उत्तराखंड ने 7 साल बाद एक बार फिर प्राकृतिक आपदा देखी है. चमोली जिले में अचानक पानी का सैलाब उमड़ पड़ा और रास्ते में आने वाली हर चीज को तबाह कर दिया. ग्लेशियर टूटने को इसका कारण बताया गया. इससे पहले 2013 में केदारनाथ में ऐसी भयानक आपदा देखने को मिली थी. जिसमें हजारों लोगों ने सैलाब की चपेट में आकर अपनी जान गंवाई. लेकिन सवाल उठ रहे हैं कि आखिर हिमालयी क्षेत्रों में ऐसी आपदा का कारण क्या है? इसे जानने के लिए हमने कुछ एक्सपर्ट्स से बात की, जिन्होंने बताया कि कैसे इकोलॉजी से खिलवाड़ किया जा रहा है.
कैसे आई चमोली में जल प्रलय?
पर्यावरण क्षेत्र से जुड़ी प्रमुख संस्था 'सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट' (सीएसई) में बतौर डिप्टी डीजी काम कर चुके चंद्र भूषण ने बताया कि कैसे उत्तराखंड जैसे राज्य में लगातार प्रोजेक्ट चल रहे हैं और डैम बनाए जा रहे हैं. चमोली में हुई इस घटना को लेकर भूषण ने बताया कि ये कोई ग्लेशियर टूटना नहीं है. उन्होंने कहा,
"मुझे नहीं लगता है कि ये ग्लेशियर टूटा है. हिमालय में जो ग्लेशियर है वो पहाड़ों पर स्लो मूविंग आइस है. ये आर्कटिक की तरह नहीं कि जहां ग्लेशियर टूटकर पानी में चला जाता है. जैसा वीडियो में दिख रहा है कि ऊपर से बहुत सारा पानी आ रहा है, तो इसे ग्लेशियर बस्ट कहा जाता है. या तो इसे लेक आउट बस्ट कहा जाता है. मुझे लगता है कि यहां पर ग्लेशियर के बीच एक छोटा सी लेक बनी होगी, जब उसकी वॉल टूटी तो वो पानी तेजी से नीचे की तरफ आया. इसका दूसरा कारण ये भी हो सकता है कि, लैंडस्लाइड ने धूलीगंगा रिवर को ब्लॉक कर दिया होगा. जिसके पीछे पानी जमा हो गया और वो टूट गया. ग्लेशियर ब्रेक होना साइंटिफिकली पॉसिबल नहीं लग रहा है."
प्रोजेक्ट के लिए नेचर से समझौता कर रही सरकार
हिमालयी क्षेत्रों में लगातार हो रहे डेवलेपमेंट प्रोजेक्ट्स को लेकर सीएसई के पूर्व डीडीजी ने कहा कि सरकार छोटे फायदे के लिए पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का काम कर रही है. तपोवन के नजदीक ऋषिगंगा हाइड्रो प्रोजेक्ट को लेकर उन्होंने कहा,
“मैं काफी आश्चर्यचकित हूं कि इतनी ऊंचाई में, ये जो प्रोजेक्ट चल रहा था, जिसे नुकसान पहुंचा है, वो सिर्फ 15 मेगावाट का प्रोजेक्ट है. ये इतना छोटा प्रोजेक्ट है, ऐसे प्रोजेक्ट्स के लिए हमें हिमालय की इकोलॉजी से छेडछाड़ करनी चाहिए. इस 15 मेगावाट के प्रोजेक्ट से ज्यादा कुछ मिलने वाला नहीं है, इसके लिए नेचर से समझौता नहीं करना चाहिए. हिमालय में डैम को लेकर कई सालों से चर्चा हो रही है. मनमोहन सिंह सरकार में ये भी तय हुआ था कि कोई नया डैम नहीं बनेगा, जिसे विपक्ष में बैठी बीजेपी ने भी खूब सपोर्ट किया था. मुझे लगता है कि बीजेपी सरकार को ये फैसला लेना होगा कि उत्तराखंड में डैम बनाए जाएं या नहीं. ऐसे प्रोजेक्ट को हम रोक सकते हैं, ऐसे प्रोजेक्ट बनाने की इतनी जरूरत नहीं है.”
'स्टोर वाटर निकलने से ही आई आपदा'
कई सालों तक ग्लेशियर पर काम करने वाले ग्लेशियर साइंटिस्ट डीपी डोभाल ने बताया कि सरकार को किसी भी प्रोजेक्ट को शुरू करने से पहले ग्लेशियर और पहाड़ों का खयाल रखना चाहिए. उन्होंने चमोली में आई इस आपदा को लेकर कहा कि इस मौसम में ग्लेशियर का टूटना काफी अजीब है. उन्होंने कहा,
“या तो वहां पर कोई लेक रही होगी, या फिर ये किसी एवलॉन्च की वजह से हुआ है. इसका एक कारण ये भी हो सकता है कि अगर हिमस्खलन हुआ है, तो उसके साथ पत्थर भी आते हैं, उसने नदी को पूरी तरह ब्लॉक कर दिया होगा. जिसके बाद वहां पानी भरता चला गया और जब ये टूटा तो नीचे एक साथ सैलाब आया. ऐसा इसलिए क्योंकि पानी एक ही फ्लो में आया. एक बार पानी आया और फिर बंद हो गया. कुछ ही देर बाद नदी का जलस्तर सामान्य हो गया. ये स्टोर वाटर के निकलने से ही हुआ है.”ग्लेशियर साइंटिस्ट डीपी डोभाल
हर प्रोजेक्ट में ग्लेशियर को कर देते हैं नजरअंदाज
रिटायर्ड ग्लेशियर साइंटिस्ट डोभाल ने कहा कि तपोवन में हाइड्रो प्रोजेक्ट का काम चल रहा था, लेकिन क्या हुआ? वो आखिरकार पानी में बह गया. उन्होंने कहा कि पहाड़ों में सरकार कभी भी ग्लेशियर के फैक्टर पर विचार नहीं करती है. सरकार हर बार ग्लेशियर को इग्नोर करती है. उन्होंने कहा,
“जब कोई भी प्रोजेक्ट बनाया जाता है तो, हर फैक्टर पर बात होती है. लेकिन उत्तराखंड में ग्लेशियर पर बात नहीं होती है. इसके क्या खतरे हो सकते हैं, लेकबंदी, ग्लोबल वॉर्मिंग और तमाम चीजों पर ध्यान नहीं दिया जाता. नहीं देखा जाता है कि कोई लेक बन रही है या फिर कोई टूट सकती है. मैंने कई बार सरकार को ये कहा है, लेकिन इसे नहीं माना जाता है. मैंने केदारनाथ आपदा से पहले भी चेतावनी दे दी थी, जिसे नजरअंदाज किया गया था. डेवलेपमेंट के नाम पर जो ये ब्लास्ट कर रहे हैं, उसका क्या असर पड़ता है ये कोई नहीं देख रहा. इस मामले पर सिर्फ हम जैसे लोग रिसर्च करते हैं, लेकिन उस पर अमल नहीं होता.”ग्लेशियर साइंटिस्ट डीपी डोभाल
डोभाल ने बताया कि ये जो आपदा आई है वो केदारनाथ से भी बड़ी है. क्योंकि यहां पर लोग मौजूद नहीं थे, इसलिए थोड़ा कम लग रहा है. जब हर चीज जमी हुई है उस वक्त ऐसी घटना का होना एक चेतावनी की तरह है. ऐसी कई चेतावनी पहले भी मिल चुकी हैं. सरकार को ग्लेशियर को अपने डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्स में शामिल करना चाहिए. मैं कहता हूं कि अगर तीन चार साल तक पहले जैसी बर्फ गिर जाए तो इनके सारे काम बंद हो जाएं. चार धाम यात्रा प्रोजेक्ट बंद हो जाए. लेकिन बर्फबारी वैसी नहीं हो रही है.
स्थानीय पत्रकार ने बताई उत्तरकाशी की हकीकत
हिमालय क्षेत्र में पैदा हो रहे खतरों को लेकर हमने उत्तरकाशी में काम कर रहे वरिष्ठ पत्रकार शैलेंद्र गोदियाल से बातचीत की. गोदियाल ने हमें बताया कि कैसे लगातार पैदा होते खतरे को नजरअंदाज किया जा रहा है. उन्होंने हमें बताया कि उत्तरकाशी में गंगोत्री ग्लेशियर से निकलने वाली भागीरथी नदी में कई बार उफान आ चुके हैं. 2017 में गंगोत्री ग्लेशियर के नजदीक नील ताल टूटने के कारण भागीरथी में भारी उफान आया था. जिसका मलबा अभी भी गोमुख क्षेत्र में फैला हुआ है. उस मलबे को लेकर शासन की ओर से गठित निगरानी दल ने कई बार निरीक्षण भी कर दिया है. जबकि 2012 में डोडीताल का एक हिस्सा टूटने और ताल में मलबा भरने से असी गंगा घाटी में भारी नुकसान हुआ था.
गोदियाल ने बताया कि, इससे निर्माणाधीन असी गंगा जल विद्युत परियोजना प्रथम और असी गंगा विद्युत परियोजनाएं भी ध्वस्त हुई थी. साथ ही चार पुल बहने के अलावा जनहानि भी हुई. ताल का एक हिस्सा टूटने का कारण द्रवा टॉप पहाड़ी की ओर से जलप्रवाह और भूस्खलन हो रहा है, जो अभी खतरा बना हुआ है. ताल के एक किनारे पर अब भी करीब 40 मीटर मलबे का ढेर है. इसमें भारी बोल्डर, पत्थर और टूटे हुए सैकड़ों पेड़ शामिल हैं. उन्होंने कहा,
“ये मलबा हर बारिश में बहकर ताल में समा रहा है. तेज बारिश की स्थिति में मलबा एक साथ ताल में आने का खतरा है. इससे असीगंगा में बाढ़ की स्थिति भी पैदा हो सकती है. भले ही भागीरथी नदी पर मनेरी भाली प्रथम और मनेरी भाली द्वितीय परियोजनाओं ने 2012 और 2013 की आपदा का कहर भी झेला है, इन दोनों परियोजनाओं के जलाशय भी छोटे हैं. लेकिन खतरों से इनकार नहीं किया जा सकता है.”
हाइड्रो प्रोजेक्ट को लेकर हुआ था विरोध
बता दें कि चमोली के रैणी गांव के नजदीक ये आपदा आई है. रैणी गांव उत्तराखंड में काफी मशहूर है, क्योंकि ये वही गांव है जहां से चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी. साल 2019 में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें उसी ऋषिगंगा प्रोजेक्ट का जिक्र किया गया था, जो इस सैलाब में तबाह हो गया है. इसमें बायो स्फेयर रिजर्व को होने वाले नुकसान और प्रोजेक्ट में इस्तेमाल होने वाले विस्फोटकों का जिक्र किया गया था.
इसके बाद हाईकोर्ट ने रैणी गांव के आसपास किए जाने वाले विस्फोटों पर रोक लगा दी थी. इसके अलावा हाईकोर्ट ने जिला प्रशासन को आदेश दिया कि वो एक टीम बनाकर पर्यावरण को होने वाले नुकसान की जांच करें. ग्रामीणों ने भी इस प्रोजेक्ट का खूब विरोध किया था. लेकिन आखिरकार प्रोजेक्ट का काम शुरू हो गया और बताया गया है कि ये लगभग पूरा बन चुका था. लेकिन प्रकृति ने अब खुद ही इस प्रोजेक्ट को तबाह कर दिया है.
ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर चर्चा जरूरी
एक बार फिर आपदा से पर्यावरण से छेड़छाड़ का मुद्दा उठ रहा है, लेकिन कुछ दिन या हफ्ते तक चर्चा होने के बाद एक बार फिर इस बेहद संवेदनशील और अहम मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा. इसके पीछे के असली कारणों का पता लगाने की बजाय, एक बार फिर विकास के नाम पर लाखों-करोड़ों के प्रोजेक्ट्स को मंजूरी दी जाएगी. लेकिन जैसा कि एक्सपर्ट्स का कहना है कि, ये सिर्फ एक चेतावनी है और अगर जल्द इसे रोका नहीं गया तो गंभीर नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं.
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