गांधी की दूसरी हत्या
द टेलीग्राफ में रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि 1979 में पहली बार और फिर बाद के दशक में रिसर्च के सिलसिले में कई बार उन्होंने साबरमती आश्रम का दौरा किया. लेकिन, 2002 में भयानक दंगे के बाद गर्मी में जब वे पहली बार अहमदाबाद गए तो स्वाभाविक तौर पर साबरमती आश्रम भी पहुंचे. उन लोगों के साथ रहे जो 30 साल से आश्रम के साथ जुड़े हुए थे. उन लोगों ने बताया था कि 2002 में हुए गुजरात दंगे ‘महात्मा गांधी की दूसरी बार हत्या’ थी.
गुजरात दंगे के वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री वह व्यक्ति थे जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से शिक्षित थे और महात्मा गांधी को लेकर जिनके विचार जगजाहिर थे. एमएस गोलवलकर ने दिसंबर 1947 में कहा था,
“महात्मा गांधी अब और भ्रमित नहीं कर सकते. हम जानते हैं कि कैसे उन्हें तुरंत शांत करना है लेकिन हिन्दू से क्रूर नहीं होने की हमारी परंपरा है. अगर हमें मजबूर किया गया तो हम वह रास्ता भी अख्तियार करेंगे.”
नरेंद्र मोदी के लिए गोलवलकर ‘पूजनीय श्री गुरूजी’ थे और उनके लिए बेहद सम्मान था. लेकिन, गांधी के बारे में मोदी अमूमन खामोश रहे. मुख्यमंत्री रहते वे बहुत कम साबरमती आश्रम पहुंचे. लेकिन, प्रधानमंत्री होने के बाद यहां उनका आना-जाना बढ़ गया. वे जानते थे कि इंडियन ब्रांड के रूप में गांधी इस्तेमाल हो सकते हैं. मोदी ने दुनिया के राष्ट्राध्यक्षों को साबरमती आश्रम घुमाया. मोदी और गांधी के बीच नैतिक और विचारधारात्मक खाई बहुत बड़ी है. यह कभी पाटी नहीं जा सकेगी.
मोदी को लोकसभा में एक भी मुस्लिम सांसद की जरूरत नहीं है, जबकि गांधी विभिन्न धर्मों में सौहार्द्र के पुजारी रहे थे. गांधी का मतलब सच्चाई, पारदर्शिता और धार्मिक बहुलतावाद है. वहीं, मोदी का मतलब धोखा, रहस्य और बहुसंख्यकवाद है. गांधी ने जिन पांच आश्रमों को बनाया है उनमें दो दक्षिण अफ्रीका में हैं और तीन भारत में. साबरमती सबसे अलग है. जिन अर्थो में आज साबरमती ‘विश्व-स्तरीय’ हुआ है उससे रुह कांप जाती है.
जनसंख्या कानून खतरे की घंटी
तवलीन सिंह ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि उत्तर प्रदेश में जनसंख्या को काबू करने के लिए जिस नए कानून का ऐलान किया गया है, वह खतरे की घंटी है. भारतीय जनता पार्टी के नेता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नकल करते दिख रहे हैं. ऐसे ही एक नेता राकेश सिन्हा ने राष्ट्रीय स्तर पर कानून लाने के लिए राज्यसभा में प्राइवेट बिल लाने की पहल की है. इंडिया टुडे के चैनल पर उन्होंने कहा है कि इस बिल की प्रेरणा उन्हें इंदिरा गांधी से मिली है. बचपन में वे गांव की दीवारों पर ‘हम दो, हमारे दो’ लिखा देखा करते थे. लेखिका ने इमर्जेंसी के दौर में संजय गांधी के हवाले कर दिए गए देश की तब की हालत की याद भी दिलायी है.
तवलीन सिंह ने लिखा है कि जबरदस्ती नसबंदी के उस दौर के बाद चुनाव में जनता ने कांग्रेस को सबक सिखाया था. नेता परिवार नियोजन का जिक्र करना तक भूल गए थे. फिर भी 1994 में जन्म दर 3.4 और 2015 में 2.2 तक गिर गयी. यह लोगों के जागरूक होने का नतीजा था.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरणा लेते कई लोगों का मानना है कि मुसलमानों की आबादी अगर हिंदुओं से ज्यादा बढ़ती गई तो एक दिन मुसलमानों का राज हो जा सकता है या बंटवारे की नौबत आ सकती है. इसलिए योगी जैसे लोग आबादी को ‘विस्फोटक’ बताकर आम जनता की समस्याओं से लोगों का ध्यान भटका रहे हैं. लेखिका कहती हैं कि जहां कहीं भी महिलाएं अधिक बच्चे पैदा कर रही हैं, उसका कारण गरीबी और अशिक्षा है. इसका निवारण किया जाना चाहिए. चीन से भी सबक लेने की बात लेखिका ने कही है जो वापस दो से अधिक बच्चों की नीति पर लौट आया है.
कट्टरवाद का विकृत रूप
द टाइम्स ऑफ इंडिया में शोभा डे लिखती हैं कि यह बेहद दुखद है कि हमारा समाज ध्रुवीकृत हो चुका है. जितनी परत खुलती है कट्टरवाद का उतना ही विकृत रूप दिखता जाता है. ‘जीयो और जीने दो’ का आदर्श कहीं खो गया है. जो लोग मुंबई की श्रेष्ठता का दावा करते रहे हैं वे भी पूर्वाग्रहों से ग्रसित दिखाई पड़ रहे हैं. खासकर तब, जब अलग-अलग आस्थाओं वाले युवक-युवती के विवाह की बात आती है. ‘उन लोगों’ के लिए मुंबई बहुत संदिग्ध और असहज हो गयी है. मुस्लिम होने की वजह से ‘वे लोग’ भेदभाव का सामना कर रहे हैं. सोसायटी में ‘शिक्षित’ और ‘शिष्ट’ लोग भी अपने फ्लैट मुसलमानों को बेचने से मना कर रहे हैं.
शोभा डे लिखती हैं कि मुंबई में कई ऐसे लोग और समूह पैदा हो गए हैं जो पराए मामलों को अपना मानने लगे हैं और अलग-अलग आस्थाओं वाले शादी समारोह में बाधा डालने लगे हैं.
मुंबई की एक घटना का उदाहरण देती हुए शोभा लिखती हैं कि लड़की के पिता को समझाने के नाम पर धमकाने पहुंचे लोगों को लड़की की दिलेरी ने चुप कराया. मगर, पुलिस ने आरोपियों में से किसी को गिरफ्तार करने के बजाए ‘समझा देना’ बेहतर समझा.
बीते दिनों एक विज्ञापन में जिस तरह से अंतर धार्मिक गोद भराई समारोह में हुआ और उस विज्ञापन को वापस ले लिया गया, वह भी आश्चर्यजनक है. आज किसी मुस्लिम सुपरस्टार की हिम्मत नहीं होती कि वह हिंदू पर्व-त्योहार में शामिल होने की हिम्मत करे. इसी मुंबई में मोहम्मद युसूफ खान ने अपना नाम ‘दिलीप कुमार’ कर लिया था.
लेखिका मोहन भागवत के बयान की याद दिलाती हैं कि सभी भारतीयों का डीएनए एक समान है भले ही वे अलग-अलग धर्मों को मानने वाले क्यों न हों. लेखिका सवाल करती हैं कि क्या इस विचार को मानने का साहस देश दिखलाएगा?
अमेरिका-ब्रिटेन की कर-नीति से सीख सकता है भारत
टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि पेट्रोल-डीजल की खुदरा कीमतों का 60 फीसदी केंद्र और राज्य सरकारों के कर होते हैं. महंगाई दर को समायोजित कर देखने से पता चलता है कि ईंधन की कीमतें इतनी पहले कभी नहीं हुईं थीं. पेट्रोलियम उत्पादों पर कर लगाने से केंद्र सरकार का राजस्व बीते सात सालों में पांच गुणा से अधिक बढ़ा है. एक स्रोत पर यह निर्भरता जोखिमपूर्ण है.
नाइनन लिखते हैं कि एक साल बाद ही प्रदेशों के लिए जीएसटी कलेक्शन में 14 फीसदी की तयशुदा वृद्धि वाले पांच वर्ष बीत जाएंगे. इसी बीच ऐसा कुछ बड़ा करना होगा कि जीएसटी की दर उस स्तर पर आ सके जो व्यावहारिक है.
नाइनन ने बाइडन प्रशासन और ब्रिटेन के वित्तमंत्री ऋषि सुनक का अनुकरण करने की सलाह दी है. लेखक ने ध्यान दिलाया है कि बाइडन ने बुनियादी ढांचे पर व्यापक व्यय कार्यक्रम और गरीब अमेरिकियों को नकदी देने की घोषणा की है. पूंजीगत लाभ पर कर दुगुनी करने, शीर्ष स्तर पर आय कर दर बढ़ाने और कॉरपोरेट कर बढ़ाने की भी बात बाइडन ने कही है.
अमेरिका में ये गरीबों के बजाए अमीरों को निशाना बनाने वाले कर हैं. कर-जीडीपी अनुपात की समस्या हल करने और बिना उधारी बढ़ाए रक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी ढांचे के लिए जरूरी धन जुटाने के लिए ऐसा करना जरूरी है. नाइनन कहते हैं कि ‘वाम ब्राह्मण‘ (शिक्षित लोग जो दक्षिण से वाम हो गए हों) की आपत्तियों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं.
वायरस के बीच खेल का प्रयोग
सुरेश मेनन द हिंदू में लिखते हैं कि प्रयोग पूरा हो चुका है और अब नतीजे का इंतजार है. बीते हफ्ते के अंत में इंग्लैंड के विम्बले, विंबल्डन और लॉर्ड्स में बड़े खेल आयोजन हुए. यूरो फाइनल में 60 हजार से ज्यादा की भीड़ के बीच इंग्लैंड ने इटली को हराया तो नोवाक जोकोविक ने 20वां ग्रैंड स्लैम 15 हजार लोगों के बीच जीता. इसी तरह 20 हजार लोगों ने पाकिस्तान को हराते हुए इंग्लैंड को देखा. अगले दो हफ्ते में इन करीब एक लाख लोगों का क्या होता है उस पर हमारा भविष्य निर्भर करने वाला है.
सुरेश मेनन लिखते हैं कि वास्तव में कोरोना वायरस के साथ हमें जीना सीखना होगा. अगर खेल समाज का दर्पण है तो खेल स्थलों पर जो कुछ हो रहा है, वही खेल मैदान से बाहर भी होगा. जल्द ही खुलासा हो जाएगा कि इंग्लैंड के खेल संस्थान बहादुर हैं या मूर्खता कर रहे हैं.
इंग्लैंड क्रिकेट टीम के कप्तान बेन स्टोक्स ने कहा है कि वे परिस्थिति से समझौता कर रहे हैं और अगले महीने 4 अगस्त से वे भारत के साथ सीरीज खेलने जा रहे हैं. पहले भी पाकिस्तान के साथ सीरीज खेलते हुए इंग्लैंड को कोरोना संक्रमण के कारण अपनी पूरी टीम बदलनी पड़ी थी. श्रीलंका में भारत के साथ टेस्ट मैच की सीरीज तब रद्द कर दी गई थी, जब श्रीलंका के बैटिंग कोच और टीम विश्लेषक कोविड संक्रमित हो गए.
इंग्लैंड की क्रिकेट टीम के मैनेजिंग डायरेक्टर एश्ले गाइल्स ने कहा है कि वे अपने समय के खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं. पूरी दुनिया में इसी खतरे के साथ खेल हो रहे हैं. ये खेल तभी जारी रह सकते हैं जब कम से कम नुकसान हो. डरहम में टी20 इंटरनेशनल के बाद श्रीलंका के तीन खिलाड़ी इंग्लैंड दौरे पर बाहर घूमते पाए गए थे, जिसके बाद उन्हें निलंबित कर दिया गया. इं
ग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया अपने खिलाड़ियों को सुरक्षित जरूर रख पाए हैं, लेकिन भारत ऐसा नहीं कर सका है. आईपीएल के दौरान वृद्धिमान साहा और अमित मिश्रा कोविड पॉजिटिव हो गए थे. कम यात्रा, लगातार निगरानी और सूझबूझ के साथ अनुशासन ही सही नियम है जिसका पालन किया जाना चाहिए.
पिता का चरित्र उजागर करती बेटे की पुस्तक
करन थापर ने हिंदुस्तान टाइम्स में ‘एन ऑर्डिनरी लाइफ’ की समीक्षा लिखी है, जिसके लेखक पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा हैं. यह पुस्तक पिता उदय सिंह लवासा की डायरी के आधार पर लिखी गई है. पुस्तक इस वजह से ध्यान खींचती है कि इसमें कई ऐसी बातें हैं जो बेचैन करती हैं. उदय सिंह लवासा का अपने सिद्धांतों और मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता हर जगह दिखती है और बेटे ने उसकी तारीफ की है. करन बताते हैं कि समस्या यह है कि लवासा का चित्रण इतनी ईमानदारी से हुआ है कि अक्सर वे स्वार्थी, असंवेदनशील, दूसरों की परवाह नहीं करने वाले और दूसरों को धमकाने वाले नजर आते हैं.
लेखक उदाहरण देते हैं कि 9 साल की उम्र में अपने बेटे अशोक लवासा को बेलगांव स्थित स्कूल जाने के लिए उनके पिता ने बंबई रेलवे स्टेशन पर छोड़ दिया. तीन जगहों पर ट्रेन बदलनी थी. सुबह ढाई बजे ट्रेन बेलगाम पहुंची. एक अजनबी अपने साथ अशोक को अपने घर ले गए. रात भर रखा. भोजन कराया और स्कूल भी भेजा. यह सब इसलिए किया गया कि बेटा खुद से अपने पैरों पर खड़ा हो सके.
लेखक अशोक लवासा अपने पिता के फैसले का बचाव करते हैं कि तब हम अजनबी पर भी भरोसा करते थे. आज ऐसा नहीं कर सकते. शायद कोई दूसरा पिता इतना जोखिम नहीं ले सकता और न ही माएं ऐसे पिता को माफ ही कर सकती हैं. मुंह पर सच कह देने के लिए भी पिता लवासा कुख्यात रहे. लेखक बताते हैं कि उनके मामाजी की 50 साल की उम्र में दुर्घटना में मौत हो गई जिनके चार छोटे-छोटे बच्चे और विधवा पत्नी थीं. तब अंतिम संस्कार खत्म होने के बाद पिता लवासा ने आश्रितों को कहा था कि ईश्वर जो करता है अच्छे के लिए करता है. सच यह है कि कोई ऐसा पिता नहीं जिसमें चारित्रिक दोष ना हो, लेकिन कितने बेटे उनका खुलासा कर पाते हैं? मगर, ऐसा करते हुए भी इस पुस्तक में मां-बाप के प्रति अथाह लगाव और प्यार दिखता है.
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