ADVERTISEMENTREMOVE AD

संडे व्यू: चुनाव नतीजे में दिखेगा सत्ता विरोध, पाक से संभव दोस्ती?

संडे व्यू में पढ़ें टीएन नाइनन, तवलीन सिंह, चंद्रभूषण और ललिता पणिक्कर के आर्टिकल.

Updated
भारत
7 min read
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

पूरब में बीजेपी के पैर मजबूत

टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि महज दो चरणों के चुनाव के बाद चुनाव नतीजों को लेकर भविष्यवाणी करना खतरनाक है, फिर भी सुरक्षित होकर कहा जा सकता है कि असम और बंगाल दोनों राज्यों में बीजेपी टक्कर में है. बाकी दलों का मुख्य एजेंडा बीजेपी को हराना है. व्यापक नजरिए से देखें तो इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि इस बार नहीं तो अगली बार कब बंगाल में बीजेपी आ रही है.

असम समेत लगभग समस्त उत्तर पूर्व में यह सत्ता में है. पूरब पर धीरे-धीरे पार्टी कब्जा कर चुकी है. बिहार में बड़ी पार्टी होकर गठबंधन में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बना चुकी है बीजेपी. ओडिशा में बुजुर्ग हो रहे नवीन पटनायक के बाद विरासत थामने को तैयार बैठी है बीजेपी.

नाइनन लिखते हैं कि उत्तर और पश्चिम के ज्यादातर हिस्से इसके नियंत्रण में हैं. बीजेपी की सफलता के पीछे ममता बनर्जी जैसे नेताओं की गलतियां रही हैं. कभी कम्युनिस्ट सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए संगठित हिंसा और भ्रष्टाचार का मुद्दा ममता ने उठाया था. आज वही मुद्दे ममता के खिलाफ उठ रहे हैं. महाराष्ट्र में प्रशासन के राजनीतिक इस्तेमाल और भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच गठबंधन सरकार अपनी विश्वसनीयता खो रही है. संसद पर अपने प्रभुत्व का इस्तेमाल भी कर रही है बीजेपी. जम्मू-कश्मीर के बाद अब दिल्ली की सत्ता पर नियंत्रण उसने बना लिया है.

दक्षिण के चार राज्यों में थोड़ी मुश्किल जरूर दिखी है. तमिलनाडु में बीजेपी को किसी नीतीश कुमार की जरूरत है. कर्नाटक में लिंगायत की तरह आंध्र में भी उसे किसी मजबूत समर्थन का इंतजार है. केरल में चुनौती बनी हुई है. वहीं उत्तर में पंजाब के किसान मुश्किल बने हुए हैं. बीजेपी शासन करने के मुकाबले चुनाव जीतने में बेहतर साबित हुई है. रोजगार देने और जीवन को आसान बनाने से ज्यादा उसका ध्यान ‘पोरिबोर्तन’ पर ज्यादा है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

चुनाव नतीजों में चौंकाएगी एंटी इनकंबेंसी

एसए अय्यर द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखते हैं कि पांच राज्यों में हो रहे चुनाव नतीजों पर एंटी इनकंबेंसी का असर दिख सकता है और इसकी वजह आर्थिक मोर्चों पर मुश्किलें और कोविड से उत्पन्न परिस्थितियां हैं. अतीत में आर्थिक उतार-चढ़ाव से चुनाव नतीजों को जोड़ते हुए लेखक बताते हैं कि जब-जब देश की जीडीपी गिरी है या चढ़ी है उसका असर इनकंबेंट सरकारों के विरोध और समर्थन के तौर पर दिखा है. 2016-17 के बाद से 25 प्रदेशों में हुए चुनावों में केवल दो मामलों को छोड़कर सत्ताधारी दलों को सत्ता या सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है.

लेखक को लगता है कि बंगाल में गठबंधन की सरकार के आसार हैं, तो असम और यहां तक कि केरल में भी एंटी इनकंबेंसी असर दिखाएगी. तमिलनाडु और पुडुचेरी में यह तय लगता है.

अय्यर बताते हैं कि 2017 में बीजेपी ने उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और मणिपुर में सत्ताधारी दलों को मात दी थी. खुद पंजाब में एनडीए के पैर उखड़ गए थे, जबकि गुजरात में एंटी इनकंबेंसी में बीजेपी के पांव करीब-करीब उखड़ ही गए थे, लेकिन उसने सरकार बचा ली. 2018 में टीआरएस की वापसी हुई. त्रिपुरा में 25 साल का शासन बीजेपी ने खत्म किया. कर्नाटक में कांग्रेस चुनाव हारने के बावजूद गठबंधन सरकार बनाने में सफल रही जो बाद में सरकार गिर गई. बीजेपी को मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार गंवानी पड़ी.

सर्जिकल स्ट्राइक और पाकिस्तान में बमबारी के बाद 2019 के आम चुनाव में मोदी ने बड़े बहुमत से एंटी इनकंबेंसी को मात दी. लेकिन, आंध्र प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र में बीजेपी की बुरी गत हुई. ओडिशा में नवीन पटनायक की सीटें घटीं, तो सिक्किम में पवन चामलिंग सत्ता से बाहर हुए. अरुणाचल और दिल्ली अपवाद रहे.

बिहार में फिर से मुख्यमंत्री होने के बावजूद नीतीश कुमार की ताकत बहुत घट गई. अय्यर लिखते हैं कि 90 के दशक में असमान विकास दर तीन चौथाई प्रदेश की सरकारों को लील गयी तो 2000 के दशक में चढ़ती जीडीपी के सहारे तीन चौथाई सरकारें लौटने में कामयाब रहीं.

0

क्या पाकिस्तान से संभव है दोस्ती?

तवलीन सिंह द इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच अमन-शांति के हल्के, धुंधले आसार दिखने लगे हैं. दोनों प्रधानमंत्रियों की एक-दूसरे को चिट्ठी, भारत से कपास और शक्कर खरीदने की इच्छा और बीच में आर्टिकल 370 का आ जाना ताजा घटनाएं हैं. सच यह है कि आर्टिकल 370 को खत्म किए जाने का काम वर्षों से जारी था.

नई बात अगर कुछ हुई है तो वह है जम्मू-कश्मीर का दो हिस्सों में बंट जाना. लेखिका अपने अनुभव से बताती हैं कि कश्मीर को लेकर पाकिस्तान की अवाम और जनता दोनों को भारी गफलत रही है. वे कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने का सपना देखते हैं. भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती में सबसे बड़ी समस्या कश्मीर होता तो मुंबई पर आतंकी हमले क्यों होते? जेहादी आतंकवाद बड़ी समस्या है.

तवलीन सिंह का मानना है कि कश्मीर को लेकर पाकिस्तान से दो टूक कह दिया जाना चाहिए कि यह भारत की समस्या है, पाकिस्तान की नहीं. सवाल यह है कि क्या भारत-पाकिस्तान में दोस्ती संभव है?

हिंदुत्व की सियासत में पाकिस्तान को निशाना बनाया जाना, गाली की तरह पाकिस्तान शब्द का इस्तेमाल जारी रहते यह कैसे हो सकता है? ऐसा भी कहा जा रहा है कि दोस्ती की यह पहल इसलिए की गई है कि भारत एक साथ दो मोर्चों पर नहीं लड़ सकता. दुश्मनी के कारण पाकिस्तान और भारत दोनों ही अपने लोगों को रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार नहीं दे सके हैं.

ढाका में बड़ा बदलाव आया है. तीस साल पहले झुग्गी-झोपड़ियों वाला यह देश आज कई मायनों में हिंदुस्तान और पाकिस्तान से आगे निकल चुका है. बांग्लादेश के शहरों में आया परिवर्तन भारत-पाकिस्तान में नजर नहीं आता.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

बहुसंख्यकवादी हो रहा बंगाल?

सुनंदा के. दत्ता रे ने द टेलीग्राफ में लिखा है कि पश्चिम बंगाल में जारी विधानसभा चुनावों के दौरान जो कुछ हो रहा है उसे देखकर बहुत दुखी होते कभी कम्युनिस्ट नेता रहे जॉली मोहन कॉल, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं. 1977 में भी सिद्धार्थ शंकर रे की कांग्रेस संजय गांधी के अंगूठे के नीचे थी और तब भी ऐसी ही स्थिति पैदा हुई थी.

वे लिखते हैं कि लंदन के फेल्थाम में एक गुजराती से हुई बातचीत दिलचस्प है जिन्होंने लेखक और उनकी पत्नी को बंगाली जानकर बंगाल चुनाव की चर्चा छेड़ी और उंगलियों पर गिनकर बताया कि भारत पर शासन किसका है- मोदी, शाह, अंबानी, अदानी. और, ये सभी ममता की जान के पीछे पड़े हैं. जॉली की उम्मीद यह जरूर होती कि तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस, वामपंथी दल और इंडियन सेकुलर फ्रंट एकजुट हो जाते और हमलावरों का मुकाबला करते.

सुनंदा के दत्ता रे लिखते हैं कि हालांकि कॉल ये जानते थे कि बंगाल की मिट्टी और आत्मा से धर्म को मिटाया नहीं जा सकता, लेकिन बंगाल की पहचान के लिए उन की नजर में भारतीय जनता पार्टी मोहम्मद गौरी की तरह होती जिसने सोमनाथ मंदिर को लूटा. जॉली जानते थे कि जवाहरलाल नेहरू का सेकुलरिज्म धूमिल पड़ चुका है और महात्मा गांधी की धर्मनिरपेक्षता खत्म हो चुकी है जो धर्म की ताकत का सम्मान करते थे. लेकिन इससे सांप्रदायिकता के उभार को भुलाया नहीं जा सकता.

लेखक मौलिक स्वतंत्रता को बचाए रखने की जरूरत पर जोर देते हैं. प्रताप भानु मेहता और अरविंद सुब्रहमण्यम का वे उदाहरण रखते हैं. वे एकेडेमिया और मीडिया की भी तुलना करते हैं. ये दोनों आदर्श के साथ-साथ व्यावहारिकता से जुड़े हैं. भ्रष्टाचार की बात उठाने वाली मीडिया पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं. लेखक बताते हैं कि एक समय था जब राजनीतिक विरोधी नेता एक-दूसरे को मुश्किल घड़ी में एक-दूसरे को नौकरी देने-दिलाने में भी मदद किया करते थे

वे जॉली के निधन के बाद उन पर लिखे आर्टिकल के प्रकाशन की भी चर्चा करते हैं और पारिश्रमिक नहीं मिलने से जुड़ी नैतिकता की भी. बदली हुई परिस्थितियों में बंगाल से 5 हजार की दूरी से लेखक महसूस करते हैं कि बहुसंख्यकवाद के सामने धर्मनिरपेक्ष एकजुटता को विदा कर सकता है बंगाल.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

महिलाओं का सिर्फ इस्तेमाल, हिस्सेदारी देने में पीछे हैं दल

ललिता पणिक्कर हिंदुस्तान टाइम्स में लिखती हैं कि महिलाओं के वोट लेने के लिए राजनीतिक दलों ने योजनाएं तो खूब रखी हैं, लेकिन उन्हें प्रतिनिधित्व देने के मामले में वे काफी पीछे हैं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी खुद को बंगाल की बेटी बता रही हैं, मगर केवल 17 फीसदी महिलाओं को उन्होंने चुनाव मैदान में उतारा है. फिर भी यह संख्या दूसरे दलों के मुकाबले ज्यादा है.

विकास के मानकों पर शीर्ष रहने वाला केरल भी इस मामले में पीछे है. वामदल, कांग्रेस और बीजेपी सभी दलों के कुल 420 उम्मीदवारों में महिला उम्मीदवारों की संख्या केवल 40 है. वामदलों ने के आर गौरी और सुशीला गोपालन जैसे स्टार प्रचारकों को भी टिकट नहीं दिया है.

ललिता पणिक्कर लिखती हैं कि तमिलनाडु में दोनों प्रमुख गठबंधनों से महिला उम्मीदवारों की तादाद 13 फीसदी से भी कम है. यहां AIADMK के साथ बीजेपी गठबंधन में है जिसने जीतने पर हर महिला को 1500 रुपये, मुफ्त वाशिंग मशीन, मुफ्त गैस सिलेंडर, अम्मा पेट्रोल जैसे वादे किए हैं. ऐसे ही वादे DMK गठबंधन की ओर से भी है. चुनाव अभियानों के दौरान बेटियां, माताओं और पत्नियों की सुरक्षा की बात तो की जाती है, लेकिन राजनीति में उनके लिए सुरक्षित जगह के बारे में सोचने से ये पार्टियां पीछे रह जा रही हैं. देश की ज्यादातर पार्टियां अपने कामकाज में पुरुष कार्यकर्ताओं पर निर्भर हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

‘नेट जीरो’ से डर किसे?

द टाइम्स ऑफ इंडिया में चंद्रभूषण लिखते हैं कि क्लाइमेट डिप्लोमेसी के तहत भारत पर यह दबाव बढ़ गया है कि ‘नेट जीरो’ के मकसद के प्रति भारत भी अपनी प्रतिबद्धता दिखाए. 120 देश अब तक इस पर सहमति जता चुके हैं. अमेरिका ने 2050 तक और चीन ने 2060 तक ऐसा करने का संकल्प जताया है.

नेट जीरो का मतलब है कार्बन उत्सर्जन को संतुलित बनाना जो वैश्विक तापमान की वृद्धि को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित करने के लिए जरूरी है. कार्बन उत्सर्जन में 2030 तक 45 प्रतिशत कमी करने और 2050 तक शून्य के स्तर पर लाने का लक्ष्य है.

चंद्रभूषण लिखते हैं कि भारत को ‘नेट जीरो’ को लेकर अपना नजरिया बदलना होगा. भारत ने सोलर एनर्जी और रिन्यूएबल एनर्जी के मामले में अपनी क्षमता में दस गुणा से ज्यादा सुधार बीते डेढ़ दशक में किया है. ‘नेट जीरो’ के लक्ष्य का नेतृत्व कर सकता है. यह भी देखा जाना चाहिए केवल संकल्प लेने और उस पर अमल करने में अंतर नहीं होना चाहिए.

अमेरिका जैसे देश भी हैं जहां जलवायु परिवर्तन को लेकर राजनीति बदलने से ही विचार बदल जाते हैं. जो विकसित देश हैं वे अपने लिए 2040 और विकासशील देश 2050 तक इस लक्ष्य तक पहुंचने का मकसद रखे. भारत जैसे देश जो प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन में अन्य देशों के मुकाबले कमतर है, उसे 2060 तक का अवसर मिलना चाहिए. लेखक का मानना है कि ‘नेट जीरो’ से भारत जैसे देशों को डरने की जरूरत नहीं है, डर उन्हें लगना चाहिए जिनकी कथनी और करनी में अंतर है.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×