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कस्टडी में मौत के मामले में यूपी नंबर-1, कासगंज केस की थ्योरी पर सवाल

यूपी में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां पुलिस 'रक्षक' नहीं बल्कि 'भक्षक' नजर आती है

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यूपी के कासगंज में 22 साल के नौजवान अल्ताफ की पुलिस हिरासत में संदिग्ध मौत का मामला तूल पकड़ता जा रहा है. पुलिस का दावा है कि अल्ताफ ने अपनी जैकेट की हुड में लगी डोरी से 2 फीट की ऊंचाई पर लगी टोंटी से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली.

हालांकि एसपी ने लापरवाही बरतने के आरोप में 5 पुलिसवालों को सस्पेंड कर दिया है. वहीं अल्ताफ के परिजनों का आरोप है कि पुलिस ने उसकी हत्या की है.

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परिवार ने की CBI जांच की मांग

अल्ताफ की मां ने इस 'कथित आत्महत्या' की सीबीआई जांच की मांग की है. साथ ही पुलिस पर आरोप लगाए हैं.

अल्ताफ के पिता चांद मियां ने पहले पुलिस पर आरोप लगाए, फिर एक बयान जारी कर कहा कि वो पुलिस की कार्रवाई से संतुष्ट हैं. लेकिन 24 घंटे के भीतर फिर से आरोप लगा दिया कि वो अनपढ़ हैं और उन्होंने सिर्फ अंगूठा लगाया, उन्हें नहीं पता था कि उस कागज में क्या लिखा है.

कासगंज की इस घटना के बाद एक बार फिर से यूपी पुलिस की कार्यशैली पर सवाल उठे हैं. हाल ही में गोरखपुर में हुई कानपुर के कारोबारी मनीष गुप्ता की हत्या समेत तमाम ऐसे उदाहरण हैं, जहां पुलिस 'रक्षक' नहीं बल्कि 'भक्षक' नजर आती है.

उत्तर प्रदेश में पुलिस हिरासत में मौत के सबसे ज्यादा मामले

इसी साल, 27 जुलाई को लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़े पेश किए थे. इन आंकड़ों के मुताबिक हिरासत में होने वाली मौतों के मामले में उत्तर प्रदेश पूरे देश में सबसे ऊपर है.

2018 से लेकर 2021 के दौरान यूपी में 1,318 लोगों की हिरासत में मौत हुई है, जो पूरे देश का करीब 24 फीसदी है. इनमें से 23 लोगों की जान पुलिस हिरासत में गई, जबकि 1,295 लोगों की मौत न्यायिक हिरासत में हुई है.

एनएचआरसी के आंकड़े बताते हैं कि बीते 3 सालों में देश में 5,569 लोगों की मौत हिरासत में हुई है. इनमें से 5,221 लोगों की जान न्यायिक हिरासत के दौरान गई जबकि 348 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हुई है.

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पुलिस कस्टडी में टॉर्चर के मामले

3 अगस्त को एक दूसरे सवाल के जवाब में नित्यानंद राय ने बताया कि बीते 3 सालों में पूरे देश में पुलिस हिरासत में प्रताड़ना के कुल 1,189 मामले रिपोर्ट किए गए हैं. एनएचआरसी के आंकड़ों का हवाला देते हुए मंत्री ने ये दावा भी किया कि पुलिस हिरासत में प्रताड़ना या मौतों की घटनाओं में कोई वृद्धि नहीं हुई है.

एनएचआरसी के दिशा-निर्देशों के मुताबिक पुलिस या न्यायिक हिरासत में होने वाली मौतों की सूचना 24 घंटे भीतर आयोग को देनी होती है. अगर आयोग अपनी जांच में किसी सरकारी कर्मचारी की लापरवाही पाता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई के लिए राज्य या केंद्र सरकार से सिफारिश करता है.

एनएचआरसी के आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ सितंबर में ही देश में पुलिस हिरासत में हुई मौतों के 24 और न्यायिक हिरासत में हुई 254 मौतों के मामले सामने आए. अक्टूबर, 2021 तक देशभर में पुलिस हिरासत में हुई मौतों के 344 और न्यायिक हिरासत में हुई मौतों के 3,407 मामले लंबित थे.

लेकिन कासगंज जैसी घटनाओं में पुलिस के आला-अधिकारी अपने लोगों को क्लीनचिट देने की जल्दबाजी में दिखाई पड़ते हैं. जैसा कि कानपुर में कारोबारी की हत्या के दौरान भी हुआ था. सवाल ये कि जिस उत्तर प्रदेश में हिरासत में इतनी मौतें हो रही हों, क्या वहां बाथरूम की टोंटी से लटककर आत्महत्या की पुलिस की थ्योरी की जांच नहीं होनी चाहिए?

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