ADVERTISEMENTREMOVE AD

यूपी में बिजली डिस्‍ट्रीब्‍यूशन कंपनियों की हालत खस्ता

बढ़ता जा रहा है कंपनियों का घाटा

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

उत्तर प्रदेश में बिजली वितरण कंपनियों की हालत खस्ता है. यूपी की बिजली वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) 2016 तक कुल 21,486 करोड़ रुपये (3.2 अरब डॉलर) के घाटे में चल रही हैं. यानी ये रकम 100 मिलियन घरों के (5 रुपये प्रति यूनिट के हिसाब से हर परिवार को प्रति दिन 10 यूनिट) बिजली बिलों का भुगतान करने के लिए काफी है.

ग्लोबल सब्सिडी इनिशिएटिव की स्टडी की रिपोर्ट के मुताबिक, सूबे में आई नई सरकार ने भी राजनीतिक फायदे के लिए बिजली की कीमतों को नहीं बढ़ाया, जिससे बिजली कंपनियों की हालत खस्ता हो चुकी है.

बिजली कंपनियों के घाटे के पीछे तकनीकी नुकसान, बिजली चोरी और बिजली बिल जमा करने में नाकामी भी बड़ी वजह हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

बढ़ता जा रहा है कंपनियों का घाटा

भारी नुकसान की वजह से ही बिजली कंपनियां उन गांवों तक बिजली पहुंचाने में नाकाम है, जहां अब तक बिजली नहीं पहुंची है. बता दें कि राज्य में ऐसे परिवारों की बड़ी संख्या है, जिन लोगों तक अभी भी बिजली नहीं पहुंची है.

सरकारी आंकड़ों की मानें, तो नवंबर 2017 में 38 मिलियन घरों में से 49 फीसदी घर ऐसे थे, जो अब तक बिजली की राह देख रहे हैं. बता दें कि केंद्र सरकार के 'पावर फॉर ऑल' प्लान के तहत यूपी हर महीने 3 लाख घरों तक बिजली पहुंचा रहा है.

यूपी की बिजली कंपनियों को 'उज्‍ज्‍वल डिस्कॉम एश्योरेंस स्कीम' से भी कोई लाभ नहीं मिला. साल 2015 में केंद्र सरकार की ओर से लॉन्च की गई ये स्कीम भी बिजली कंपनियों को कर्ज से नहीं उबार पाई. मार्च 2017 में इस स्कीम से जुड़ने के बाद यूपी सरकार और बिजली कंपनियों ने 3,323 करोड़ रुपये बचाए, जो कि कुल घाटे का 15.46 फीसदी है.

राजनीतिक दल जिम्मेदार!

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक, सत्ता में आने के साथ ही राजनीतिक दल जनता को साधने के लिए घरेलू बिजली की दरों को कम कर देते हैं और इस घाटे की भरपाई औद्योगिक बिजली की दरों को बढ़ाकर करते हैं. ऐसे में घाटा बढ़ता जाता है और हर सरकार आने वाली सरकार के लिए घाटा कम करने का काम छोड़ जाती है.

सीपीआर की स्टडी बताती है कि तमाम राजनीतिक दलों ने किस तरह से बिजली की दरें कम कर राजनीतिक लाभ उठाया. साल 2000 में उत्तर प्रदेश पॉवर कॉर्पोरेशन लिमिटेड पर कोई कर्ज नहीं था. लेकिन इस दौरान सूबे में बीजेपी की सरकार आई और राजनाथ सिंह सूबे के मुख्यमंत्री बने. राजनाथ सिंह ने बिजली की दरें बढ़ाने से इनकार कर दिया. ऐसे में साल 2002 खत्म होते-होते बिजली कंपनियों पर कर्ज बढ़ गया और आने वाली सरकारों पर बिजली की दरों को कम रखने का दवाब.

बाद में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी इसी ढर्रे पर चलीं और कर्ज बढ़ता गया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

ग्रामीण क्षेत्रों से राजस्व की कम वसूली

बिजली कंपनियों को ग्रामीण क्षेत्रों से भी बड़ा घाटा होता है. स्टडी के मुताबिक, ग्रामीण आबादी में महज 25 फीसदी लोग ही मीटर लगवाकर बिजली का इस्तेमाल करते हैं, जबकि 10 फीसदी से भी कम उपभोक्ता ही बिजली बिल जमा करते हैं. वहीं जिन घरों में मीटर नहीं लगे हैं, उनमें से ज्यादातर उपभोक्ता केवल फिक्स्ड चार्ज ही जमा करते हैं.

सर्वे के मुताबिक, किसान बिजली उपभोक्ताओं का भी यही हाल है. केवल 8 फीसदी किसान ही मीटर लगाकर इलेक्ट्रिक पंपों का इस्तेमाल करते हैं. इनमें से 53 फीसदी किसान ऐसे हैं, जिन्हें कभी बिजली बिल मिला ही नहीं.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×