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भारत में अंडर-ट्रायल कैदियों में 66% हाशिए पर मौजूद जातियों से क्यों हैं?

पिछले 5 वर्षों में हाशिए पर खड़ी जातियों के विचाराधीन कैदियों की संख्या में 48 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.

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भारत की जेल सांख्यिकी रिपोर्ट (2021) के मुताबिक भारतीय जेलों में बंद 5 में से 3 विचाराधीन कैदी दलित, आदिवासी और ओबीसी समुदायों से हैं. इस साल अगस्त में जारी की गई रिपोर्ट संसद के 2022 के शीतकालीन सत्र (Winter Session) के दौरान आई थी. इस दौरान गृह मंत्रालय में राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा ने 13 दिसंबर को कहा कि 5,54,034 कैदियों में से 76 फीसदी (4,27,165 कैदी) अंडरट्रायल हैं.

द क्विंट के द्वारा की गई रिसर्च में पता चला कि भारत की वो जातियों जो हाशिए पर हैं, उनसे संबंधित लोग विचाराधीन मामलों में सबसे ज्यादा हैं, जिनका प्रतिशत 66 है.

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गौरतलब है कि विचाराधीन कैदियों में वो लोग शामिल हैं, जिन्हें अभी तक किसी अपराध का दोषी नहीं ठहराया गया है बल्कि केवल अभियुक्त बनाया गया है. यानी उनके खिलाफ लगाए गए आरोप साबित नहीं हुए हैं. उन्हें अपराध की जांच, पूछताछ या परीक्षण के दौरान जेल में डाला गया था.

अंडर-ट्रायल कैदियों का जेल में बंद होना किस तरह से गलत है?

सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया फैसले (सतेंदर कुमार अंतिल बनाम सीबीआई: जुलाई 2022) में इसका जवाब दिया था.

भारत की जमानत प्रणाली के कम होते प्रभाव को रेखांकित करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि विचाराधीन कैदियों के साथ जेलों की भीड़ ‘presumption of innocence’ के कानूनी सिद्धांतों के खिलाफ है. ‘bail not jail’ का प्रभाव बढ़ना चाहिए.

जेल की भीड़ के बारे में कोर्ट की चिंता बिना आधार के नहीं थी. साल 2021 की लेटेस्ट occupancy दर 130.2 प्रतिशत है, जो इससे पहले 118 प्रतिशत थी.

बिना दोष सिद्ध हुए लंबे वक्त तक जेलों में बंद लोगों के बारे में कोर्ट की चिंताएं भी सही थीं.

रिपोर्ट के मुताबिक...

  • विचाराधीन कैदियों में से 70.9% को 1 साल के लिए बंद किया गया था.

  • 13.2 प्रतिशत लोगों को 1 से 2 साल के लिए

  • 7.6 प्रतिशत लोगों को 2 से 3 साल के लिए

  • 2.7 प्रतिशत लोगों को 5 साल से अधिक समय से जेल में थे.

हाशिये पर कड़ी जातियों के विचाराधीन कैदियों की संख्या अनुपातहीन क्यों है?

असम स्थित लीगल एड कलेक्टिव स्टूडियो निलिमा (Studio Nilima) की अबंती दत्ता ने द क्विंट के लिए लिखे एक आर्टिकल में कहा कि तथ्य यह है कि अधिकांश अंडरट्रायल कैदी हाशिए के समुदायों से आते हैं, यह सिस्टम के पूर्वाग्रह को दर्शाता है.

नई दिल्ली स्थित कैदियों के अधिकारों की हिमायत करने वाला ग्रुप ‘प्रोजेक्ट 39ए’  की वेबसाइट के एक आर्टिकल में लिखा गया है कि

  1. किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी 'आवश्यक' होने पर उचित है, यदि पुलिस के पास यह मानने की वजह है कि कोर्ट में उनकी उपस्थिति जरूरी है. इस तरह की अस्पष्टता की वजह से मनमाने ढंग से गिरफ्तारियां की जा सकती हैं और हाशिए पर रहने वाले लोगों को सबसे ज्यादा जोखिम में डाला जा सकता है.

  2. एक और अहम वजह है कि अंडर ट्रायल कैदियों की जमानत शर्तों का पालन करने में असमर्थता है, भले ही वो जमानत के हकदार हों. उदाहरण के लिए, उपेक्षित समुदायों से संबंधित होने की वजह से अक्सर रूपए की व्यवस्था करना मुश्किल होता है और जमानत पर रिहा होने के लिए स्थानीय जमानत जरूरी होती है. नतीजतन, वे जमानत मिलने के बाद भी काफी वक्त तक जेल में बंद रहते हैं.

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कैदियों की संख्या सिस्टम के पूर्वाग्रह को दर्शाती है

केवल 2022 ही नहीं पिछले कई सालों से जारी किया जा रहा इससे संबंधित डेटा काफी चिंताजनक है. पिछले पांच वर्षों (2017 - 2021) में हाशिए पर खड़ी जातियों के अंडर-ट्रायल कैदियों की संख्या से पता चलता है कि इसमें 48 प्रतिशत की भारी बढ़ोतरी हुई है.

यहां 1980 से सुप्रीम कोर्ट के शब्दों को याद करना बेहतर होगा:

"क्या कैदी व्यक्ति हैं? हां बिल्कुल. इसका जवाब नकारात्मक में देना राष्ट्र और संविधान को अमानवीयकरण के लिए दोषी ठहराना और विश्व कानूनी व्यवस्था को नकारना है."

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