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देश के लिए लड़ने वालों पर 'नकेल' के लिए पेंशन रोकने की धमकी तुच्छ

नया नोटिफिकेशन कहता है कि गोपनीयता तोड़ी तो पेंशन रोक दी जाएगी

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नैतिक रूप से कोई भी नागरिक 'वर्दीधारी' सुरक्षाकर्मी की अपेक्षा अपने संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा का ज्यादा हकदार नहीं है. ऐसा इसलिए है क्योंकि सुरक्षाकर्मियों ने भारत की संप्रभुता और संवैधानिकता की रक्षा अपनी जिंदगी को दांव पर लगाकर किया है. संरचनात्मक रूप से 'वर्दीधारी' कर्मियों को उत्साह के साथ देश,नागरिक, संवैधानिक मूल्य और गोपनीय सूचनाओं की रक्षा के लिए तैयार करने को दो अनोखी अवधारणाओं का इस्तेमाल किया जाता है.

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पहली 'असीमित दायित्व' की अलिखित अवधारणा, जो यह अनिवार्य कर देती है कि सैनिकों का व्यवहार इंसानी स्वभाव के विपरीत हो. जैसे सैनिक प्रायः अपनी जिम्मेदारियों और ड्यूटी को निभाने के लिए स्वेच्छा से जंग की ओर बढ़ जाते हैं.

दूसरी अवधारणा है- अंतिम जंग में अपने उद्देश्यों की 'इज्जत' बचाए रखने के लिए 'अंतिम कीमत' तक चुकाने की. यह अवधारणा स्वाभाविक तौर पर इस संस्थान के प्रति लोगों के सम्मान और आस्था को मजबूत करती है, जो कि किसी अन्य संस्थान द्वारा शायद अर्जित नहीं की जा सकती. यह मेहनत से कमाई गई प्रतिष्ठा है. यह राजनैतिक वर्गों के लिए परेशानी और झुंझलाहट का कारण है ,जो अपने आप को देश का अंतिम नेता मानते हैं.

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राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित गोपनीय सूचना की पवित्रता क्यों जरुरी ?

बुनियादी गोपनीयता और जिम्मेदारी की भावना को ऐसे ही नहीं त्यागा जा सकता. वेटरन खुद को इस प्रतिष्ठित संस्थान के विस्तार के ही रूप में देखते हैं और उनसे उम्मीद की जाती है कि वे उन जानकारियों की पवित्रता,शुद्धता और गोपनीयता को बनाए रखेंगे जो कि उन्हें अपने सर्विस के दिनों में प्राप्त हुई हो.

इसी भावना को लेजेंडरी स्कॉलर-योद्धा जनरल जेम्स मैटिस( अमेरिका के पूर्व रक्षा सचिव)ने फ्रेंच कहावत "devoir de reserve" या 'चुप रहने का कर्तव्य' में बताया था, जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता.

दिलचस्प बात यह है कि सैनिकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाता है कि वह किसी भी ऐसे आचरण का विरोध करे जो वर्दी में पुरुषों एवं महिलाओं के लिए अशोभनीय है. फिर चाहे पावर में बैठे लोगों से सच बोलना पड़े या यहां तक कि अपने उच्च अधिकारियों से. क्योंकि दांव पर क्या लगा है ,वह देखकर चुप्पी की कीमत का आकलन नहीं किया जा सकता.

सर्विस पीरियड में विशेषाधिकार प्राप्त अनुभव और जानकारियां प्राप्त होती है जिनको जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से हैंडल करने की उम्मीद की जाती है .यह कोई डिनर टेबल के बातचीत में उगलने या पब्लिक डोमेन में सामने लाने वाली बातें नहीं है .संप्रभुता की रक्षा के लिए गोपनीय जानकारियों की पवित्रता सुनिश्चित करना तार्किक है.वर्दीधारी सेवाकर्मी सर्विस पीरियड में या उसके बाद भी इसके महत्व को समझते हैं.

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ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट और सूचना का अधिकार

स्वाभाविक रूप से 'कर्तव्य से चूकने' के मामलों को रोकना जरूरी है और इसके लिए आजादी के पहले ही 1923 में 'ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट' जैसा कानून लाया गया ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में गोपनीयता सुनिश्चित की जा सके. इसके दायरे में राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़े ऑफिसियल सीक्रेट्स, क्लासिफाइड डेटा के अलावा अन्य आरक्षित जानकारियों की पवित्रता सुनिश्चित की जाती है.

इसके बावजूद कि यह सूचना के अधिकार कानून के भावनाओं के विपरीत था, व्यवहारिकता के पैमाने पर सुरक्षा मामलों के लिए गोपनीयता को आवश्यक मानते हुए वर्दीधारी सेवाकर्मियों ने इसको स्वीकार किया, इसके प्रति वफादार रहें और इस को सम्मानित किया.
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मौजूदा 'ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट' को और ज्यादा सख्त करने की जरूरत थी?

पब्लिक डोमेन में हंगामा तब मचा जब एक प्रमुख समाचार पत्र ने एक डॉक्यूमेंट प्रकाशित किया जिसमें कथित तौर पर रक्षा खरीद से संबंधित गोपनीय दस्तावेज थे- लेकिन ऐसे 'कर्तव्य से चूकने' का उदाहरण आमतौर पर सुनने को नहीं मिलता है. फिर भी लोकतंत्र के प्रगतिशील आधारों को ध्यान में रखकर 'सूचना का अधिकार' कानून का भाग 8(2) सरकार को तब जानकारी के खुलासे के लिए बाध्य करता है "अगर सूचना को प्रकट करने में सार्वजनिक हित, संरक्षित हितों के नुकसान से अधिक हो", चाहे इसके लिए सरकार को ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट के तहत छूट ही क्यों ना मिली हो.

अधिकांश क्षेत्रों की तरह मुद्दा अपर्याप्त कानूनों का नहीं बल्कि उसके विवेकपूर्ण प्रयोग का है. कई बार उनका केवल दुरुपयोग होता है- (उदाहरण के लिए सांबा जासूस केस) या राजनैतिक मंशा की कमी होती है (जो कि संवैधानिक उद्देश्य के विपरीत है).

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हाल के अनुभवों से, ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट के तहत मौजूद ढांचे से अलग प्रावधानों को और सख्त करने की कोई आवश्यकता नहीं थी, जिसने पहले ही यह नियम बनाया था कि रिटायर्ड ऑफिसर को ऐसी सामग्री प्रकाशित करने की अनुमति नहीं है जो भारत की संप्रभुता और अखंडता या इसकी सुरक्षा, रणनीतिक, वैज्ञानिक,आर्थिक हितों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित ना करती हो. यह पहले ही पूरी तरह से न्यायसंगत,उचित और आवश्यक लग रहा था.

हालांकि कार्मिक,लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय के द्वारा जारी नया नोटिफिकेशन ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट के अनुसार कदाचार को रिटायर्ड कर्मियों के पेंशन से जोड़ता है. यह किसी भी तार्किक उद्देश्य से अत्यधिक अनावश्यक लगता है.

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नयी सरकारी नोटिफिकेशन के इरादे पर शक

सबसे पहले ,अगर कोई राष्ट्र की अखंडता- संप्रभुता से समझौता करता है तो उसे दंडित केवल पेंशन छीन कर नहीं किया जाना चाहिए बल्कि उससे भी कठोर दंड देना चाहिए, जैसा कि ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट के मौजूदा प्रावधान में पहले से ही दिया गया है .लेकिन इसी को विस्तारित करके रिटायर्ड ऑफिसर को किसी भी ऐसी चीज के प्रकाशन से रोकना-जो इस संस्था से जुड़ी हो या इस संस्था में काम करने से आई विशेषज्ञता/जानकारियों से जुड़ी हो -अत्यधिक अनुचित, प्रतिबंध भरा और डराने वाला लगता है. इसका दुरुपयोग अपनी-अपनी व्याख्या के अनुसार किया जा सकता है.

नया नोटिफिकेशन जारी करने की टाइमिंग और पृष्ठभूमि इसके पीछे किसी बड़े उद्देश्य की ओर इशारा करती हैं और इसके 'इरादों' को लेकर चिंता भी है. सीधे शब्दों में कहे तो पृष्ठभूमि विचलित करने वाली है. पहले से ही भारत के सत्ता के गलियारों में बढ़ती अनुदारवादी प्रवृत्ति को लेकर वैश्विक धारणा मजबूत होती जा रही है. यह वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स ,फ्रीडम हाउस इंडेक्स ,ह्यूमन फ्रीडम इंडेक्स,इत्यादि में हमारी स्थिति में दिख सकती है .अगर इस नोटिफिकेशन को लाने का उद्देश्य रिटायर्ड सरकारी अधिकारियों द्वारा वक्त ओपिनियन पर 'नियंत्रण' करना है तो यह गहरी चिंता का विषय है.

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'व्यवस्था विरोधी' और 'राष्ट्र विरोधी' में अंतर ना करना

नोटिफिकेशन की भाषा इतनी व्यापक और सामान्य है कि किसी भी चीज को "संस्थान के अंतर्गत ,जिसमें किसी भी कर्मचारी और उसके पद के बारे में कोई जानकारी और उस संस्थान में काम करने से मिली विशेषज्ञता या जानकारी" से जोड़ा जा सकता है .यह इस विषय पर विशेषज्ञ रिटायर्ड अधिकारियों के द्वारा सरकार के विरुद्ध कोई भी ओपिनियन देने पर प्रतिबंध लगा सकता है, जबकि उसने ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट का उल्लंघन किया भी ना हो.

अगर रिटायर्ड ऑफिसरों के द्वारा सिर्फ क्लासिफाइड जानकारियों को सार्वजनिक तौर पर या मीडिया में रखने की मनाही होती( जिससे राष्ट्र के हित असुरक्षित होते हो), तब शायद हंगामा ना होता. लेकिन अब ऐसा लगता है कि छोटी सोच की भावना से यह सब किया जा रहा है.
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शायद 'व्यवस्था विरोधी' और 'राष्ट्र विरोधी' के बीच अंतर नहीं किया जा रहा, जबकि यह दोनों अलग-अलग विचार है. व्यवस्था को इन दोनो में अंतर करने के लिए मैच्योरिटी और गरिमा का प्रदर्शन करना चाहिए. रिटायर्ड ऑफिसरों( विशेषकर वर्दीधारी बिरादरी के) ने मौजूदा प्रावधान के अंदर कई दशकों तक अपने राष्ट्रीय और संवैधानिक कर्तव्य को पूरा किया है. यह कार्य उन्होंने अपने बुढ़ापे का सहारे(उनके पेंशन) को छीन लेने की धमकी के बिना किया है. निश्चित रूप से वह इस बर्ताव से बेहतर के हकदार हैं.

(लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) भूपेंदर सिंह अंडमान-निकोबार और पुडुचेरी के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर रह चुकें हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने है. 'द क्विंट' का उससे सहमत होना जरूरी नहीं है)

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