थोड़ा डरा. थोड़ा सहमा. रिसते हुए जख्मों का ढेर है. ये एक पूरा शहर है. मत मुस्कुराइए कि आप लखनऊ में हैं. घबराइए कि आप लखनऊ में है. नजाकत, नफासत वाला ये शहर गम, गुस्से में हैं. कभी अपनों की सांसें गिन रहा है तो टकटकी लगाकर चिताओं से उठ रहे धुएं को दूर जाता देख रहा है. हर रोज के इस दर्द को, अस्पताल से श्मशान तक लाशों को, अपनी आंखों और कैमरों के लेंस से कैद कर रहे सुमित कुमार क्विंट हिंदी से बातचीत में कहते हैं-'शहर ने बहुत कुछ खो दिया है.'
सुमित कुमार 8 सालों से फोटोग्राफी में हैं. बतौर फ्रीलांस पत्रकार काम करते हैं. सुमित कहते हैं ऐसा मंजर कभी नहीं देखा. 'आंखों के सामने किसी को जाता देख बेबस सा महसूस करता हूं,आप देख रहे हैं कि मरीज बदहवास है उसे ट्रीटमेंट की जरूरत है लेकिन कुछ नहीं कर सकते, कोविड रिपोर्ट लाओ, ये नियम-वो कानून, यहां लाइन-वहां लाइन'
अस्पताल, बेड, श्मशान...ये लाइन है कि खत्म होती ही नहीं...
हर रोज सुमित जब काम के लिए निकलते हैं तो सोचते हैं आज शायद कुछ हालात बेहतर हों लेकिन पिछले एक महीनों से ऐसा होता नहीं दिख रहा है. लखनऊ लाइन में खड़ा है. अस्पताल, ऑक्सीजन, बेड के लिए लाइन. सांस अटक रही है, दम घुट रहा है लेकिन आप इंतजार कीजिए, ऑक्सीजन नहीं है, आ रही है. कब तक आ पाएगी- नहीं मालूम. कोई आस दे दीजिए- वो नहीं दे सकते. कोई सहारा?- हमें सरकार ने खुद सहारा दिया है. आप इंतजार कर लीजिए लाइन में खड़े होकर.
सुमित बताते हैं कि किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज के बाहर की ये तस्वीर है-
‘वो महिला मेरे सामने ही आईं, मुझे ऐसा लग रहा था कि इन्हें इलाज की सख्त जरूरत है. मैं अस्पताल गेट पर ही खड़ा था. इन महिला के पति बार-बार अंदर जाकर एडमिशन की ही बात कर रहे थे. इस बीच उन्होंने दम तोड़ दिया. आप सोचिए कि मैं ये सब खड़ा होकर देख रहा हूं, बेबस हूं, क्या करूं-क्या कहूं, कसकर रो दूं, नहीं समझ आता.’सुमित कुमार
‘ये अंकल नादरगंज के बाहर एक रिफिलिंग सेंटर पर मुझे मिले. सुशील कुमार श्रीवास्तव नाम था इनका. इन्हें बिना कोविड रिपोर्ट अस्पताल में भर्ती नहीं किया जा रहा था. इनके बेटे ने मुझे बताया. मैंने इनकी फोटो ली. अगले दिन इनका हालचाल जानने के लिए फोन किया तो पता चला कि ये नहीं रहे. मैं सन्न था, बेबस महसूस कर रहा था’
श्मशान घाट पर भी लाइन है. सुमित कुमार कहते हैं कि इस बार महामारी आखिर तक परेशान कर रही है. श्मशान घाट पर भी लाइन लगती हैं, अपने अपनों को अलविदा कहने के लिए भी नंबर का इंतजार करना होता है. बीच में हालात तो ऐसे थे कि श्मशान घाट पर भी लकड़ी का नंबर का जुगाड़ करना पड़ रहा था.
हकीकत तो पता होनी चाहिए...
शहर के, सूबे के दावे हैं सबकुछ ठीक किया जा रहा है, जो भी सही है, प्रशासन-सरकार अपनी तरफ की कोशिशें कर रही है लेकिन शहर का दर्द कम करने में शायद वक्त लगेगा. अभी तो यही नहीं पता कि कब तक हिंदुस्तान, सूबा और शहर कोरोना महामारी की इस आफत से छुटकारा पा सकेगा. सुमित कहते हैं कि क्या हालात हैं ये लोगों को मालूम होना ही चाहिए. इन दावों के बीच शहर की असल तस्वीर पेश करना ही उनका मकसद है. 'अगर सबकुछ ठीक है तो अब भी ऑक्सीजन सेंटर के बाहर ये लंबी थका देने वाली लाइन क्यों लगी है, अस्पतालों के बाहर मरीजों के परिवारवाले क्यों बिलख रहे हैं'
अब इस महामारी में सुमित को रिपोर्टिंग करने में किस तरह का डर रहता है, उस पर सुमित कहते हैं कि उनके परिवार में कई लोग साथ रहते हैं, तो जब वो बाहर जाते हैं, अक्सर उन्हें सच छिपाना पड़ जाता है.
‘मैंने तो परिवारवालों को फेसबुक और ट्विटर पर भी ब्लॉक रखा है. मैं पूरी कोशिश करता हूं कि मास्क लगाकर रहूं खुद का ख्याल रखूं, जिससे मुझे और मेरे परिवार को कोई दिक्कत न आए.’
जब-जब सिस्टम की बात होगी, जिम्मेदारियों की बात होगी, सुमित और उनके जैसे हजारों पत्रकारों की ये तस्वीरें दस्तावेज की तरह काम आएंगी. याद दिलाएंगी की लखनऊ का दर्द बहुत गहरा है, बहुत भीतर तक है.
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