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ज्ञानवापी मस्जिद-काशी विश्वनाथ विवाद: 1984 से शुरू होती है कहानी

ASI को ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण की अनुमति मिलने के बाद जानिए इस विवाद की कहानी

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भारत
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ज्ञानवापी मस्जिद-काशी विश्वनाथ विवाद मामले की आग एक बार फिर भड़कने की कगार पर पहुंच चुकी है. दरअसल वाराणसी की अदालत ने 8 अप्रैल को भारतीय पुरातत्व विभाग को ये अनुमति दे दी है कि वह ज्ञानवापी मस्जिद की जगह का सर्वेक्षण करे और यह पता लगाए कि क्या वाकई मस्जिद मंदिर के खंडहर में बनाई गई या नहीं.

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ये आदेश वाराणसी कोर्ट के सिविल जज(वरिष्ठ विभाग) ने मंदिर के भगवान ज्योतिर्लिंग विश्वेश्वर की ओर से अधिवक्ता विजयशेकर रस्तोगी के परम मित्र के तौर पर की याचिका के आधार पर दिए हैं. अदालत ने ये भी कहा है कि उत्तर प्रदेश सरकार इस पूरे सर्वेक्षण का खर्च उठाए. यही नहीं आदेश में भी है कि सर्वे की कमेटी में दो सदस्य अल्पसंख्य समुदाय से शामिल किए जाएं. लेकिन इस याचिका का विरोध ज्ञानवापी मस्जिद प्रबंध समिति ने किया है, जिसे अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद (एआईएम) के तौर पर पहचाना जाता है.

इस पूरे विवाद की मूल जड़ सैंकड़ों साल पुरानी है. दावा किया जाता है कि मस्जिद की जगह पहले मंदिर था, जिसे औरंगजेब ने सन 1669 में तुड़वाया था और उसकी जगह इस मस्जिद को बनाया था.

इस मामले में नए डेवलपमेंट होने के बाद हम इस विवाद की पूरी कहानी आपको बता रहे हैं.

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ज्ञानवापी मस्जिद पर हिन्दुओं का दावा कितना पुराना

सन 1984 की बात है जब देश भर से 558 साधुओं का जमावड़ा दिल्ली में हुआ था. धर्म संसद की बैठक यहीं से शुरू हुई थी. इस धर्म संसद में दूसरे कई प्रस्तावों के साथ एक प्रस्ताव यह भी पारित हुआ था कि बनारस, मथुरा और अयोध्या में हिन्दू अपने पवित्र धर्मस्थलों पर दावा करना शुरू कर दें. हालांकि उस समय 3 हजार मस्जिदों के बारे में भी चर्चाएं होती थीं, लेकिन विश्व हिन्दू परिषद और दूसरे हिन्दू धर्म से जुड़े समूह की नजरें इन दो ही मस्जिदों पर टिकी रहीं. जिसमें से एक उत्तर प्रदेश के मथुरा का शाही ईदगाह दरगाह था और दूसरा पूर्वी उत्तरप्रदेश के बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद था.

नतीजतन एक घोषवाक्य निकलकर सामने आया, ‘अयोध्या तो सिर्फ झांकी है, काशी, मथुरा बाकी है’. इस नारे की दहशत कहें या डर लेकिन इसके दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव को उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 बनाना पड़ा.

ये अधिनियम ये कहता है कि देश की आजादी के समय यानी 15 अगस्त 1947 को जहां जो आस्था स्थल था उसे वैसे ही अक्षुणन रखा जाए. इस कानून का भारतीय जनता पार्टी ने कड़ा विरोध किया था. उस वक्त बीजेपी विपक्ष में अल्पसंख्यक पार्टी हुआ करती थी. बीजेपी ने तब इस कानून को मुस्लिम वोटों को खुश करने वाला करार दिया था.

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मुस्लिम काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर पर चिंतित क्यों हैं?

होलकरों के राज में रानी अहिल्या बाई ने काशी विश्वनाथ मंदिर की नींव रखी थी. स्कंद पुराण के मुताबिक बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक ये मंदिर माना जाता है. इस मंदिर में हमेशा हिन्दुओं की चहलकदमी बनी रहती.

सूबे से सांसद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च 2019 में काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरि़डोर की नींव रखी. इस योजना के तहत काशी विश्वनाथ मंदिर के आस पास के परिसर का सौंदर्यीकरण करना जिसमें मकराना संगेमरमर, कोटा ग्रेनाइट के साथ मंदाना और बालेश्वर से लाए गए पत्थरों का खूबसूरती के साथ इस्तेमाल करना शामिल है. तकरीबन 1 हजार करोड़ रुपए की लागत से तैयार होने वाली इस परियोजना में कोई भी गंगाघाट से मंदिर के सीधे दर्शन कर सकेगा.

कॉरिडोर के निर्माण के दौरान अक्टूबर 2018 में एक ठेकेदार ने ज्ञानवापी मस्जिद के गेट नंबर 4 का एक चबूतरा तोड़ दिया. यह मस्जिद सुन्नी वक्फ बोर्ड के अधीन आती है. इस घटना के बाद परिसर में तनाव फैल गया और मुस्लिमों ने इसका विरोध किया. जिसके बाद ठेकेदार को चबूरते के तोड़े गए हिस्से को रातों रात दोबारा बनाना पड़ा. 
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यह तनाव और मुस्लिमों का विरोध इसलिए भी था कि जो चबूतरा तोड़ा गया है वह काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर निर्माण परियोजना का हिस्सा है. तब मस्जिद के संयुक्त सचिव एस एम यासिन ने कहा था बाबरी मस्जिद की ही तरह ज्ञानवापी मस्जिद भी जमींदोज कर दी जाएगी. इसी तरह कॉरिडोर के तहत सड़क के चौड़ा करने का मतलब था इसकी राह में आनेवाली दुकानों से लेकर घरों तक को गिराया जाता और सड़क चौड़ीकरण की आंच मस्जिद तक भी पहुंचती.

मस्जिद के मुफ्ती और एआईएम के सचिव मुफ्ती अब्दुल बातिन नोमानी कहते हैं कि, उन्हें कॉरिडोर के निर्माण से कोई परेशानी नहीं लेकिन उन्हें डर जरूर है. डर इस बात का कि कहीं ये लेन आवाजाही की गतिविधियों को न रोक दे और एक दिन मासला अयोध्या हमले जैसा न हो जाए. नोमानी आगे बताते हैं उनकी शंका इसलिए भी है क्योंकि कल्याण सिंह के कार्यकाल में भी अयोध्या के सौंदर्यीकरण के नाम पर मस्जिद परिसर को भी इसी तरह साफ कर दिया था.
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कितनी पुरानी है ये अदालती लड़ाई?

इसकी शुरुआत 1991 में हुई थी. अधिवक्ता विजय शंकर रस्तोगी ने मंदिर के स्वामी स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वर के नाम पर याचिका दायर की थी. इस याचिका में दावा किया गया था कि 2050 साल पहले राजा विक्रमादित्य ने इस मंदिर को बनाया था. लेकिन 1669 में मुगल शासक औरंगजेब ने इसे तुड़वाकर मस्जिद बना दी थी.

इस मस्जिद को बनाने के लिए मंदिर के खंडहरों का ही सहारा लिया गया था. इसके एक शताब्दी बाद रानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1780 में मस्जिद से लगकर मंदिर का निर्माण कराया था. स्कंद पुराण में इसका उल्लेख मिलता है कि ये बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है.

लिहाजा याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में ज्ञानवापी मस्जिद को हटाकर पूरी जमीन पर अधिकार और मस्जिद के भीतर पूजा अर्चना करने की इजाजत मांगी थी. प्रतिवाद में कहा गया कि मस्जिद मंदिर के टूटे हुए हिस्से में है. बाकी हिस्से में पूजा हो रही है और आज भी मंदिर का अधिकांश हिस्सा देखा जा सकता है.
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1997 में, वाराणसी में निचली अदालत ने प्रारंभिक मुद्दों को तय किया कि क्या मुख्य विवाद की समस्या अधिनियम की धारा 4 द्वारा रोक लगाए जाने के कारण पैदा हुई. अधिनियम कहता है कि कोई भी आराधना स्थल 15 अगस्त 1947 के वक्त जहां था उसे उसी रूप में रहने दिया जाए. लेकिन धारा 4 का (पार्ट ii) कहता है.

यदि, इस अधिनियम के तहत, किसी भी स्थान, पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र के रूपांतरण के संबंध में कोई मुकदमा, अपील या अन्य कार्यवाही 15 अगस्त, 1947 को, किसी भी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य के समक्ष लंबित है तो प्राधिकार, किसी को भी इस तरह के किसी भी मामले, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकार में इस तरह के किसी भी मामले के संबंध में या उसके खिलाफ कोई मुकदमा, अपील या अपील या कोई कार्यवाही नहीं होगी,

सुनवाई के बाद ट्रायल कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ताओं द्वारा मांगी गई राहत अधिनियम के तहत वर्जित है. इसके बाद संशोधन याचिकाएं दायर की गईं. वाराणसी के ट्रायल कोर्ट में उनकी सुनवाई की गई थी. 
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ये सब जब हो रहा था तब 1998 में अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद समिति ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का रुख किया था. समिति का तर्क था कि इस विवाद को दीवानी अदालत द्वारा स्थगित नहीं किया जा सकता. इसके लिए उपासना स्थल अधिनियम की धारा 4 का हवाला भी दिया गया था. इस पर हाईकोर्ट ने निचली अदालत पर चल रही सुनवाई पर रोक लगा दी, जो 22 साल से है.

फिर दिसंबर 2019 में, सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर अपना फैसला सुनाया, उसके एक महीने बाद, वीएस रस्तोगी ने ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वर की ओर से एक याचिका दायर कर ज्ञानवापी मस्जिद परिसर का पुरातात्विक सर्वेक्षण करने की मांग की. रस्तोगी ने वाराणसी में देवता विश्वेश्वर के 'करीबी दोस्त' के रूप में याचिका दायर की. उनकी याचिका में कहा गया है कि 1998 के एक आदेश में, पहले अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने एक निचली अदालत को निर्देश दिया था कि वह परिसर की धार्मिक स्थिति या चरित्र का निर्धारण करने के लिए पूरे ज्ञानवापी परिसर से साक्ष्य लिया जाए. हालांकि, इस सुनवाई को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा स्थगन आदेश के बाद निलंबित कर दिया गया था.

लेकिन हाईकोर्ट में चल रही सुनवाई पर स्टे लगे रहने के बाद भी वाराणसी कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सर्वे करने का आदेश दे दिया. इसका विरोध करनेवाले सुन्नी वक्फ बोर्ड का कहना है कि वह इस आदेश को चुनौती देगा.

यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष जफर फारूकी का कहना है, “हमारा मानना साफ है कि इस मामले को पूजा के स्थान (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 द्वारा रोक दिया गया है. उपासना अधिनियम का स्थान अयोध्या के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय की 5-न्यायाधीश संविधान पीठ द्वारा बरकरार रखा गया था. इसी तरह ज्ञानवापी मस्जिद का मामला है, जो सवालों से परे है.“

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वाराणसी कोर्ट ने क्या कहा?

न्यायालय ने एएसआई से कहा कि पांच सदस्यीय जानकार और प्रतिष्ठित सदस्यों की समिति गठित की जाए. इस समिति में दो सदस्य अल्पसंख्यक समुदाय से होने चाहिए."

एएसआई प्रमुख को समिति के पर्यवेक्षक के रूप में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति को लाने के लिए भी कहा गया है और यूपी सरकार को सर्वेक्षण का खर्च वहन करने का निर्देश दिया है

“पुरातत्व सर्वेक्षण का मुख्य उद्देश्य यह पता लगाना होगा कि क्या ‘विवादित स्थल’ पर वर्तमान में खड़ा धार्मिक ढांचा एक अतिपरिवर्तन, परिवर्तन के व्यतिक्त है या किसी भी तरह के ढांचे को तोड़ कर उसकी जगह कोई और धार्मिक ढांचा तो नहीं खड़ा किया गया है.” 
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अदालत के क्या दिशानिर्देश हैं?

  • सर्वेक्षण के दौरान, कलाकृतियों को ठीक से संरक्षित किया जाना चाहिए.
  • सर्वेक्षण का संचालन करते समय, समिति को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मुसलमानों को विवादित स्थल पर नमाज अदा करने से रोका न जाए. लेकिन न्यायालय ने यह भी कहा कि, यदि सर्वेक्षण कार्य के कारण समान व्यवहारिक नहीं है, तो समिति मुसलमानों को मस्जिद के बाहर किसी अन्य स्थान पर नमाज अदा करने के लिए एक उपयुक्त जगह दी जाए.
  • अदालत ने कहा कि समिति को मामले की संवेदनशीलता को समझना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि हिन्दू या मुस्लिम किसी की भी धार्मिक आस्थाओं को ठेस न पहुंचे.
  • सर्वेक्षण पूरा होने के बाद, समिति की रिपोर्ट को बिना किसी देरी के एक सील कवर में प्रस्तुत किया जाना चाहिए.

मामले में सुनवाई की अगली तारीख 31 मई 2021 है.

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