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बनारस के घाट पर चिताओं के बीच क्यों सजती है तवायफों की महफिल?

यह अजीब जरूर है, लेकिन सिर्फ उनके लिए, जो यहां की परम्परा को नहीं जानते.

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श्मशान चाहे कोई भी, वहां तो सिर्फ अपनों से बिछुड़ने के गम में डूबे लोग ही मिलेंगे. लेकिन बनारस के मणिकर्णिका घाट, जहां चिता की आग कभी नहीं बुझती, वहां की अजब परम्परा है. चैत्र नवरात्र की सप्तमी पर तवायफें पूरी रात चिताओं के बीच ठुमके लगाती हैं.

गमों के सैलाब के बीच तवायफों की यह महफिल किसी जश्न का जरिया नहीं, बल्कि ये महाश्मशान बाबा के दर पर उनकी तपस्या है. मान्यता है कि ऐसा करने पर तवायफों को अगले जन्म में इज्जत भरी जिन्दगी मिलती है.

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सती के वियोग में जहां कभी भगवान शिव ने तांडव किया था, उसी वाराणसी के मणिकर्णिका श्मशान घाट पर तवायफों की महफिल सजी. चारों तरफ चिताएं जल रह थीं और उनके बीच करीब एक दर्जन तवायफें श्मशान बाबा की पूजा के बाद एक-एक कर मंच पर ठुमके लगा रही थीं.

इस माहौल को देखकर किसी को भी अजीब लगेगा कि जहां लोग अपनों के बिछुड़ने के गम में रो रहे हैं, तो कोई उन्हें संभाल रहा है. वहीं दूसरी तरफ तवायफें ठुमके लगा रही हैं.

यह अजीब जरूर है, लेकिन सिर्फ उनके लिए, जो यहां की परम्परा को नहीं जानते. पूरे श्रृंगार के साथ सज-धजकर नाच रही तवायफें, शव लेकर आये परिजनों से कहीं ज्यादा दुखी हैं. उन्हें अगले जन्म में इस तरह की जिंदगी का सामना न करना पड़े, इसलिये वो पूरी रात इस तरह तपस्या करती हैं.

यूपी के गाजीपुर जिले के बसुका से आई एक तवायफ ने बताया:

मैं यहां पहली बार आई हूं, इस श्मशान पर श्रृंगार के आखिरी दिन नाचने से अगला जन्म अच्छा होता है. मुझे मेरी एक परिचित ने यह बताया था.

बनारस के पिन्टू किन्नर भी इस कार्यक्रम में आए थे. उनका कहना था कि उन लोगों को तो मंच नहीं मिलता, फिर भी वे पूरी रात बाबा की सेवा करते रहे. पिन्‍टू ने कहा कि बाबा उन्‍हें आशीर्वाद देगें और अगले जन्म में ऐसा नहीं होगा.

कब से कब तक चलता ये कार्यक्रम

यह कार्यक्रम हर साल चैत्र नवरात्र की पंचमी से लेकर सप्तमी/अष्टमी तक चलता है. इसमें आखिरी दिन तवायफें आती हैं. हालांकि इस परम्परा को लेकर एक और भी कहानी बताई जाती है.

पंद्रहवीं शताब्दी में आमेर के राजा और अकबर के नवरत्नों में से एक राजा मानसिंह ने इस पौराणिक घाट पर भूत भावन भगवान शिव के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था, जो इस शहर के आराध्य देव भी हैं. इस मौके पर वो सगीत का कार्यक्रम करना चाहते थे, लेकिन उस वक्‍त कोई भी कलाकार इस श्मशान में आने की हिम्मत नहीं कर सका. तब तवायफों को बुलाया गया. इन लोगों ने उस समारोह में बेहिचक शिरकत की, तभी से ये परम्परा चली आ रही है. आज भी यहां आना हर तवायफ अपना सौभाग्य समझती हैं.

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