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UPSC से क्‍या चाहते हैं आंदोलनकारी छात्र, कैसे मारा गया उनका ‘हक’?

छात्रों का सवाल है कि क्‍या आज ‘गाय’ और ‘मंदिर’ ही चुनावी एजेंडे में ऊपर रहेंगे? छात्रों के भविष्‍य का कोई मोल नहीं?

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कड़कड़ाती ठंड का सीजन. शिमला की बर्फीली हवाओं से टक्‍कर लेती दिल्‍ली की 30 दिसंबर की सर्द रात. राजधानी के मुखर्जीनगर इलाके की सड़क पर अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे छात्रों का ग्रुप. अचानक पुलिस दल-बल के साथ आती है और आंदोलनकारी छात्रों पर पानी की बौछार करवाकर उन्‍हें तितर-बितर करने की कोशिश करती है. पुलिस ये भी नहीं देखती कि इनमें से कई छात्र भूख-हड़ताल पर हैं.

भीड़ के बीच जल रही अलाव की आग तो पुलिस-प्रशासन के ठंडे पानी से बुझ जाती है, लेकिन आंदोलन की आग और तेज हो जाती है. सवाल उठता है कि ये आंदोलनकारी कौन हैं, ये चाहते क्‍या हैं?

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कौन हैं ये आंदोलनकारी

दरअसल, आंदोलन कर रहे स्‍टूडेंट देश की प्रतिष्‍ठ‍ित सिविल सर्विसेज परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं. केंद्र के स्‍तर पर ये परीक्षा संघ लोग सेवा आयोग (UPSC) आयोजित करवाता है. इस परीक्षा को पास करके लोग IAS, IPS और इस जैसी कई सर्विस में पहुंचते हैं.

छात्र इस बात से नाराज हैं कि UPSC ने पिछले कुछ साल में परीक्षा के सिलबस और नियमों में ऐसे-ऐसे बदलाव किए, जिससे उनका काफी वक्‍त बर्बाद हुआ. इसकी भरपाई के लिए ये परीक्षा में और चांस दिए जाने की मांग कर रहे हैं.
छात्रों का सवाल है कि क्‍या आज ‘गाय’ और ‘मंदिर’ ही चुनावी एजेंडे में ऊपर रहेंगे? छात्रों के भविष्‍य का कोई मोल नहीं?
7 जनवरी को छात्रों की भूख हड़ताल का 8वां दिन रहा
(फोटो: वैभव पलनीटकर/क्‍विंट हिंदी)

छात्रों की मांगें क्‍या हैं?

छात्रों की मांगें क्‍या हैं, इसे समझना कोई मुश्किल काम नहीं है. सिविल सर्विसेज की तैयारी में जुटे और UPSC का इंटरव्‍यू दे चुके अभिषेक (चंपारण, बिहार) बताते हैं:

‘’मान लीजिए कोई 20-20 मैच होने जा रहा हो. टॉस हो जाता है, खिलाड़ी तय हो जाते हैं. लेकिन मैच शुरू होने से ठीक पहले ये बताया जाता है कि अब ये मैच 50 ओवर का कर दिया गया है. क्‍या ये नाइंसाफी नहीं है? UPSC ने हमारे साथ 2011 से लेकर 2015 तक कई बार ऐसा ही बर्ताव किया.’’

आयोग ने कैसे किया बड़ा बदलाव?

साल 2011

दरअसल, UPSC ने सिविल सर्विसेज परीक्षा के सिलेबस में 2011 में एक बड़ा बदलाव किया, जिसकी मार देश के बहुत बड़े छात्र समुदाय पर पड़ी.

आयोग ने उस साल प्रारंभिक परीक्षा (Preliminary Test) में CSAT (Civil Services Aptitude test ) लेकर आया. मतलब एक पेपर CSAT, दूसरा पेपर सामान्‍य अध्‍ययन. CSAT में मैथ्‍स, रिजनिंग, अंग्रेजी आदि के सवाल पूछे जाने लगे. प्रारंभ‍िक परीक्षा का रिजल्‍ट तैयार करने में CSAT के अंक भी जोड़े जाते थे, इसलिए इसे कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता था.

इससे पहले प्रारंभिक परीक्षा में एक पेपर सामान्‍य अध्‍ययन का होता था, दूसरा पेपर ऑप्‍शनल सब्‍जेक्‍ट का, जिसे कोई छात्र अपनी मर्जी से चुनता था.

2011 के बदलाव का असर ये हुआ कि इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट और साइंस बैकग्राउंड से आने वाले छात्र सिविल सर्विसेज की प्रारंभिक परीक्षा आसानी से पास करने लगे, जबकि ह्यूमैनिटीज बैकग्राउंड (इतिहास, भूगोल, राजनीति शास्‍त्र आदि) के छात्रों के सामने बड़ा बैरियर खड़ा हो गया.

वजह ये कि ह्यूमैनिटीज वाले अब तक परंपरागत तरीके से इस परीक्षा की तैयारी करते आए थे, जिसमें प्रारंभिक और मुख्‍य परीक्षा में ऑप्‍शनल सब्‍जेक्‍ट पर कहीं ज्‍यादा फोकस करना होता था.

दूसरी ओर इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट वाले अपने बैकग्राउंड की वजह से मैथ्‍स, रिजनिंग, अंग्रेजी के सवाल फटाफट हल करने में माहिर होते थे. उनके लिए CSAT 'चटनी' बराबर था, जबकि बाकियों के लिए 'टेढ़ी खीर'. यहीं से बड़ा अंतर पैदा होता गया.

छात्रों का सवाल है कि क्‍या आज ‘गाय’ और ‘मंदिर’ ही चुनावी एजेंडे में ऊपर रहेंगे? छात्रों के भविष्‍य का कोई मोल नहीं?
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साल 2013

आयोग ने दूसरा बड़ा बदलाव 2013 में किया. अब तक मुख्‍य परीक्षा में 2 ऑप्‍शनल सब्‍जेक्‍ट (कुल 4 पेपर) के साथ सामान्‍य अध्‍ययन (कुल 2 पेपर ) होते थे. अब मेंस एग्‍जाम से एक ऑप्‍शनल सब्‍जेक्‍ट हटा दिया गया और उसकी जगह सामान्‍य अध्‍ययन के अतिरिक्‍त पेपर जोड़ दिए गए. इस तरह ऑप्‍शनल विषय की वैल्‍यू अचानक घट गई, जबकि सामान्‍य अध्‍ययन का महत्‍व और बढ़ गया.

इस बदलाव का तगड़ा झटका भी ह्यूमैनिटीज विषय और हिंदी समेत अन्‍य भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने वालों को लगा.

CSAT की मार '2.0'

साल 2015

आयोग ने साल 2015 में अपनी 'भूल' को सुधारते हुए CSAT को महज क्‍वालीफाइंग कर दिया. पहले CSAT में हासिल अंक प्रारंभिक परीक्षा में जुड़ जाते थे, जबकि अब इसे सिर्फ क्‍वालीफाई करना जरूरी हो गया.

आंदोलनकारी छात्रों का कहना है कि आयोग ने ये फैसला परीक्षा के ठीक पहले अचानक ही ले लिया. इससे उन छात्रों की मेहनत बेकार गई, काफी वक्‍त खराब हुआ, जिन्‍होंने CSAT की जमकर तैयारी की, ताकि अच्‍छे अंक लाकर PT पास कर सकें.

अब क्‍या चाहते हैं आंदोलनकारी?

छात्र अब चाहते हैं कि आयोग ने इस तरह परीक्षा के सिलेबस और नियमों में अचानक बदलाव करके जो 'नुकसान' पहुंचाया है, इसकी भरपाई उन्‍हें एक्‍स्‍ट्रा चांस देकर करे.

आंदोलनकारियों में से एक रजनीश (इलाहाबाद) कहते हैं:

‘’आयोग ने इस प्रतिष्‍ठ‍ित परीक्षा को ‘लैब’ बनाया और हम सबों से ‘चूहे’ की तरह बर्ताव किया गया. कुछ ही बरस में तरह-तरह के प्रयोग किए, फिर हमें अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया गया.’’

छात्रों का तर्क है कि साल 2015 जिनके लिए परीक्षा देने का आखिरी मौका था, उनका करियर प्रभावित हुआ. जिनके लिए 2016 या 2017 आखिरी मौका रहा, उनकी तैयारी का भी एक बड़ा हिस्‍सा आयोग के फैसले से प्रभावित हुआ. इसी ग्राउंड पर वे साल 2019, 2020 और 2021 में एक्‍स्‍ट्रा चांस दिए जाने की मांग कर रहे हैं.

छात्रों का सवाल है कि क्‍या आज ‘गाय’ और ‘मंदिर’ ही चुनावी एजेंडे में ऊपर रहेंगे? छात्रों के भविष्‍य का कोई मोल नहीं?

छात्रों का कहना है कि केंद्र सरकार या केंद्र सरकार से गठित कमीशन की सिफारिश पर UPSC परीक्षा, सिलेबस, एज लिमिट आदि में बदलाव करता आया है. लेकिन इन बदलावों के लागू होने से प्रभावित छात्रों के नुकसान की भरपाई एक्‍स्‍ट्रा चांस देकर की जाती रही है.

इस बार भी साल 2011 से लेकर 2015 के बीच जो छात्र कम से कम एक बार भी सिविल सर्विसेज परीक्षा में बैठे, उन्‍हें और मौके दिए जाने की मांग की जा रही है.

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हाल में कैसे सुलगी चिनगारी

सिविल सर्विसेज के कई छात्र पिछले कुछ साल से अपनी मांगों को लेकर सबका ध्‍यान खींचते रहे हैं, लेकिन हाल में एक रिपोर्ट से आंदोलनकारियों को बल मिला. अंग्रेजी अखबार 'द इंडियन एक्‍सप्रेस' की रिपोर्ट के मुताबिक, मसूरी के लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी (LBSNAA) में ट्रेनिंग ले रहे 370 अधिकारियों में से महज 8 ही ऐसे थे, जिन्‍होंने सिविल सेवा परीक्षा हिंदी माध्‍यम में दी.

ये आंकड़ा एक बड़े और गंभीर खाई की ओर इशारा करता है. हिंदी मीडियम वाले जो 8 लोग ट्रेनिंग ले रहे हैं, उनमें भी कोई आईएएस नहीं बन पाएगा. उन्‍हें महज एलायड सर्विस से ही संतोष करना पड़ेगा.

क्‍या ये 'हिंदी बनाम अंग्रेजी' का झगड़ा है?

आंदोलनकारी छात्रों में से एक मोनिका जैन (सूरत) कहती हैं, ''हाल के कुछ बरसों में हिंदी मीडियम से चुने जाने वालों का ग्राफ बुरी तरह गिरा है, लेकिन ऐसा समझना गलत है कि ये सिर्फ हिंदी बनाम अंग्रेजी मीडियम का झगड़ा है. हकीकत ये है कि CSAT के आने से हिंदी समेत तमाम भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने वाले का हित बुरी तरह प्रभावित हुआ है.''

इसी बात को और साफ करते हुए वे कहती हैं:

‘’मान लीजिए, किसी ने तब फिलॉसफी सब्‍जेक्‍ट की तैयार इंग्‍ल‍िश मीडियम में की थी. CSAT से तो उसके रिजल्‍ट पर भी असर पड़ा होगा, जबकि उसका माध्‍यम अंग्रेजी था. सारे मानविकी विषय वाले प्रभावित हुए, जबकि तकनीकी विषय और साइंस वालों को अतिरिक्‍त फायदा मिला.’’
छात्रों का सवाल है कि क्‍या आज ‘गाय’ और ‘मंदिर’ ही चुनावी एजेंडे में ऊपर रहेंगे? छात्रों के भविष्‍य का कोई मोल नहीं?
UPSC की सिविल सर्विसेज परीक्षा में हिंदी मीडियम से अब तक कोई भी टॉप नहीं कर सका है
(सांकेतिक फोटो)
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ये 'ग्रामीण बनाम शहरी' भारत का सवाल

लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी (LBSNAA) की एक रिपोर्ट बताती है कि साल 2008 में वहां प्रशासनिक ट्रेनिंग लेने वालों में ग्रामीण और शहरी बैकग्राउंड के लोगों की तादाद करीब-करीब समान थी. साल 2011 में ग्रामीण बैकग्राउंड वालों की तादाद शहरी के मुकाबले घटकर आधी रह गई. 2013 में तो इनका आंकड़ा गिरकर 1/6 से भी कम रह गया.

मतलब, आंदोलनकारी छात्र जिस गंभीर हालात की ओर इशारा कर रहे हैं, उसकी अनदेखी करना आसान नहीं है. अगर ऐसा ही चलता है, तो ये खाई और चौड़ी होगी.

मोदी सरकार से उम्‍मीदें

सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वाले और आंदोलन में शामिल छात्रों का कहना है कि मोदी सरकार को उनके साथ 'इंसाफ' करना चाहिए. चुनावी साल है, इसलिए मुखर्जीनगर में प्रकाश करात (CPM) और संजय सिंह (AAP) जैसे सांसद भी कभी-कभार झांकने पहुंच रहे हैं.

लेकिन छात्रों की सबसे ज्‍यादा नाराजगी प्रधानमंत्री से है. पीएम नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र बनारस के आंदोलनकारी छात्र तन्‍मय सिंह कुछ इस तरह अपनी बात रखते हैं:

‘’मोदी जी खुद को ‘चायवाला’ कहते हैं, गरीब तबके से पीएम पद तक पहुंचने वाला इंसान बताते हैं, फिर वे ग्रामीण भारत से आने वाले और अपनी भाषा में पढ़ाई करने वाले हजारों मेधावी छात्रों की उम्‍मीदों पर पानी क्‍यों फेर रहे हैं?’’

छात्रों का गुस्‍सा इस बात को लेकर भी है कि अभी केंद्र में बीजेपी की सरकार है, जिसे संघ और वीएचपी जैसे हिंदूवादी संगठनों का समर्थन हासिल है. वही संघ और वीएचपी, जिसने भारतेंदु हरिश्‍चंद्र के 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्‍तान' के नारे को लपकने में तनिक भी देर नहीं लगाई. फिर आखि‍र यही सरकार इन प्रभावित छात्रों को UPSC से एक्‍स्‍ट्रा चांस क्‍यों नहीं दिलवाती है?

इनका सवाल ये भी है कि क्‍या आज 'गाय' और 'मंदिर' ही सरकार के चुनावी एजेंडे में सबसे ऊपर रहेगा? क्‍या बार-बार नियमों में बदलाव की मार झेल रहे मेधावी छात्रों की अहमियत इन मुद्दों के आगे कुछ भी नहीं?

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देखें वीडियो:

UPSC की तैयारी करने वाले क्यों भूख हड़ताल को मजबूर?

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