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UP में सबके अपने-अपने राम,किसी के ‘जय सियाराम’, तो किसी के परशुराम

अचानक इस ‘ब्राह्मण प्रेम’ की वजह क्या है?

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उत्तर प्रदेश में 'राम लहर' के बाद अब 'परशुराम लहर' चल रहा है. राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे को 'मूर्ति लगाओ अभियान' में टफ कॉम्पिटिशन देने में लगी हैं. राम मंदिर भूमिपूजन के साथ लग रहा था कि अब मंदिर या मूर्ति को लेकर राजनीति खत्म हो गई है, लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं हुआ. हालांकि, इस बार भी 'राम' हैं लेकिन जय सिया राम वाले नहीं बल्कि ब्राह्मण समाज की आस्था के प्रतीक परशुराम.

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एक तरफ समाजवादी पार्टी परशुराम की 108 फीट ऊंची मूर्ति लगाना चाहती है तो मायावती समाजवादियों से दो कदम आगे और भव्य मूर्ति बनवाना चाहती हैं. वहीं कांग्रेस भी इसी होड़ में शामिल हो गई है. कांग्रेस परशुराम जयंती पर सरकारी छुट्टी घोषित करने की मांग कर रही है.

दरअसल, जब राम मंदिर भूमिपूजन के मौके पर करीब-करीब सभी राजनीतिक पार्टियां राम का जयकारा लगा रही थी, उस वक्त समाजवादी पार्टी राम के साथ-साथ परशुराम को लेकर भी प्लान बना रही थी. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने परशुराम की 108 फीट ऊंची मूर्ति लगाने की बात कही है. अखिलेश की ये बात उनकी विरोधी बीएसपी चीफ मायावती को पसंद नहीं आई. मायावती ने कहा,

“समाजवादी पार्टी द्वारा श्री परशुराम की ऊंची मूर्ति लगवाने की बात केवल चुनावी स्वार्थ है. ब्राह्मण समाज को बीएसपी की कथनी और करनी पर पूरा भरोसा है. बीएसपी सरकार बनने पर ब्राह्मण समाज की इस चाहत के मद्देनजर श्री परशुराम की मूर्ति हर मामले में समाजवादी पार्टी की तुलना में ज्यादा ही भव्य लगाई जाएगी.”
मायावती, अध्यक्ष, बीएसपी

मतलब कॉम्पिटिशन तगड़ा है. अब सोचने वाली बात ये है कि परशुराम को लेकर ये पार्टियां अचानक इतनी एक्टिव क्यों हो गईं? इन पार्टियों पर दलित, ओबीसी और मुसलमानों की राजनीति करने का आरोप लगता रहा है फिर अचानक इस ब्राह्मण प्रेम की वजह क्या है?

ब्राह्मण वोट पर नजर

उत्तर प्रदेश में करीब 23 फीसदी सवर्ण जाति के वोटर हैं, जिसमें से सबसे ज्यादा 11-12 फीसदी ब्राह्मण हैं. हालांकि, ये नंबर भले ही ओबीसी (40%) और एससी/एसटी (20%) समुदाय के सामने कम लगे लेकिन राजनीति में एक-एक वोट मायने रखता है. दरअसल, 'ब्राह्मण प्रेम' के पीछे सिर्फ 11-12 फीसदी वोटर को रिझाना ही नहीं है, बल्कि वोट को बिखेरना भी है.

गोरखपुर के रहने वाले और समाज शास्त्र के प्रोफेसर प्रमोद कुमार शुक्ला बताते हैं कि ब्राह्मणों में पिछले कुछ दिनों से सरकार से अंदर-अंदर नाराजगी चल रही है.

“आप परशुराम की मूर्ति लगवाने के वादों को सिर्फ वोट पाने की चाहत के रूप में नहीं देख सकते हैं. इसके पीछे गहरी राजनीति है. उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण कई मामलों में नाराज हैं. पिछले दिनों कई सारे मुठभेड़ों में ज्यादातर जो अपराधी मारे गए हैं, वह ब्राह्मण थे. यही नहीं बहुत सारे ब्राह्मणों की हत्या भी हुई है. इसी वजह से कहीं न कहीं ब्राह्मण समुदाय ने अपने आपको महत्वहीन महसूस किया है. जो ब्राह्मण समाज प्रभुत्व रखता है, जो सशक्त है उसके मन में ये भावना आई है कि उसे पीछे किया जा रहा है.”

ब्राह्मण तो बहाना है, योगी निशाना हैं

1980 में आई मंडल कमीशन की रिपोर्ट के बाद उत्तर प्रदेश में दलित और ओबीसी वर्ग की राजनीति आगे बढ़ती गई और ब्राह्मण सीएम कुर्सी से दूर होते चले गए. उत्तर प्रदेश में साल 1989 के बाद अबतक कोई भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठ सका. नारायणदत्त तिवारी आखिरी ब्राह्मण सीएम थे. हालांकि ब्राह्मणों का दबदबा हर सरकार में रहा है. चाहे मायावती की सरकार में उनके करीबी सतीश मिश्रा का हो या मुलायम सिंह के वक्त जानेश्वर मिश्र. अब आते हैं असल मुद्दे पर.

साल 2017 में बीजेपी उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई और सीएम बने ठाकुर समाज के योगी आदित्यनाथ. प्रोफेसर प्रमोद बताते हैं,

“उत्तर प्रदेश में ठाकुर और ब्राह्मणों के बीच पुरानी अदावत चलती आई है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ क्षत्रिय समुदाय से हैं और ब्राह्मण उनके शासन में खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. बीजेपी में ठाकुर की पकड़ बढ़ने से ब्राह्मणों में नाराजगी बढ़ी है. ऐसे में राजनीतिक पार्टियां परशुराम के नाम से ब्राह्मण को अपने पाले में लाकर योगी आदित्यनाथ को कमजोर करना चाहती हैं.”

कांग्रेस-बीजेपी भी पीछे नहीं

उत्तर प्रदेश में बीजेपी पहले से ही सवर्णों की पार्टी कहलाती रही है, वहीं कांग्रेस की सरकार के बाद कोई भी ब्राह्मण सीएम नहीं बन सका. लेकिन दोनों ही पार्टियां किसी न किसी तरह ब्राह्मण समाज के नजदीक रही हैं. इस बात को आप ऐसे भी समझ सकते हैं,

उत्तर प्रदेश में जब योगी आदित्यनाथ सीएम बने तो बीजेपी ने ब्राहम्ण समाज को खुश करने के लिए दिनेश मिश्रा को उप मुख्यमंत्री बना दिया. 2017 विधानसभा चुनाव में बीजेपी के कुल 312 में से 58 ब्राह्मण विधायक चुने गए. मंत्रिमंडल में भी 9 ब्राह्मणों को जगह दी गई.

वहीं कांग्रेस में 2007 से लेकर 2012 तक ब्राह्मण समाज से आने वाली रीता बहुगुणा जोशी उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्षा रहीं. हालांकि, अक्टूबर 2016 में वह भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गईं. यहीं नहीं कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद लगातार ब्राह्मण चेतना परिषद के जरिए ब्राह्मणों को एकजुट करने में जुटे हुए हैं.

क्या समाजवादी पार्टी 'यादव' टैग से बाहर निकलना चाहती है?

समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता अनुराग भदौरिया बताते हैं कि परशुराम जी की मूर्ति लगाने का प्रस्ताव पार्टी के कार्यकर्ताओं ने दिया. उनका मन है कि उनके संतों, गुरुओं के नाम पर कुछ बने. अनुराग बताते हैं,

“समाजवादी लोग जाति की राजनीति नहीं करते हैं, समाजवादी सरकार ने पंडित चंद्रशेखर आजाद के नाम पर इलाहाबाद में पार्क बनवाया. लखनऊ में जनेश्वर मिश्र के नाम पर सबसे बड़ा पार्क बना है. हम विकास की बात करते हैं. मायावती या किसी और को इसमें राजनीति नजर आती है तो वो करें, हम अस्पताल, सड़क, मेट्रो की बात करते हैं.”
अनुराग भदौरिया, प्रवक्ता, समाजवादी पार्टी

जब क्विंट ने अनुराग भदौरिया से योगी आदित्यनाथ को टारगेट करने के लिए परशुराम की मूर्ति बनवाने का सवाल किया तो उन्होंने कहा, परशुराम पंडित थे और उनकी मां क्षत्रिय. फिर हम कैसे किसी से नफरत कर सकते हैं.

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बीएसपी को वापसी का इंतजार

मायावती उत्तर प्रदेश की सत्ता से पिछले 8 साल से बाहर हैं, साल 2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने दलित और ब्राह्मणों के सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले से सत्ता में वापसी की थी. अब एक बार फिर वो 2007 वाला दलित-ब्राह्मण कार्ड चलना चाहती हैं. इसलिए शायद इसकी तैयारी मायावती ने 2019 के बाद ही कर दी थी, जब उन्होंने अमरोहा से सांसद दानिश अली को हटाकर यूपी के अंबेडकर नगर से युवा सांसद और ब्राह्मण समाज से आने वाले रितेश पांडे को लोकसभा का नेता बनाया था.

2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में हर कोई अपने-अपने राम को ढूंढ़ने में लगा है, बीजेपी राम मंदिर के सहारे आगे बढ़ रही है, ऐसे में बाकी पार्टियों ने भी अपना-अपना राम ढूंढ़ना शुरू कर दिया है.

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