि यह बात अफवाह थी कि शशि थरूर को उनकी ही भारत सरकार का समर्थन नहीं था. उन्होंने यह भी लिखा है कि शशि थरूर ने यूएन में अपने योगदान को अधिक आंका था. शुरुआत में शशि थरूर ने एक लेख में इसका यह कहते हुए खंडन किया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उनसे यूएन महासचिव बनने को लेकर उनकी राय ली थी. बाद में शशि थरूर ने माना कि उनकी उम्मीदवारी कमजोर थी और आधे-अधूरे मन से थी.
शशि थरूर के हवाले से लेखक बताते हैं कि प्रधानमंत्री और एनएसए दोनों का रुख सहयोगात्मक था और रूस, इंग्लैंड व फ्रांस से उनके अच्छे संबंध थे. सुरक्षा परिषद के चार सदस्य हमारा समर्थन कर सकते थे.
वहीं बान की मून दूसरी कहानी बताती हैं. वह लिखती हैं कि अमेरिका की कोंडोलीजा राइस और रूस के लावरोव ने उन्हें मदद का भरोसा दिया था. फ्रांस से भी कुछ ऐसा ही संकेत मिलने का उन्होंने दावा किया. ऐसा लगता है कि अमेरिका का समर्थन हासिल करने का भारत ने प्रयास नहीं किया जिस वजह से बान की जीत हुई. शशि थरूर ने लिखा है कि राष्ट्रपति बुश की ओर से उच्च स्तरीय हस्तक्षेप से ही स्थिति बदल सकती थी. लेकिन मनमोहन सिंह और एमके नारायणन की प्राथमिकता भारत-अमेरिकी परमाणु समझौता थी. शशि लिखते हैं कि चीन के विदेश मंत्री ने उन्हें बताया था कि आपका देश आपके साथ खड़ा नहीं है. शशि मानते हैं कि बान की मून की जीत इसलिए हुई क्योंकि अमेरिका नहीं चाहता था कि कोई मजबूत यूएन महासचिव हो.
एसिड अटैक से कैसे लड़ें महिलाएं?
ललिता पनिक्कर हिंदुस्तान टाइम्स में लिखती हैं कि एसिड अटैक में एक युवती की मौत के बाद एक बार फिर यह मसला गंभीरता से सामने है. शादी के लिए न सुनने के बाद युवक ने इस घटना को अंजाम दिया. टॉयलेट क्लीन करने के बहाने आसानी से एसिड की खुली खरीद होती है और इस घटना को अंजाम दिया जाता है.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के मुताबिक, 2020 में 182 एसिड अटैक के मामले हुए. सजा दिलाने की दर बेहद कम है. 2018 में 523 मामलों में केवल 19 मामले ही ट्रायल के स्तर पर पहुंच पाए.
लेखिका ने एसिड अटैक की शिकार दौलत बी खान से बातचीत के हवाले से बताया है कि एसिड हमले के बाद भविष्य और स्वास्थ्य दोनों बर्बाद हो जाते हैं. शादी का प्रस्ताव ठुकराने के बाद उसके रिश्तेदार ने उन्हें, उनकी दो बहनों और एक बच्ची को एसिड हमले का शिकार बनाया. वह 17 सर्जरी करा चुकी हैं. एक आंख गंवा चुकी हैं. एसिड अटैक से बची महिलाओं के लिए वह लगातार संघर्षरत है.
‘साहस’ नाम से बनी संस्था के जरिए वह ऐसी महिलाओँ की मदद कर रही हैं. थेरेपिस्ट आंचन नारंग जो कई मामलों में एसिड अटैक की शिकार महिलाओं को सलाह दे चुकी हैं, का कहना है कि ऐसी महिलाएं खुद को समाज के लिए अनफिट मानकर अवसादग्रस्त रहती हैं. लेखिका का मानना है कि एसिड हमले की शिकार महिलाओं के पुनर्वास के लिए जरूरी है कि उन्हें शिक्षा और स्किल उपलब्ध कराए जाएं, ताकि उनकी जिंदगी दोबारा शुरू हो सके. इलाज पर खर्च को देखते हुए उन्हें मुआवजे की राशि बढ़ायी जानी चाहिए. उनके लिए रोजगार के अवसर बढ़ने चाहिए.
भुलायी नहीं जा सकती 26/11 की घटना
द इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह लिखती हैं कि 26/11 उन घटनाओं में है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता. जेहादियों के जरिए पाकिस्तान ने इस घटना को अंजाम दिया था. जिस तरीके से अमेरिका में 9/11 की घटना को याद किया जाता है, उस तरीके से 26/11 की घटना को भारत में याद नहीं किया जाता. यह मुंबई में शोक मनाने की घटना बनकर रह गयी है. तवलीन सिंह लिखती हैं कि इस घटना को याद करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि हमने अभी तक पाकिस्तान की धरती से उन लोगों को ढूंढ़ कर दंडित नहीं किया है, जिन्होंने इस घटना को अंजाम दिया.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि पुलवामा के बाद मोदी सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया, लेकिन वह सवाल उठाती हैं कि क्या ऐसी कार्रवाई से आतंकवाद को रोका जा सकता है?
वह लिखती हैं कि भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता रोज टीवी पर पाकिस्तान को गालियां देते हुए दिखते हैं, लेकिन यह नाकाफी है. यह बेवकूफी भी है, क्योंकि ऐसा करके हम भारत की शान को कम करते हैं. इस साल कांग्रेस पार्टी के एक सदस्य ने याद दिलाया है कि जो ठहराव कांग्रेस सरकार ने 26/11 के बाद दिखाया था, उससे कमजोरी दिखी थी.
मनीष तिवारी से सहमत होते हुए तवलीन सिंह लिखती हैं कि पाकिस्तानी सेना और पाकिस्तानी सरकार की भूमिका साबित करने में हम विफल रहे. इसी का नतीजा है कि इमरान खान बारंबार दोहराते रहे हैं कि जिहादी आतंकवाद से जितना पीड़ित पाकिस्तान है उतना कोई दूसरा देश नहीं.
बढ़ रही है कट्टरता
द टेलीग्राफ में मुकुल केसवान लिखते हैं कि दक्षिणपंथी बहुसंख्यकवादी राजनीतिज्ञ दो तरह के काम करते हैं. एक अल्पसंख्यकों को डराते हैं और मजबूत राष्ट्रवाद की वकालत करते हैं. आर्थिक क्षेत्र में वे मजबूत कॉरपोरेट के साथ होते हैं. दक्षिणपंथी निजीकरण का भी साथ देते हैं. बोल्सोनारो का उदाहरण लें, जिन्होंने नोटबंदी का कदम किसी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के लिए नहीं किया. क्रोनी कैपिटलिज्म उनकी पहचान बन गयी. तुर्की में अर्दोगान ने भी सत्ता में आने के बाद सरकारी खरीद की प्रक्रिया का इस्तेमाल चुनावी जरूरतों के लिए किया. भारत में 2017 में मोदी सरकार इलेक्टोरल बॉन्ड्स लेकर आयी.
केसवान लिखते हैं कि ग्रामीण भारत में कॉरपोरेट निवेश के लिए दो बड़े प्रयास किए- भूमि अधिग्रहण अध्यादेश और तीन कृषि कानून. दोनों ही बार उन्हें अपने कदम पीछे खींचने पड़े.
किसान आंदोलन से बीजेपी दो कारणों से डर गयी. गांवों में हिन्दुओं और सिखों के बीच बढ़ा सहयोग. इससे पहले सिखों का शाहीन बाग आंदोलन में समर्थन भी गौरतलब था. सरकार विरोधी सहयोग बढ़ने से चिंता बढ़नी स्वाभाविक थी. दूसरी बात उत्तर प्रदेश सरकार को खतरा जहां विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. 2017 में यूपी में बीजेपी की जीत और एक योगी के हाथों में सत्ता आना उल्लेखनीय घटना रही थी.
उन्होंने लव जिहाद के विरुद्ध अभियान चलाए, मीट का कारोबार कम किया. उन्होंने हिंदुत्व की चादर ओढ़ी. गुजरात मॉडल से आगे अब बीजेपी के लिए यूपी मॉडल हो चुका है. किसान कानूनों के वापस लेने के बाद यूपी विधानसभा चुनाव में आगे क्या होता है यह देखना महत्वपूर्ण होगा.
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